Thursday, March 31, 2016

history of Madhad Who branch of Pratihar / parihar Kshatriya Rajputs of india



====मडाड प्रतिहार वंश====

भाइयों आज हम इस लेख के माध्यम से आप सभी बंधुओं को विस्तार से एक ऐसे क्षत्रिय वंश की जानकारी देंगे जो सदियों पराक्रमी बलिदानी और शौर्यवान होने के बावजूद भी इतिहासिक शोध की कमियों के चलते उपेक्षित रहा है।

जी हाँ आज हम आपको रघुवंशी प्रतिहारों की एक शाखा , भगवान श्री राम के अनुज श्री लक्षमण के वंशज मडाड राजपूत वंश की जानकारी देगें।

मडाड क्षत्रिय वंश प्रतिहार राजपूत (क्षत्रिय) वंश की ही एक शाखा है जिसका उद्धव रघुवंशी राजा श्रीरामचंद्र जी के अनुज लक्षमण जी के वंश से हुआ। क्षत्रिय प्रतिहारों के घटियाला मंडोर ग्वालियर शिलालेखों/प्रशस्ति/ताम्रपत्रों से भी यह ज्ञात (इन शिलालेखों में यह अंकित है) होता है के प्रतिहार राजपूत भगवान श्री राम के अनुज लक्षमण के वंशज और रघुवंशी है।

" कैथल चंदैनो जीतियो, रोपी ढिंग ढिंग राड़।
नरदक धरा राजवी, मानवे मोड़ मडाड।।"

गोत्र : भारद्वाज
प्रवर: भारद्वाज, बृहस्पति , अंगिरस
वेद: सामवेद
कुलदेवी: चामुंडा
कुलदेव: विष्णु
पक्षी: गरुड़
वृक्ष: सिरिस
प्रमुख गद्दी: कलायत
विरुद: मानवै मोड़ मडाड ( सबसे बड़े मडाड)
आदि पुरुष: लक्ष्मण
पवित्र नदी: गंगा
वर्तमान निवास---करनाल,कुरुक्षेत्र,जीन्द,अम्बाला,पटियाला,रोपड़,सहारनपुर,रूडकी आदि में मिलते हैं हरियाणा से विस्थापित मुस्लिम मड़ाड राजपूत पाकिस्तान में बड़ी संख्या में मिलते हैं जो अपने कुल पर आज भी गर्व करते हैं

==== मडाड प्रतिहारों की अभिन्न शाखा ====

भाटों की पोथियों और नवीन शोध के अनुसार मंढाड़ और बडगुजर दोनों ही प्रतिहार राजपूत वंश की शाखाएँ हैं। इनके रेकॉर्डस के अनुसार प्रतिहारों के दो राजा आज के राजस्थान और मध्यप्रदेश के इलाके से विस्थापित हो कर उत्तर में राज्य स्थापित करने आए जिनमे से मंढाड़ उत्तर में ही बसे रहे और खडाड विस्थापित हो कर वापिस दक्षिण दिशा की और चले गए। यह घटना 10वीं शताब्दी के आस पास की मानी गयी है।

राजस्थान में गुर्जरा इलाके से अलवर आकर बसे प्रतिहारों को बड़गुर्जर प्रतिहार कहा गया जिन्होंने 9 वीं शताब्दी के आस पास यहाँ शाशन जमाया। बड़गुर्जरों के राज्य के समीप उत्तर में बसे मडाड़ो को इस कारण भूल वष बड़गुर्जरों से अलग हुई शाखा माना जाने लगा। परंतु मडाड़ो पर किये गए नए इतिहासिक शोधों से पता चलता है की यह शाखा प्रतिहारों से निकलकर बड़गुर्जरों से पहले ही अस्तित्व में आ गयी थी जिसका प्रमाण राजस्थान के मेवाड़ इलाके में सिरोही जिले की रेवदर तहसील में मिले मंढाड़ प्रतिहारों के शिलालेख हैं। यह शिलालेख 11 वीं शताब्दी के आसपास केे सिद्ध होतें है। यहां पाये गए शिलालेखों और लोक परम्पराओं से यह भी सिद्ध हो जाता है के मडाड प्रतिहार नामक राजा ने 11 वीं शताब्दी से बहुत पहले ही यहाँ शाशन किया और अपनी जागीर जमाई।

