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मित्रों आज कि यह पोस्ट उस महा झूंड का खंडन करेगी जिसे आजकल गुज्जर जाति के लोगों द्वारा सोशल मीडिया, फेसबुक, गूगल, विकिपीडिया पर पूरे जोरो से दिखाया जा रहा है जी हां हम बात कर रहे हैं प्रतिहार वंश के महान योद्धा शासक सम्राट मिहिर भोज जी की जिनको ये लोग गुज्जर विदेशी घोषित करने मे लगे हैं और अपने को क्षत्रिय साबित कर रहे है। हालांकि पूरा समाज इनके फैलाये जा रहे झूठ से वाकिफ हैं कि मिहिर भोज प्रतिहार वंश के सम्राट थे। हालांकि मिहिर भोज जी की मूर्ति स्थापित करना और स्कूल कालेज एवं नेशनल हाईवे का नामकरण करना यह अच्छा है पर इतिहास को तोड़ मरोड़ कर इन्हें गुज्जर सम्राट बताना बहुत ही गलत है। मै पूछना चाहता हूं इन विदेशी गुज्जरो से कि क्या कोई प्रमाण है। मिहिर भोज गुज्जर थे। मेरे पास हजार एविडेंस है कि मिहिर भोज जी प्रतिहार राजपूत वंश के महान शासक थे
चीनी यात्री हुएन्त त्सांग ने अपनी भारत यात्रा के दौरान अपनी पुस्तक पर पहले ही बता चुके हैं कि गुर्जरात्रा राज्य की राजधानी पीलोमोलो यानी भीनमाल है। और यह शब्द केवल स्थान सूचक है और यहां कई राजवंश है जो शासन कर रहे थे। जिनमें राष्ट्रकूट, चालुक्य, चावड़ा आदि वंश थे और यह कोई गुज्जर खजर विदेशी नहीं शुद्ध क्षत्रिय वंश के थे। गुज्जर एक पिछडी जाति और विदेशी है जिसका दूर दूर तक प्रतिहार वंश से न कोई संबंध था और न है। और यही सत्य है। क्योंकि पैसे आते ही आजकल जिसे देखो वही क्षत्रिय बनना चाहता है। पर कुछ चीजें खून में होती है। सिंह लिखने और अपने को क्षत्रिय बताने से कोई राजपूत नहीं बनता।।
उक्त ताम्रपत्र के अनुसार 'गुजरेश्वर' एद का अर्थ 'गुर्जर देश गुजरात का राजा' स्पष्ट है,जिसे खिंच तानकर गुर्जर जाती या वंश का राजा मानना सर्वथा असंगत है। संस्कृत साहित्य में कई ऐसे उदाहरण मिलते है।
ये लेख गुजरेश्वर,गुर्जरात्र,गुज्ज ुर
इन संज्ञाओ का सही मायने में अर्थ कर इसे जाती सूचक नहीं स्थान सूचक सिद्ध
करता है जिससे भगवान्लाल इन्द्रजी,देवदत्त रामकृष्ण भंडारकर,जैक्सन तथा
अन्य सभी विद्वानों के मतों को खारिज करता है जो इस सज्ञा के उपयोग से
प्रतिहारो को गुर्जर मानते है।
मित्रों प्रतिहारों के साथ गुर्जर शब्द का प्रयोग जब किया जब गुर्जरात्रा देश के प्रतिहारों की ही शाखा कन्नौज, ग्वालियर, उज्जैन गये।
क्योंकि इतने विशाल और विस्तृत साम्राज्य का प्रबंध अकेले सुदूर कन्नौज से कठिन हो रहा था। अस्तु मिहिर भोज ने साम्राज्य को चार भागो में बांटकर चार उप राजधानियां बनाई। कन्नौज- मुख्य राजधानी, उज्जैन और मंडौर को उप राजधानियां तथा ग्वालियर को सह राजधानी बनाया।
सम्राट मिहिर भोज प्रतिहार का चांदी का सिक्का जो की मुद्रा थी उसको सम्राट मिहिर भोज ने 836 ईस्वीं में कन्नौज को देश की राजधानी बनाने पर चलाया था। सम्राट मिहिर भोज महान के सिक्के पर वाराह भगवान का चित्र बना है जिन्हें कि भगवान विष्णू के अवतार के तौर पर जाना जाता है। वाराह भगवान ने हिरण्याक्ष राक्षस को मारकर पृथ्वी को पाताल से निकालकर उसकी रक्षा की थी।सम्राट मिहिर भोज का नाम आदिवाराह भी है। ऐसा होने के पीछे दो कारण हैं पहला जिस प्रकार वाराह भगवान ने पृथ्वी की रक्षा की थी और हिरण्याक्ष का वध किया था ठीक उसी प्रकार सम्राट भोज ने मलेच्छों(मुगलो,अरबों)को मारकर अपनी मातृभूमि की रक्षा की। दूसरा कारण सम्राट का जन्म वाराह जयंती को हुआ था जो कि भादों महीने की शुक्ल पक्ष के द्वितीय दोज को होती है। सनातन धर्म के अनुसार इस दिन चंद्रमा का दर्शन करना बहुत शुभ फलदायक माना जाता है। इस दिन के 2 दिन बाद
महाराष्ट्र में गणेश चतुर्थी का उत्सव प्रारंभ