प्रतिहारों को रघुकुली होंने का समर्थन सन् 973 ईसवीं का शाकम्भरी चाहमान सम्राट विग्रहराज २ का हर्ष शिलालेख भी करता है जिसमें स्पष्ट अंकित है।

सम्राट मिहिर भोज के पुत्र महेन्द्रपाल देव कनौज के शाशक बने। काव्य मीमांसा का रचियता राजशेखर इस सम्राट का गुरु था। इसने अपनी प्रसिद्ध कृति 'कर्पूर मंजरी' में महेन्द्रपाल को निर्भयराज और रघुकुल चूड़ामणि लिखा है यानि रघुकुल के नायक कहा....

7 वीं - 10 वीं शताब्दी को भारत में स्वर्णिम प्रतिहार काल माना जाता है। इस समय प्रतिहारों ने समस्त उत्तर भारत पर शाशन जमाया और आर्यव्रत के सम्राट बने। इस दौरान चौहान परमार राष्ट्रकूट जैसे कई क्षत्रिय कुलों ने प्रतिहारों का अधिपत्य स्वीकार किया और इनके अधीन रहे।इस दौरान नागभट, मिहिरभोज, वत्सराज, महेन्द्रपाल आदि प्रतिहार राजाओं ने पहले अवन्ती,फिर गुर्जरो को उनके प्रदेश से खदेड़कर जालौर भीनमाल में और उसके बाद कन्नौज में राजधानी जमाकर पूरे उत्तर भारत पर शासन किया...

प्रतिहार वंश में अवन्ती उज्जैनी के शासक महान नागभट्ट-1 प्रतिहार हुए जिन्होंने गल्लका लेख के अनुसार गुर्जरों को गुर्जरा देश से खदेड़ा और वहाँ अपना शाशन जमाया व गुर्जरा नरेश कहलाए।

सम्राट मिहिर भोज महान के काल ( सन 836 - 888 ईस्वीं ) के दौरान प्रतिहारों का राज्य समस्त उत्तर भारत में और अफ़ग़ानिस्तान से लेकर बंगाल तक तथा दक्षिण में कोंकण तक फैला। इस दौरान कन्नौज प्रतिहारों की राजधानी थी।

इसी महान कुल की एक शाखा है मडाड/ मुंढाड़ प्रतिहार क्षत्रिय राजपूत वंश।

मडाड राजपूत मध्य और उत्तर हरयाणा के जींद पानीपत करनाल कैथल अम्बाला आदि जिलों के 80 गाँवों में निवास करते हैं। कभी हरयाणा प्रदेश में इनका राज्य यमुना नदी से लेकर घग्गर नदी तक सम्पूर्ण मध्य और उत्तर हरयाणा में फैला हुआ था जिसके पूर्व में पुण्डीर और चौहान पश्चिम में और दक्षिण में तंवर और उत्तर में भाटी क्षत्रियों के राज्य थे। आजादी के समय तक मंडाड़ राजपूत इस इलाके के 360 गाँवों में निवास करते थे। अफ़ग़ानों मुग़लों और अंग्रेजो के ताज से इस वंश के इस महान क्षत्रिय वंश ने जम कर लगातार लोहा लिया और निरंतर संघर्ष किया जिसका विवरण हम अगले भाग में देंगे।

संभवत: जिस खडाड वंशी प्रतिहार क्षत्रियों का उल्लेख भाट करते हैं वह आज के बड़गुर्जर क्षत्रिय ही हैं जिन्हें खडावत भी कहा जाता है।
कुछ इतिहासकार मड़ाड वंश को बडगुजर राजपूतों की शाखा बताते हैं और बडगुजर राजपूतों को श्रीराम के पुत्र लव की संतान और गहलौत राजपूतो का भाईबंद बताते हैं बताते हैं किन्तु हरियाणा के मड़ाड राजपूतों में लग्न/शुभ कार्यों में मड़ाड गोत्रे लक्ष्मण गोत्रे का उच्चारण होता है,ग्वालियर की भोज प्रशस्ति और घटियाला शिलालेख के अनुसार प्रतिहार लक्ष्मण के वंशज हैं तथा राजौरगढ़ के शिलालेख से स्वयम बडगुजर वंश भी प्रतिहार वंश की शाखा सिद्ध होता है,इसके अतिरिक्त नवीन शोध से सिद्ध हो गया है कि स्वयम गहलौत वंश भी लव की बजाय कुश का वंशज है,
ब्रिटिश गजेटियर में भी उल्लेख है कि बडगुजर,परिहार(प्रतिहार),मड़ाड,सिकरवार वंश आपस में शादी ब्याह नहीं करते और स्वयम को भाई मानते हैं यह परम्परा और जनविश्वास डेढ़ सदी से पहले भी था,
इससे सिद्ध होता है कि रघुवंशी लक्ष्मण के वंश में प्रतिहार (परिहार) क्षत्रिय हुए और बडगुजर सिकरवार मड़ाड आदि उन्ही की शाखाएँ थी.......

मड़ाड वंश प्रतिहार राजपूतों से कैसे अलग हुआ------

लोकपरंपरा जिसका समर्थन शिलालेख भी करते हैं की प्रतिहार क्षत्रिय कुल में मडाड नामक एक प्रभावशाली वीर राजा हुआ जिसकी जागीर का विस्तार आबू से पश्चिम जीरापल्ली तक था।

इसने अपने नाम से सुकड़ी नदी के किनारे पहाड़ी की तलहटी में एक गाँव बसाया और यहीं से अपना शाशन किया।लोक परम्परा में आये उन स्थानों की पहचान आज भी आसानी से की जा सकती है। जीरापल्ली ही आज का विश्व प्रसिद्ध जैन तीर्थ जीरावला है जो दिलवाड़ा से 32 किमी पश्चिम में स्थित है।
मडाड प्रतिहार के शिलालेखों में उसके राज्य का जो विस्तार बताया गया है उनमें वरमान और कुसमा के क्षेत्र भी सम्मिलित थे जो अपने सूर्य मंदिरों और जैन महावीर स्वामी के भव्य मंदिर के लिए पूरे भारतवर्ष में प्रसिद्ध है।
वरमान और कुसमा प्रतिहार क्षत्रियों के निवास स्थान आदि काल से रहें है । कुसमा से ही राजिल के भाई सत्यभट्ट का एक शिल्लालेख प्राप्त हुआ है जो सन् 636-37 का है।

मडाड क्षेत्र से 7 किमी की दुरी पर ही वर्माण सूर्य मंदिर स्तिथ है जिसका निर्माण नाहड़ देव(नागभट्ट द्वितीय) प्रतिहार ने करवाया। यही नहीं इन्होंने सांचोर के प्रसिद्ध महावीर स्वामी जैन मंदिर का भी निर्माण करवाया था।

प्रतिहार सम्राट महिपाल देव 910-30 ईस्वीं के पश्चात विनायक पाल देव के समय जब प्रतिहार सत्ता का कमशः पतन होने लगा तब ऐसा ज्ञात होता है इन मंदिरों पर राजकीय संरक्षण ढीला पद गया तब प्रतिहार सोहाप मडाड ने इस मंदिर के रखरखाव के लिए व पूजा पाठ के लिए दो गांव दान में दिए थे।(Archeological survey of India; सन 1917 पृष्ठ 72)
इसी प्रकार सन 1029 ईस्वीं के शिलालेखों से ज्ञात होता है की परमार राजा पूर्णपाल के समय में प्रतिहार सारम मडाड के पुत्र नौचक ने इस मंदिर का जीर्णोदार सन् 1099 में करवाया था। (श्री गौरी शंकर ओझा ; सिरोही राज्य का इतिहास पृष्ठ 274)