हो जाता है। जिन स्थानों पर प्रतिहारों, परिहारों, पडिहारों, पढ़ियारो, इंदा, राघव, मडाडों, एवं अन्य शाखाओं को सम्राट भोज के जन्मदिवस का पता है वे इस वाराह जयंती को बड़े धूमधाम से मनाते हैं। आप सब ने कई बार जानकारी चाही थी कि प्रतिहारों/ परिहारों मे वाराह यानी जंगली शूकर का मांस खाना क्यों प्रतिबंधित है। मै बताना चाहूँगा कि भगवान विष्णु जी के वाराहवतार लेने की वजह से शूकर का मांस खाना प्रतिबंधित है। जिन भाईयों को इसकी जानकारी नहीं है आप उन लोगों के इसकी जानकारी दें और सम्राट मिहिर भोज का जन्मदिन बड़े धूमधाम से मनाने की प्रथा चालू करें। नहीं तो आने वाले समय गुज्जर जाट कुर्मी काछी बगरी ये सभी क्षत्रिय होने का दावा कर हमारे पूर्वजों को भी हमसे छीन लेगी और हम एक दूसरे का मुंह देखते रह जायेगे क्योंकि हमने अपने हक के लिए लडना ही छोड दिया है। जिससे आज अन्य शूद्र पिछडी जाति के लोग हमारे सामने आ रहे हैं।
जय माँ भवानी । ।
जय क्षात्र धर्म।।
नागौद रियासत । ।
मित्रों आज कि यह पोस्ट उस महा झूंड का खंडन करेगी जिसे आजकल गुज्जर जाति के लोगों द्वारा सोशल मीडिया, फेसबुक, गूगल, विकिपीडिया पर पूरे जोरो से दिखाया जा रहा है जी हां हम बात कर रहे हैं प्रतिहार वंश के महान योद्धा शासक सम्राट मिहिर भोज जी की जिनको ये लोग गुज्जर विदेशी घोषित करने मे लगे हैं और अपने को क्षत्रिय साबित कर रहे है। हालांकि पूरा समाज इनके फैलाये जा रहे झूठ से वाकिफ हैं कि मिहिर भोज प्रतिहार वंश के सम्राट थे। हालांकि मिहिर भोज जी की मूर्ति स्थापित करना और स्कूल कालेज एवं नेशनल हाईवे का नामकरण करना यह अच्छा है पर इतिहास को तोड़ मरोड़ कर इन्हें गुज्जर सम्राट बताना बहुत ही गलत है। मै पूछना चाहता हूं इन विदेशी गुज्जरो से कि क्या कोई प्रमाण है। मिहिर भोज गुज्जर थे। मेरे पास हजार एविडेंस है कि मिहिर भोज जी प्रतिहार राजपूत वंश के महान शासक थे
चीनी यात्री हुएन्त त्सांग ने अपनी भारत यात्रा के दौरान अपनी पुस्तक पर पहले ही बता चुके हैं कि गुर्जरात्रा राज्य की राजधानी पीलोमोलो यानी भीनमाल है। और यह शब्द केवल स्थान सूचक है और यहां कई राजवंश है जो शासन कर रहे थे। जिनमें राष्ट्रकूट, चालुक्य, चावड़ा आदि वंश थे और यह कोई गुज्जर खजर विदेशी नहीं शुद्ध क्षत्रिय वंश के थे। गुज्जर एक पिछडी जाति और विदेशी है जिसका दूर दूर तक प्रतिहार वंश से न कोई संबंध था और न है। और यही सत्य है। क्योंकि पैसे आते ही आजकल जिसे देखो वही क्षत्रिय बनना चाहता है। पर कुछ चीजें खून में होती है। सिंह लिखने और अपने को क्षत्रिय बताने से कोई राजपूत नहीं बनता।।
उक्त ताम्रपत्र के अनुसार 'गुजरेश्वर' एद का अर्थ 'गुर्जर देश गुजरात का राजा' स्पष्ट है,जिसे खिंच तानकर गुर्जर जाती या वंश का राजा मानना सर्वथा असंगत है। संस्कृत साहित्य में कई ऐसे उदाहरण मिलते है।
ये लेख गुजरेश्वर,गुर्जरात्र,गुज्ज
मित्रों प्रतिहारों के साथ गुर्जर शब्द का प्रयोग जब किया जब गुर्जरात्रा देश के प्रतिहारों की ही शाखा कन्नौज, ग्वालियर, उज्जैन गये।
क्योंकि इतने विशाल और विस्तृत साम्राज्य का प्रबंध अकेले सुदूर कन्नौज से कठिन हो रहा था। अस्तु मिहिर भोज ने साम्राज्य को चार भागो में बांटकर चार उप राजधानियां बनाई। कन्नौज- मुख्य राजधानी, उज्जैन और मंडौर को उप राजधानियां तथा ग्वालियर को सह राजधानी बनाया।