यही नहीं डॉक्टर के सी जैन; Ancient Cities and Towns of Rajasthan पृष्ठ 274 के अनुसार सन् 1299 में चंद्रावती के परमार राजा विक्रम सिंह के समय प्रतिहार राज बिन्नद मडाड की रानी ललिता देवी ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था।
वर्माण के पास ही में 11 वीं शताब्दी के आरंभिक काल में यहाँ के श्रावकों ने मडाड राजपूतों की सहायता से महावीर स्वामी का भव्य मंदिर बनवाया। सन 1294 में पद्मसिंह मडाड ने इसी मंदिर पर दो जैन मूर्तियां भेंट की थी।

ऊपर लिखित सभी सबूतों से यह ज्यात होता है की परमेश्वर परम भट्टारक महाराजाधिराज नाहड़राव (नागभट्ट द्वितीय) के समय प्रतिहार क्षत्रिय मडाड नाम के व्यक्ति ने आबू के पश्चिम संभाग पर अपना अमल जमाया और वहीं अपने नाम की बस्ती बसा कर उसे अपना प्रशानिक केंद्र बनाया। उस समय प्रतिहारों की सत्ता शिखर पर थी। महाप्रतापी नागभट्ट द्वितीय ने धर्मपाल से मुंगेर में युद्ध किया था। इस प्रकार उनके समय में ही प्रतिहारों की राजधानी जालौर अवंती होती हुई कन्नौज स्थापित हुई जो उस समय भारत की एक प्रमुख राजधानी के रूप में विख्यात थी। सम्राट मिहिर भोज के शाशन के दौरान प्रतिहारों का सम्राज्य चारों और दूर दूर तक फैला जो एक प्रकार का महासाम्राज्य ही था।

सन 1037-38 ईस्वीं के आसपास कनौज के प्रतिहार सत्ता का पतन होते ही सम्पूर्ण सम्राज्य छिन्न भिन्न होकर इनके सामन्तों के बीच बिखर गया। यह सत्य है के प्रतिहारों की सत्ता पर मर्मान्तक चोट महमूद गजनवी ने ही 1018 ईस्वी में की थी; परन्तु इनकी सत्ता का विनाश का वास्तविक कारण प्रतिहारों के सामंतों को स्वेच्छा चारिता के साथ उनका महत्वकांशी होना भी था।
10 वीं शताब्दी में ही जेजाक भुक्ति के चांदेल यशोवर्मन के नेतृत्व में स्वतन्त्र हो चुके थे, शाकुम्भरी के चौहान स्वतन्त्र होने की राह पर थे, गुहिलो ने प्रतिहारों से पिंड छुड़ा लिया था और चालुक्य तो सन 941 ईस्वी से ही स्वतंत्रता का आनंद ले रहे थे। राष्ट्रकूट और परमार नई ताकत बन कर उभर रहे थे ।

धीरे धीरे जिन कुलों पर कभी प्रतिहार शाशन किया करते थे वक्त के फेर ने उन्हें उनका सामन्त बना के छोड़ दिया।मडाड का राज्य हमेशा अर्बुद मंडल के अंतर्गत रहता आया था और परमारों के बंदरबांट में भी यह आबू और चन्द्रावती के अंतर्गत शाशित होता रहा। परमार जो कभी मडाडो के पूर्वजों के सामंत रहे थे उन्हीं परमारों के शाशन के अंतर्गत मडाड प्रतिहार जागीरदार हो गए।

परमार राजा पूर्णपाल जिनका उल्लेख पहले भी किया गया है के समय का एक शिलालेख गोडवाड़ जिला पाली के भांडूड की एक बावड़ी से प्राप्त हुआ है जो सन 1046 का है। इस शिलालेख को स्थापित करने वाला व्यक्ति रघुवंशी था ऐसा लिखा हुआ है। निःसंदेह यह पुरुष प्रतिहार वंशी ही रहा होगा। रघुवंशी पदवी धारण करने का दावा करने वाला गुर्जरत्रा और आज के राजस्थान में सिर्फ यही मात्र क्षत्रिय राजवंश है जिसके अनेकों प्रमाण पुष्ट किये जा चुकें हैं। इन लेखों के अनुसार ऐसा ज्ञात होता है के पूर्णपाल परमार के समय मडाड राज्य काफी प्रभावशाली हो चूका था। भांडूड के अभिलेखों से यह ज्ञात होता है गोडवाड़ के इस क्षेत्र जिसमें नाना से मोरिबेड़ा, विजयपुर, सेवाड़ी, लुणावा, कोट , मुंडरा, मडाड (आज का माडा जो सादड़ी से 2 किमी उत्तर) तक के भूभाग पर प्रतिहार वंश के मडाड बसे हुए थे।

==== मडाडों का गोडवाड़ से हरियाणा की ओर पलायन का सफर ====

जिस समय का इतिहास यहां बताया गया उस समय अर्बुद मंडल और गोडवाड़ का सारा क्षेत्र युद्ध का अखाड़ा बना हुआ था। उस समय सत्ता विस्तार के लिए जो शक्तियां यहां सक्रिय थीं उनमें नाडोल के चौहान, अनहिलपाटन के चालुक्य, अर्बुद मंडल के परमार, हस्तिकुण्ड के राष्ट्रकूट और नागदा और आहड़ के गोहिल थे। उस समय प्रतिहार अपने अस्तित्व के लिए झुझ रहे थे और यह क्षेत्र रण क्षेत्र में तबदील हो चूका था।

अतः चारों और से विपत्तियों से झूझते हुए मडाड प्रतिहारों को अर्बुद मंडल छोड़ कर बसंतगढ़ होते हुए अरावली का पश्चिम किनारा पकड़ कर उत्तर की ओर प्रयाण किया और विंध्य पर्वत की तलहटी पहुंचे। और वहीं डेरा डाला । क्योंकि इसके पूर्व इनके ही पूर्वज 25-30 वर्ष पहले यहाँ बस चुके थे। वहाँ पहुचने पर पहले ही बसे हुए चंदेलों से विवाद प्रारम्भ कर दिया और खुनी संघर्ष जारी कर उन्हें प्रारस्त कर के उस भूमि पर अपना अधिकार कर लिया। आज भी माडा गांव के पास चंदेलों का तलाब इस घटना की मूक साक्षी दे रहा है। इस तालाब के पास ही मडाडों ने शिव मंदिर बनवाया। समय में फेर से इन्हें यहाँ से भी विस्थापित होना पड़ा, आज इस गांव में राजपुरोहितों की बस्ती है।

सादड़ी से फालना जाने वाले मार्ग पर सादड़ी से लगभग 7 किमी पश्चिम में मुण्डाड नामक एक प्राचीन गांव भी इन्हीं मडाडों ने बसाया जिसका उल्लेख कीर्तिपाल के ताम्रशाशन पत्राभिलेख में आया हुआ है।( एपिग्राफिक इंडिका भाग 9 पृष्ठ 148)

इससे पहले दसवीं शताब्दी में जब गुजरात की सेनाओं ने माउन्ट आबू के पश्चिमी सम्भाग को लूट कर प्रत्येक गांव को उजाड़ दिया उसी समय मडाडों के साथ लुनावत शाखा के प्रतिहारों ने भी गोडवाड़ आकर आप्रवासन किया। जहाँ मडाडों ने अपने पूर्वज के नाम मडाड गाँव बसाया और इससे थोड़ी ही दूर रणकपुर के उत्तर पश्चिम में लूणा के वंशजों ने लुणावा नामक गाँव आबाद किया।
सन 1196 में इस इलाके में कुतुबुद्दीन और राजपूतों की सेना के बीच भयंकर युद्ध हुआ जिसमे राजपूत परास्त हुये। इस युद्ध में नाडोल के चौहानों की शक्ति पूरी तरह भंग हो गई और मडाडों और लुनावतों को अपना निवास छोड़ना पड़ा।