सम्राट मिहिर भोज प्रतिहार का चांदी का सिक्का जो की मुद्रा थी उसको सम्राट मिहिर भोज ने 836 ईस्वीं में कन्नौज को देश की राजधानी बनाने पर चलाया था। सम्राट मिहिर भोज महान के सिक्के पर वाराह भगवान का चित्र बना है जिन्हें कि भगवान विष्णू के अवतार के तौर पर जाना जाता है। वाराह भगवान ने हिरण्याक्ष राक्षस को मारकर पृथ्वी को पाताल से निकालकर उसकी रक्षा की थी।सम्राट मिहिर भोज का नाम आदिवाराह भी है। ऐसा होने के पीछे दो कारण हैं पहला जिस प्रकार वाराह भगवान ने पृथ्वी की रक्षा की थी और हिरण्याक्ष का वध किया था ठीक उसी प्रकार सम्राट भोज ने मलेच्छों(मुगलो,अरबों)को मारकर अपनी मातृभूमि की रक्षा की। दूसरा कारण सम्राट का जन्म वाराह जयंती को हुआ था जो कि भादों महीने की शुक्ल पक्ष के द्वितीय दोज को होती है। सनातन धर्म के अनुसार इस दिन चंद्रमा का दर्शन करना बहुत शुभ फलदायक माना जाता है। इस दिन के 2 दिन बाद
महाराष्ट्र में गणेश चतुर्थी का उत्सव प्रारंभ
हो जाता है। जिन स्थानों पर प्रतिहारों, परिहारों, पडिहारों, पढ़ियारो, इंदा, राघव, मडाडों, एवं अन्य शाखाओं को सम्राट भोज के जन्मदिवस का पता है वे इस वाराह जयंती को बड़े धूमधाम से मनाते हैं। आप सब ने कई बार जानकारी चाही थी कि प्रतिहारों/ परिहारों मे वाराह यानी जंगली शूकर का मांस खाना क्यों प्रतिबंधित है। मै बताना चाहूँगा कि भगवान विष्णु जी के वाराहवतार लेने की वजह से शूकर का मांस खाना प्रतिबंधित है। जिन भाईयों को इसकी जानकारी नहीं है आप उन लोगों के इसकी जानकारी दें और सम्राट मिहिर भोज का जन्मदिन बड़े धूमधाम से मनाने की प्रथा चालू करें। नहीं तो आने वाले समय गुज्जर जाट कुर्मी काछी बगरी ये सभी क्षत्रिय होने का दावा कर हमारे पूर्वजों को भी हमसे छीन लेगी और हम एक दूसरे का मुंह देखते रह जायेगे क्योंकि हमने अपने हक के लिए लडना ही छोड दिया है। जिससे आज अन्य शूद्र पिछडी जाति के लोग हमारे सामने आ रहे हैं।
जय माँ भवानी । ।
जय क्षात्र धर्म।।
नागौद रियासत । ।
गुर्जर प्रतिहार फोर फादर ऑफ़ राजपूत
ReplyDeleteगुर्जर प्रतिहार राजपूत कबीले के पूर्व पिता हैं
Gurajr Pratiharas are the fore father of rajput clan
इतिहासकार सर जर्वाइज़ एथेलस्टेन बैनेस ने गुर्जर को सिसोदियास, चौहान, परमार, परीर, चालुक्य और राजपूत के पूर्वज थे।
विन्सेंट स्मिथ का मानना था कि गुर्जर वंश, जिसने 6 वीं से 11 वीं शताब्दी तक उत्तरी भारत में एक बड़े साम्राज्य पर शासन किया था, और शिलालेख में "गुर्जर-प्रतिहार" के रूप में उल्लेख किया गया है, निश्चित रूप से गुर्जरा मूल का था।
स्मिथ ने यह भी कहा कि अन्य उत्पनीला क्षत्रिय कुलों की उत्पत्ति होने की संभावना है।
डॉ के। जमानदास यह भी कहते हैं कि प्रतिहार वंश गुर्जरों से निकला है, और यह "एक मजबूत धारणा उठाता है कि अन्य राजपूत समूह भी गुर्जरा या संबद्ध विदेशी आप्रवासियों के वंशज हैं।
डॉ० आर० भण्डारकर प्रतिहारों की गुर्जरों से उत्पत्ति मानते हुए अन्य अग्निवंशीय राजपूतों को भी विदेशी उत्पत्ति का कहते हैं।
नीलकण्ठ शास्री विदेशियों के अग्नि द्वारा पवित्रीकरण के सिद्धान्त में विश्वास करते हैं क्योंकि पृथ्वीराज रासो से पूर्व भी इसका प्रमाण तमिल काव्य 'पुरनानूर' में मिलता है। बागची गुर्जरों को मध्य एशिया की जाति वुसुन अथवा 'गुसुर 'मानते हैं क्योंकि तीसरी शताब्दी के अबोटाबाद - लेख में 'गुशुर 'जाति का उल्लेख है।
जैकेसन ने सर्वप्रथम गुर्जरों से अग्निवंशी राजपूतों की उत्पत्ति बतलाई है। पंजाब तथा खानदेश के गुर्जरों के उपनाम पँवार तथा चौहान पाये जाते हैं। यदि प्रतिहार व सोलंकी स्वयं गुर्जर न भी हों तो वे उस विदेशी दल में भारत आये जिसका नेतृत्व गुर्जर कर रहे थे।
Gurajr Pratiharas are the fore father of rajput clan
shilalekha se bada koi proof nh 💪
नीलकुण्ड, राधनपुर, देवली तथा करडाह शिलालेख में प्रतिहारों को गुर्जर कहा गया है।
राजौर शिलालेख में प्रतिहारों को गुर्जर कहा गया है।। बादामी के चालुक्य नरेश पुलकेशियन द्वितीय के एहोल अभिलेख में गुर्जर जाति का उल्लेख आभिलेखिक रूप से सर्वप्रथम रूप से हुआ है।
गुर्जर जाति का एक शिलालेख राजोरगढ़ (अलवर जिला) में प्राप्त हुआ है
)। मार्कंदई पुराण और पंचतंत्र में, गुर्जर जनजाति का एक संदर्भ है।
समकालीन अरब यात्री सुलेमान ने गुर्जर सम्राट मिहिरभोज को भारत में इस्लाम का सबसे बड़ा दुश्मन करार दिया था, क्योंकिभोज राजाओं ने 10वीं सदी तक इस्लाम को भारत में घुसने नहीं दिया था। मिहिरभोज के पौत्र महिपाल को आर्यवृत्त का महान सम्राट कहा जाता था। गुर्जर संभवतः हूणों और कुषाणों की नई पहचान थी।अतः हूणों और उनके वंशज गुर्जरों ने हिन्दू धर्म और संस्कृति के संरक्षण एवं विकास में अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, इस कारण से इनके सम्राट मिहिरकुलहूण औरमिहिरभोज गुर्जर को समकालीन हिन्दू समाज द्वारा अवतारी पुरुष के रूप में देखा जाना आश्चर्य नहीं होगा। निश्चित ही इन सम्राटों ने हिन्दू समाज को बाहरी और भीतरी आक्रमण से निजाद दिलाई थी इसलिए इनकी महानता के गुणगान करना स्वाभाविक ही था। लेकिन मध्यकाल में भारत के उन महान राजाओं के इतिहास को मिटाने का भरपूर प्रयास किया गया जिन्होंने यहां के धर्म और संस्कृति की रक्षा की। सचमुच सम्राट मिहिरकुल सम्राट अशोक से भी महान थे।
मेहरौली, जिसे पहले मिहिरावाली के नाम से जाना जाता था, का मतलब मिहिर का घर, गुर्जर-प्रतिहार वंश के राजा मिहिर भोज द्वारा स्थापित किया गया था।
मेहरौली उन सात प्राचीन शहरों में से एक है जो दिल्ली की वर्तमान स्थिति बनाते हैं। लाल कोट किला का निर्माण गुर्जर तनवार प्रमुख अंंगपाल प्रथम द्वारा 731 के आसपास किया गया था और 11 वीं शताब्दी में अनांगपाल द्वितीय द्वारा विस्तारित किया गया था, जिसने अपनी राजधानी को कन्नौज से लाल कोट में स्थानांतरित कर दिया था। गुर्जर तनवार 12 वीं शताब्दी में चौहानों द्वारा पराजित हुए थे। पृथ्वीराज चौहान ने किले का विस्तार किया और इसे किला राय पिथोरा कहा। उन्हें 11 9 2 में मोहम्मद घोरी ने पराजित किया, जिन्होंने अपना सामान्य कुतुब-उद-दीन अयबाक को प्रभारी बना दिया और अफगानिस्तान लौट आया।.................
इतिहासकार डॉ ऑगस्टस होर्नले का मानना है कि तोमर गुर्जरा (या गुज्जर) के शासक वंश में से एक थे।
राम सरप जून लिखते हैं कि ... गुजराती इतिहास के लेखक अब्दुल मलिक मशर्मल लिखते हैं कि गुजर इतिहास के लेखक जनरल सर ए कनिंघम के अनुसार, कानाउज के शासकों गुजर (गुजर पी -213 का इतिहास) 218)। उनका गोत्रा तोमर था और वे हुन चीफ टोरमन के वंशज हैं।
ab rajput tm dikhao shilalekha hona chaiye ko lekh nh googal par koi kuch bhi bna dta bina proof ke koi kuch bhi likh dta hai, par shilalekha se bada koi proof nh hai sirf shilalekha 12 century phele ka ho
ram ram🙏
ha rajput ab khege ki partihar ku lga tha unke sth to uska bhi proof hai koi googal par apni taraf se likha hua nh 9th century phele ka dekh lena or fir mat bolna or apko pta chal ki india ke real king gurjar vansh tha
ReplyDeletelo padho thang se or check kr lna pakka proof hai
वीर गुर्जर - प्रतिहार राजाओ के ऐतिहासिक अभिलैख प्रमाण
**********************************
1. सज्जन ताम्रपत्र (871 ई. ) :---
अमोघ वर्ष शक सम्वत
793 ( 871 ई . ) का
सज्जन ताम्र पञ ) :---- I
इस ताम्रपत्र अभिलेख मे लिखा है। कि राष्ट्र कूट शासक दन्तिदुर्ग ने 754 ई. मे "हिरण्य - गर्भ - महादान " नामक यज्ञ किया तो इस शुभ अवसर पर गुर्जर आदि राजाओ ने यज्ञ की सफलता पूर्वक सचालन हेतु यज्ञ रक्षक ( प्रतिहार ) का कार्य किया । ( अर्थात यज्ञ रक्षक प्रतिहारी का कार्य किया )
( " हिरणय गर्भ राज्यनै रुज्जयन्यां यदसितमा प्रतिहारी कृतं येन गुर्जरेशादि राजकम " )