विस्थापित हुए मडाड मेड़ता होते हुए मंडोर के आस पास दुबारा बसने लगे परंतु अल्तमश ने 1226 में मंडोर पर हमला कर पूरे मारवाड़ को ध्वस्त कर दिया।

मडाडों पर विपत्ति के ऊपर विपत्ति आ रहीं थी परंतु उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी और अल्तमश द्वारा पराजित होने के बावजूद भी इन्होंने कोई समझौता नहीं किया और मारवाड़ छोड़ उत्तर की ओर पलायन किया।
मडाड आज के शेखावाटी और भटनेर होते हुये उत्तर मध्य हरयाणा और दक्षिण पंजाब के मालवा के इलाके में आ बसे।

प्रतिहारो की मडाड शाखा बहूत ही हठी जिद्दी दृढ़ प्रतिज्ञ जाती रही है। इस प्रकार अलप समय में ही विस्थापन की सारी पीड़ा भूलकर ये जाति सल्तनत काल में एक अभिनव इतिहास रचने के लिए उठ खड़ी हुईं और पूरी तरह संगठित होकर दिल्ली के सुल्तानों के फरमानों का बहिष्कार विद्रोह और तुर्कों की धन सम्पति लूटने का प्रयास आरम्भ कर दिया।

इस क्षेत्र में मडाड ,चौहान, वराह, भाटी, और मिन्हास,पुण्डीर आदि प्राचीन क्षत्रिय जातियों ने अपनी सुरक्षा के लिये दिल्ली सल्तनत के खिलाफ एक संघ या मंडल का संगठन बना लिया और इस शक्ति से वे बार बार सुल्तान को चुनौती देने लगे।

इस पश्चात मडाडों का राज्य राजा साढ देव मडाड के शाशन में आज के दक्षिण पानीपत जिले से लेकर उत्तर में कैथल जिले पूर्व में यमुना खादर नरदक से लेकर पश्चिम में भिवानी की सीमाओं तक फैला। मुडाडो के प्रशानिक केंद्र जींद कलायत राजौंद और घरौंडा बने और इन्हें नरदक धरा के राजवी कहा जाने लगा:

" कैथल चैंदेनों जीतियो, रोपी ढिंग ढिंग राड़।
नरदक धरा का राजवी, मानवे मोड़ मडाड।।"
भाटों की बहियों और इलाके में प्रचलित मान्यता के अनुसार मडाड राजा जन जी कामा पहाड़ी (बांदीकुई और बयाना के बीच)राजस्थान से अपने परिवार सहित थानेसर में तीर्थ करने के लिए आये लौटते समय उनकी रानी को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम जिंद्र रखा गया। राजा जन ने यहीं बस कर राज्य करने का संकल्प लिया और जोहिया (यौधेय) राजपूतो से यह इलाका जीत लिया.आगे चल कर जिंद्र ने यहां जींद नामक नगर बसाया और वहाँ से अपना शाशन किया।