{ सन्दर्भ :--एपिग्राफिक इडिका -- 18 , पृष्ठ 235 , 243 - 257 }
ye hai wo tamarpatra rashtkut rajao ka jb gurjar rajao ko partihar ke upaadi mili ye just ek upaadi hai ok bhaiy
or bhi record hai wo check kr lo pta chal jayga or us time sare raja gurjar vansh ke the 🙏
2. सिरूर शिलालेख ( :----
यह शिलालेख गोविन्द - III के गुर्जर नागभट्ट - II एवम राजा चन्द्र कै साथ हुए युद्ध के सम्बन्ध मे यह अभिलेख है । जिसमे " गुर्जरान " गुर्जर राजाओ, गुर्जर सेनिको , गुर्जर जाति एवम गुर्जर राज्य सभी का बोध कराता है।
( केरल-मालव-सोराषट्रानस गुर्जरान )
{ सन्दर्भ :- उज्जयिनी का इतिहास एवम पुरातत्व - दीक्षित - पृष्ठ - 181 }
3. बडोदा ताम्रपत्र ( 811 ई.) :---
कर्क राज का बडोदा ताम्रपत्र शक स. 734 ( 811-812 ई ) इस अभिलेख मे गुर्जरैश्वर नागभट्ट - II का उल्लेख है ।
( गोडेन्द्र वगपति निर्जय दुविदग्ध सद गुर्जरैश्वर -दि गर्गलताम च यस्या नीतवा भुजं विहत मालव रक्षणार्थ स्वामी तथान्य राज्यदद फलानी भुडक्तै" )
{ सन्दर्भ :- इडियन एन्टी. भाग -12 पृष्ठ - 156-160 }
4. बगुम्रा-ताम्रपत्र ( 915 ई. )
इन्द्र - तृतीय का बगुम्रा -ताम्र पत्र शक सं. 837 ( 915 ई )
का अभिलेख मे गुर्जर सम्राट महेन्द्र पाल या महिपाल को दहाड़ता गुर्जर ( गर्जदै गुर्जर - गरजने वाला गुर्जर ) कहा गया है ।
( धारासारिणिसेन्द्र चापवलयै यस्येत्थमब्दागमे । गर्जदै - गुर्जर -सगर-व्यतिकरे जीणो जनारांसति।)
{ सन्दर्भ :-
1. बम्बई गजेटियर, भाग -1 पृष्ट - 128, नोट -4
2. उज्जयिनी इतिहास तथा पुरातत्व, दीक्षित - पृष्ठ - 184 -185 }
5. खुजराहो अभिलेख ( 954 ई. ) :----
चन्दैल धगं का वि. स . 1011 ( 954 ई ) का खुजराहो शिलालैख सख्या -2 मे चन्देल राजा को मरु-सज्वरो गुर्जराणाम के विशेषण से सम्बोधित किया है ।
( मरू-सज्वरो गुर्जराणाम )
{ एपिग्राफिक इडिका - 1 पृष्ठ -112- 116 }
6. गोहखा अभिलेख :--
चैदिराजा कर्ण का गोहखा अभिलैख मे गुर्जर राजा को चेदीराजालक्ष्मणराजदैव दवारा पराजित करने का उल्लेख किया गया हे ।
( बगांल भगं निपुण परिभूत पाण्डयो लाटेरा लुण्ठन पटुज्जिर्जत गुज्जॆरेन्द्र ।
काश्मीर वीर मुकुटाचित पादपीठ स्तेषु क्रमाद जनि लक्ष्मणराजदैव )
{ सन्दर्भ :- 1. एपिग्राफिक इडिका - 11 - पृष्ठ - 142
2. कार्पस जिल्द - 4 पृष्ठ -256, श्लोक - 8 }
7. बादाल स्तम्भ लैख:--
नारायण पाल का बादाल सत्म्भ लैख के श्लोक संख्या 13 के अनुसार गुर्जर राजा राम भद्रदैव ( गुर्जर - नाथ) के समय दैवपाल ने गुर्जर- प्रतिहार के कुछ प्रदेश पर अधिकार कर लिया था ।
( उत्कीलितोत्कल कुलम हत हूण गर्व खव्वीकृत द्रविड गुर्जर-नाथ दप्पर्म )
{ सन्दर्भ :--एपिग्राफिक इडिका - 2 पृष्ठ - 160 - श्लोक - 13 }
8. राजोरगढ अभिलेख ( 960 ई. ) :--
गुजॆर राजा मथन दैव का वि. स. ( 960 ई ) का राजोर गढ ( राज्यपुर ) अभिलेख मे महाराज सावट के पुत्र गुर्जर प्रतिहार मथनदैव को गुर्जर वंश शिरोमणी तथा समस्त जोतने योग्य भूमि गुर्जर किसानो के अधीन उल्लेखित है ।
( श्री राज्यपुराव सिथ्तो महाराजाधिराज परमैश्वर श्री मथनदैवो महाराजाधिरात श्री सावट सूनुग्गुज्जॆर प्रतिहारान्वय ...... स्तथैवैतत्प्रतयासन्न श्री गुज्जॆर वाहित समस्त क्षैत्र समेतश्च )
The Gujarat was known as 'Anarchant' (Land in West) during Mahabharat period. Before 6th century this region was known as Surat, Saurashtra and Kathiawad,Later on it was known as 'Gujjar Pradesh' (Land of Gurjar). From the word 'Gurjar Pradesh'GurjaratraThe name Gujarat has come from Gurjarata. The Gujjars' empire was known from 6th to 12th centuries as Gurjarata or Gujjar-land. Gurjar is a community.
ReplyDeleteThe ancient Mahakavi Rajashekhar has related the relation of the Gujjars to Suryavansh or Raghuvansh.Some scholars also tell them the Aryans from Central Asia. Gujarat is known as the land of Gujjars. In this way, Gujratra was distorted-it was converted into Gujarat
राजस्थान
ReplyDeleteराजपूताना या रजवाड़ा भी कहलाता है।
ये प्रारम्भ में गुर्जरो का देश था तथा गुर्जरत्रा (गुर्जरो से रक्षित देश), गुर्जरदेश, गुर्जरधरा आदि नामों से जाना जाता था।गुर्जरों का साम्राज्य यहाँ12वीं सदी तक रहा है।
गुर्जरों के बाद यहा राजपूतों की राजनीतिक सत्ता आयी तथा ब्रिटिशकाल में यह राजपूताना (राजपूतों का देश) नाम से जाने जाना लगा। इस प्रदेश का आधुनिक नाम राजस्थान है, जो उत्तर भारत के पश्चिमी भाग में अरावली की पहाड़ियों के दोनों ओर फैला हुआ है। इसका अधिकांश भाग मरुस्थल है। यहाँ वर्षा अत्यल्प और वह भी विभिन्न क्षेत्रों में असमान रूप से होती है। यह मुख्यत: वर्तमान राजस्थान राज्य की भूतपूर्व रियासतों का समूह है, जो भारत का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।
शिलालेख of Pratihar
ReplyDeleteप्रतिहार क्षत्रिय राजवंश का गुर्जर देश (वर्तमान गुजरात व राजस्थान का भाग) पर राज्य होने के कारण उन्हें इतिहास में गुर्जर नरेश संबोधित किया गया| इसी संबोधन को लेकर कुछ गुर्जर भाइयों को भ्रम हुआ कि प्रतिहार क्षत्रियों की उत्पत्ति गुर्जरों से हुई है और वे इसका जोर-शोर से प्रचार करने में लगे है, जबकि खुद प्रतिहार सम्राटों ने सदियों पहले लिखवाये शिलालेखों ने अपने आपको क्षत्रिय लिखवाया है| इस सम्बन्ध में इतिहास देवीसिंह मंडावा ने अपनी पुस्तक “प्रतिहारों का मूल इतिहास” में उनकी उत्पत्ति से सम्बन्धित लिखा है-
इतिहास से प्राप्त साक्ष्यों के अनुसार प्रतिहारों में मण्डोर (राजस्थान) के प्रतिहारों का पहला राजघराना है जिसका शिलालेखों से वर्णन मिलता है। मण्डोर के प्रतिहारों के कई शिलालेख मिले हैं जिनमें से तीन शिलालेखों में पड़िहारों की उत्पति और वंश क्रम का वर्णन प्राप्त है। उनका वर्णन इस प्रकार है-
वि. सं. 894 चैत्र सुदि 5 ईसवी 837 का शिलालेख जोधपुर शहर पनाह की दीवार पर लगा हुआ है। यह शिलालेख पहले मण्डोर स्थित भगवान विष्णु के किसी मन्दिर में था। यह शिलालेख मण्डोर के शासक बाउक पड़िहार का है।
वि. सं. 918 चैत्र सुदि 2 ईस्वी के दोनों ही घटियाला के शिलालेख हैं एक संस्कृत में लिखित है तथा दूसरा उसी भाषा का अनुवाद है। ये दोनों शिलालेख मण्डोर के पड़िहार के है।1 इन तीनों ही शिलालेखों में रघुकुल तिलक श्री रामचन्द्र के भाई लक्ष्मण से इस प्रतिहारों कुल की उत्पत्ति होना वर्णित किया है। सम्बन्धित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं। बाउक पड़िहार का जोधपुर का अभिलेख
ReplyDeleteस्वभ्रात्त्रा रामभद्रस्य प्रतिहार कृतं यतः, श्री प्रतिहार वड्शो यमतक्ष्चोन्नति माप्नुयात।3,4।
अर्थात्-अपने भाई के रामभद्र ने प्रतिहारी का कार्य किया। इससे यह प्रतिहारों का वंश उन्नति को प्राप्त करें। घटियाला अभिलेख
रहुतिलओपडिहारो आसीसिरि लक्खणोंतिरामस्य, तेण पडिहारवन्सो समुणईएन्थसम्पती।
अर्थात्-रघुकुल तिलक लक्ष्मण श्रीराम का प्रतिहार था। उससे प्रतिहार वंश सम्पति और समुन्नति को प्राप्त हुआ। इसी अभिलेख में दिया हैं कि संवत् 918 चैत्र माह में जब चन्द्रमा हस्त नक्षत्र में था, शुक्ल पक्ष की द्वितीया बुधवार को श्री कक्कुक ने अपनी कीर्ति की वृद्धि करने हेतु रोहिन्सकूप ग्राम में एक बाजार बनवाया जो महाजनों, विप्रों, क्षत्रियों एवं व्यापारियों से भरा रहता था।
भोज प्रतिहार की ग्वालियर प्रशस्ति
प्रतिहारों की उत्पति के विषय में ग्वालियर में मिली हुई कन्नोज के प्रतिहार सम्राट भोज के समय की प्रशस्ति में लिखा है कि –
मन्विक्षा कुक्कुस्थ (त्स्थ) मूल पृथव: क्ष्मापाल कल्पद्रुमाः।2।।
तेषां वंशे सुजन्मा क्रमनिहतपदे धाम्नि वजैषु घोरं,
रामः पौलस्त्य हिन्श्रं (हिस्रं) क्षतविहित समित्कर्म्म चक्रे पलाशेः ।
श्लाघ्यस्तस्यानुजो सौ मधवमदमुषो मेघनादस्य संख्ये,
सौमित्रिस्तीव्रदंडः प्रतिहरण विर्धर्यः प्रतिहार आसीत् ।।3।।
तावून्शे प्रतिहार केतन भृति त्रैलोक्य रक्षा स्पदे
देवो नागभटः पुरातन मुने मूर्तिब्बमूवाभिदुत्तम ।।2