इन्होने चंदेल और परमार राजपूतों को
इस इलाके से हराकर निकाल दिया और घग्गर नदी से यमुना नदी तक राज्य स्थापित किया। चंदेल उत्तर में
शिवालिक पहाड़ियों की तराई में जा बसे।यहां इन्होने नालागढ़ (पंजाब) और रामगढ़ पंचकुला ,हरयाणा) राज्य
बसाये ).वराह परमार राजपूत सालवन क्षेत्र छोडकर घग्घर नदी के पार पटियाला जा बसे। जींद ब्राह्मणों को दान
देने के बाद मंढाडो ने कैथल के पास कलायत में राजधानी बसाई व घरौंदा ,सफीदों ,राजौंद और असंध में ठिकाने
बनाये।मंडाड राजपूतो का कई बार पुंडीर राज्य से संघर्ष हुआ पर उन्हें सफलता नहीं मिली.,किन्तु बाद में
नीमराना के राणा हर राय देव चौहान और पुण्डीर राजपूतों के बीच हुए संघर्ष में इन्होने चौहानों का साथ देकर
पुण्डीर राजपूतों को भी यहाँ से निकाल दिया,जो यमुना पार कर आज के सहारनपुर हरिद्वार इलाके में चले गये.
संभवत इस इलाके में उस समय सम्राट हर्षवर्धन बैस के वंश के बैस राजपूत भी थानेश्वर के आसपास रहते थे उन्हें भी मड़ाड राजपूतों ने वहां से विस्थापित किया और बैस राजपूत पंजाब और कश्मीर की और चले गये,बाकि बैस पहले ही सम्राट हर्षवर्धन के साथ कन्नौज और अवध के इलाके में चले गये थे ..

किन्तु यहाँ प्रश्न पैदा होता है कि जब गोडवाड क्षेत्र में मड़ाड प्रतिहारों के साक्ष्य इन्हें 12 वी सदी तक वहां स्थापित करते हैं तो ये दसवी सदी में पुण्डीरो के विरुद्ध राणा हर राय चौहान का साथ देने हरियाणा क्षेत्र में कैसे उपस्थित थे???

इसके अलावा कई साक्ष्य और जनश्रुतियां बताते हैं कि मड़ाड राजपूतों द्वारा जीन्द की स्थापना विक्रम संवत 891 में की गयी थी तथा ११३१ ईस्वी में इनके द्वारा सालवन क्षेत्र से वराह परमारों को हराकर राज्य स्थापित किया था,जबकि ये उसके बाद भी गोडवाड इलाके में थे.........

इससे प्रतीत होता है कि इन मड़ाड प्रतिहारों की एक शाखा पहले ही गोडवाड क्षेत्र से कामा पहाड़ी(बांदीकुई और बयाना के बीच) में आ चुकी थी
और इन्ही में से राजा जन 9 वी सदी के आसपास कुरुक्षेत्र/जीन्द इलाके में आए थे,,
12 वी सदी के बाद में समस्त मड़ाड राजपूत राजपूताना छोडकर हरियाणा में अपने भाई बांधवों के साथ स्थापित हो गए....

श्री ईश्वर सिंह मड़ाड कृत राजपूत वंशावली के अनुसार---

राजा जन ने जोहिया राजपूतो को जीन्द इलाके से हटाकर कब्जा कर लिया,उनके पुत्र जिन्द्र ने यहाँ विक्रम संवत 891 में जीन्द की स्थापना की,जिन्द्रा के भाई लाखा ने लाखौरी नगर बसाया जिसे बाद में आक्रमणकारियों ने नष्ट कर दिया.जिन्द्रा का पुत्र बाफरा,बाफरा का पुत्र सलान और सलान का सिंधारा हुआ,सिन्धारे के पुत्र साढ्देव ने जीन्द को ब्राह्मणों को दान दे दिया और कोलायत को नई राजधानी बनाया,इसके बाद मड़ाडो ने चंदेलो से 7 दुर्ग जीतकर घघ्हर से यमुना नदी तक 360 गाँवो पर अपना अधिकार कर लिया,

महाराजा साढ़देव के 3 पुत्र थे जिनमे राज बंट गया ,मामराज को घरौंडा,कालू को कलायत,और कल्लू को शिलोखेडी मुख्यालय मिला,
कालू के पुत्र गुरखा ने असंध सालवन सफीदों से वराह परमार राजपूतों को निकाल दिया वराह राजपूत अब पंजाब के पटियाला और लुधियाना में मिलते हैं,,

फिरोजशाह तुगलक ने प्रबल आक्रमण कर इस रियासत का अंत कर दिया..............