अर्थात् ‘सूर्यवंश में मनु, इक्ष्वाकु, काकुस्थ आदि राजा हुए, उनके वंश में पौलस्त्य (रावण) को मारने वाले राम हुए, जिनका प्रतिहार उनका छोटा भाई सौमित्र (लक्ष्मण) था, उसके वंश में नागभट्ट हुआ। आगे चलकर इसी प्रशस्ति में वत्सराज को इक्ष्वाकु वंश को उन्नत करने वाला कहा है। इसी प्रशस्ति के सातवें श्लोक में वत्सराज के लिये लिखा है कि उस क्षत्रिय पुगंव ने बलपूर्वक भडिकुल का साम्राज्य छीनकर इक्ष्वाकु कुल की उन्नति की।
कवि राजशेखर सम्राट भोज, महेन्द्रपाल और महीपाल के दरबार में कन्नोज में था। वह महेन्द्रपाल का गुरु भी था। उसने विद्धशाल भंजिका नाटक में अपने शिष्य महेन्द्रपाल को रघुकुल तिलक लिखा है। बाल भारत में रघुग्रामणी लिखा और बालभारत नाटक में महेन्द्रपाल के पुत्र महीपाल को रघुवंश मुतामणि लिखा है।3
रघुकुल तिलको महेन्द्रपाल: (विद्धशाल भंजिका, 1/6)
देवा यस्य महेन्द्रपालनृपतिः शिष्यो रघुग्रामणिः (बालभारत, 1/11)
तेन (महीपालदेवेन) च रघुवंश मुक्तामणिना (बालभारत)
चाटसू का बालादित्य गुहिल का वि. सं. 870 ईस्वी 813 का प्राप्त लेख है। इस अभिलेख में गुहिल वंश और उसके शासकों के वर्णनों में सुमन्त्र भट्ट की युद्ध वीरता, पराक्रम, शौर्य आदि के साथ कला प्रेमी होने की तुलना रघुवंशी काकुत्स्थ की समानता से की गई है। (रघुवंशी काकुत्स्थ भीनमाल के नागभट्ट प्रतिहार प्रथम का भतीजा था तथा उसके बाद भीनमाल का शासक हुआ।)
ReplyDeleteचौहानों के शेखावाटी के हर्षनाथ (पहाड़) के मन्दिर की वि. सं. 1030 ईस्वी 973 की विग्रहराज की प्रशस्ति में इसके पिता सिंहराज के वर्णन में लिखा है कि इस विजयी राजा ने सेनापति होने के कारण उद्धत बने हुए तोमर नायक सलवण को तब तक कैद में रखा जब तक कि सलवण को छुड़ाने के लिये पृथ्वी पर का चक्रवर्ती रघुवंशी स्वयं उसके यहाँ नहीं आया। इस रघुवंशी चक्रवर्ती का तात्पर्य कन्नोज के प्रतिहार सम्राट से हैं।
तोमरनायक सलवण सैन्याधिपत्योद्धतं
यद्धे येन नरेश्वराः प्रतिदिशं विन्ने (णार्णा) र्शिता जिष्णुना ।
कारावेश्मनि भूरयश्रुच विधृतास्तावद्धि यावद्गृहे
तन्मुक्तयर्थमुपागतो रघुकुले भू चक्रवर्ती स्वयम्।।4
ओसियां के महावीर मन्दिर का लेख जो कि वि. सं. 1013 ईस्वी 956 का है तथा संस्कृत और देवनागरी लिपि में है उसमें उल्लेख किया गया है कि-
तस्या काषत्किल प्रेम्णालक्ष्मणः प्रतिहारताम्।
ततो अभवत् पतिहार वंशो राम समुवः ।।6।।
तद्वंद्भशे सबशी वशी कृत रिपुः श्री वत्स राजोऽभवत।5
अर्थात् लक्ष्मण ने प्रेमपूर्वक उनके प्रतिहारी का कार्य किया, अनन्तर श्री राम से प्रतिहार वंश की उत्पत्ति हुई। उस प्रतिहार वंश में शत्रुओं को अपने वश में करने वाला श्री वत्सराज हुआ। जिसके द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों आदि की रक्षा की गई।
मंडौर के प्रतिहार क्षत्रिय वंश के, कन्नौज के प्रतिहार सम्राटों के, चाटसू के गहलोतों के, साम्भर के चौहान आदि के लेख प्रतिहारों को रघुवंशी सम्राट रामचन्द्र के लघुभ्राता लक्ष्णम के वंशज होना सिद्ध कर रहे हैं।
सन्दर्भ :
ज. रा. ए. सो, इस्वी-1895 पृष्ठ 517-18
आर्कियालाजिक सर्वे ऑफ़ इंडिया, एन्युअल रिपोर्ट ईस्वी सन 1903 पृष्ठ 280
राजपूताने का इतिहास, प्रथम भाग- पृष्ठ 65, ओझा
एपियाग्राफिका इन्डिका, जिल्द-2, पृष्ठ 121-122
राजस्थान के प्रमुख अभिलेख, सं. सुखवीरसिंह गहलोत पृष्ठ 122
गुर्जरदेश
ReplyDeleteयशोधर्मन विक्रमादित्य" मालवा या उज्जैन के गुर्जर शासक थे। उनकी राजधानी मंदसौर में थी।
वह गुर्जरों के चाप वंश से था। उसने गुप्त राजाओं के सामंत के रूप में मालवा पर शासन किया। इस चैप राजवंश ने बाद में सामंतों के रूप में वल्लभी के मैत्रिकों की सेवा की।
प्रसिद्ध कवि कालीदास उनके दरबार में थे। (और चंद्रगुप्त -2 के दरबार में नहीं।) कुछ विद्वानों का दावा है कि कालिदास का विक्रमादित्य यह यशोधर्मन ही था।
यशोधरमन द्वारा "गुर्जरदेश" नाम की स्थापना 480 ई। में की गई थी (पहले यह गुजरात था), वह अपने उपनाम से चप था जैसा कि वसंतगढ़ में स्तंभ के शिलालेख में लिखा गया था। मंदसौर और नालंदा के पिल्लर शिलालेखों के अनुसार, उन्हें गुर्जरदेश के संस्थापक के रूप में उल्लेख किया गया था। उन्होंने 528 ईस्वी में हुना राजा मिहिरगुल को हराने के बाद नरपति गुर्जर की उपाधि ली।