मुंढाड राजपूतो ने सल्तनत काल में तैमूर का डटकर सामना किया,बाबर के समय मोहन सिंह मुंढाड ने इसी
परम्परा को आगे बढ़ाया.समय समय पर ये महाराणा मेवाड़ की और से भी मुगलो के खिलाफ लड़े।
जोधपुर के बालक राजा अजीत सिंह राठौर को ओरंगजेब से बचाकर ले जाने में इन्होने दुर्गादास राठौर का सहयोग किया।अंग्रेजो के खिलाफ भी इन्होंने जमकर लोहा लिया।
तभी इनके बारे में कहा जाता है,,
"मुगल हो या गोरे,लड़े मुंढाडो के छोरे"।

धर्म परिवर्तन ने इस वंश को बहुत सीमित कर दिया।हरियाणा में अधिकांश राजपूतो द्वारा इस्लाम धर्म ग्रहण
कर लिया और विभाजन के बाद मुस्लिम राजपूत रांघड पाकिस्तान चले गए।जिससे हरियाणा में राजपूतो की
संख्या बेहद कम हो गयी और जो हरियाणा राजपूतो का गढ़ था वो आज जाटलैंड बन गया है।
अब मुंढाड राजपूत वंश हरियाणा के 80 गांव में बसता है।

अन्य जातियों में मुंढाड वंश-----

कुछ मुंढाड राजपूतो द्वारा दूसरी जातियों की स्त्रियों से विवाह के कारण उनकी सन्तान वर्णसनकर होकर दूसरी
जातियों में मिल गए।धुल मंधान जाट इन्ही मुंढाड/मड़ाड प्रतिहार राजपूतो के वंशज हैं इसी प्रकार गूजर और
अहिरो में भी मडाड वंश मिलता है।

इस वंश के अगली पोस्ट में हम मडाड राजपूतों के दिल्ली सल्तनत और मुग़लों से चलने वाले संघर्षों के बारे में जानकारी देंगे। कैसे इस वीर वंश के लोगों ने सुल्तानों मुग़लों से लेकर अपनी भूमि की रक्षा के लिए लगतार संघर्ष किया। बार बार सब कुछ लुटवा कर भी कभी खो नहीं मानी और किसी भी तरह का समझौता नहीं किया।

इनकी इसी दृढ़ता और वीरता के जज्बे के किया यहाँ एक कहावत कहि जाती है
" चाहे मलेछ हो या गोरे खूब लड़े मडाडों के छोरे।।"
सन्दर्भ---
1-श्री देवी सिंह मुंडावा कृत राजपूत शाखाओ का इतिहास पृष्ठ संख्या 121-185
2-श्री रघुनाथ सिंह कालीपहाड़ी कृत क्षत्रिय राजवंशो का इतिहास पृष्ठ संख्या 225-237,378-380
3-श्री ईश्वर सिंह मड़ाड कृत राजपूत वंशावली पृष्ठ संख्या 83-96
4-(Archeological survey of India; सन 1917 पृष्ठ 72)
5-(श्री गौरी शंकर ओझा ; सिरोही राज्य का इतिहास पृष्ठ 274)
6-डॉक्टर के सी जैन; Ancient Cities and Towns of Rajasthan पृष्ठ 274
7-श्री त्रिलोक सिंह धाकरे कृत राजपूतो की वंशावली एवं इतिहास महागाथा पृष्ठ संख्या 57-95
8-डॉक्टर रमेश चन्द गुनार्थी कृत राजस्थानी जातियों की खोज पृष्ठ संख्या 80
9-करनाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर पैरा 144 पृष्ठ संख्या 114
10-श्री विन्ध्यराज चौहान कृत "प्रतिहार" भारत के प्रहरी

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