चीनी यात्री हेन सांग ने भीनमाल का बड़े अच्छे रूप में वर्णन किया है। उसने लिखा है कि “भीनमाल का 20 वर्षीय नवयुवक क्षत्रिय राजा अपने साहस और बुद्धि के लिए प्रसिद्ध है और वह बौद्ध-धर्म का अनुयायी है। यहां के चापवंशी गुर्जर बड़े शक्तिशाली और धनधान्यपूर्ण देश के स्वामी हैं।”
ReplyDeleteहेन सांग (629-645 ई.) के अनुसार सातवी शताब्दी में दक्षिणी गुजरात में भड़ोच राज्य भी विधमान था| भड़ोच राज्य के शासको के कई ताम्र पत्र प्राप्त हुए हैं, जिनसे इनकी वंशावली और इतिहास का पता चलता हैं| इन शासको ने स्वयं को गुर्जर राजाओ के वंश का माना हैं| मंडोर के प्रतिहारो और उनके समकालीन भड़ोच के गुर्जरों की वंशावली के तुलान्तामक अध्ययन से पता चलता हैं कि इन वंशो के नामो में कुछ समानताए हैं| भड़ोच के ‘गुर्जर नृपति वंश’ के संस्थापक का नाम तथा मंडोर के प्रतिहार वंश के संस्थापक हरिचन्द्र के चौथे पुत्र का नाम एक ही हैं- दद्द| कुछ इतिहासकार इन दोनों के एक ही व्यक्ति मानते हैं| दोनों वंशो के शासको के नामो में एक और समानता ‘भट’ प्रत्यय की हैं| भट का अर्थ योद्धा होता हैं| मंडोर के प्रतिहारो में भोग भट, नर भट और नाग भट हैं तो भड़ोच के गुर्जर वंश में जय भट नाम के ही कई शासक हैं| दोनों वंशो के शासको के नामो की समानताओ के आधार पर इतिहासकार भड़ोच के गुर्जर वंश को मंडोर के प्रतिहारो की शाखा मानते हैं| किन्तु इसमें आपत्ति यह हैं कि भड़ोच के गुर्जर अपने अभिलेखों में महाभारत के पात्र ‘भारत प्रसिद्ध कर्ण’ को अपना पूर्वज मानते हैं नाकि मंडोर के प्रतिहारो की तरह रामायण के पात्र लक्ष्मण को|
Dono ne madore or Bhadauch ke Raja agar pratihar the to dono ne apne vansajo ko alag alag btaya to kya dono pratihar hote hue alag alag vansh ke the
To bewkoof pratihar ek tital tha
ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्म खण्ड में एक श्लोक है -
ReplyDeleteक्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह”
अर्थात् क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में जो पुत्र पैदा होवे उसे राजपूत कहते हैं।
वैश्य पुरुष और शूद्र कन्या से उत्पन्न हुए को करण कहते हैं और ऐसी करण कन्या से क्षत्रिय के सम्बन्ध से राजपुत्र (राजपूत) पैदा हुआ।
सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ व संस्कृत के विद्वान् पं० चिन्तामणि विनायक वैद्य के मतानुसार ई० सन् 800 से 1100 के बीच राजपुत्र बने हैं।
प्राचीन ग्रन्थों में न तो राजपूत जाति का उल्लेख है और न राजपूताने* का।
गुर्जर दुनिया की एक महान जाति है। गुर्जर ऐतिहासिक काल से भारत पर शासन कर रहे थे, बाद में कुछ गुर्जर की औलाद को मध्यकाल में राजपूत कहा जाता था। राजपूत, मराठा, जाट और अहीर, क्षत्रियों के उत्तराधिकारी हैं। वे विदेशी नहीं हैं। हम सभी को छोड़कर कोई भी समुदाय क्षत्रिय नहीं कहलाता है। उस क्षत्रिय जाति को कैसे खत्म किया जा सकता है जिसमें राम और कृष्ण पैदा हुए थे। हम सभी राजपूत, मराठा, जाट और अहीर सितारे हैं, जबकि गुर्जर क्षत्रिय आकाश में चंद्रमा हैं। गुर्जर की गरिमा मानव शक्ति से परे है .. (शब्द - ठाकुर यशपाल सिंह राजपूत
ReplyDeleteगुर्जर तंवर राजाओ की औलाद से तंवर राजपूत और तोमर राजपूत बने(शब्द महेंदर सिंह खेतासर राजपूत)
प्रतिहार एक उपाधि(tital) थी जो राष्ट्रकूट राजा ने गुर्जर राजा को दी थी👇👇👇👇👇👇👇
ReplyDelete1. सज्जन ताम्रपत्र (871 ई. ) :---
अमोघ वर्ष शक सम्वत
793 ( 871 ई . ) का
सज्जन ताम्र पञ ) :---- I
इस ताम्रपत्र अभिलेख मे लिखा है। कि राष्ट्र कूट शासक दन्तिदुर्ग ने 754 ई. मे "हिरण्य - गर्भ - महादान " नामक यज्ञ किया अवांछित और खंडित दासवतारा गुफा शिलालेख का उल्लेख है कि दांतिदुर्ग ने उज्जैन में उपहार दिए थे और राजा का शिविर गुर्जरा महल उज्जैन में स्थित था (मजूमदार और दासगुप्त, भारत का एक व्यापक इतिहास)।
अमोगवरास (साका संवत 793 = एडी 871) के संजन तांबे की प्लेट शिलालेख दांतिदुर्ग को उज्जैनिस दरवाजे के रखवाले (एल, वॉल्यूम XVIII, पृष्ठ 243,11.6-7)तो इस शुभ अवसर पर गुर्जर आदि राजाओ ने यज्ञ की सफलता पूर्वक सचालन हेतु यज्ञ रक्षक ( प्रतिहार ) का कार्य किया । ( अर्थात यज्ञ रक्षक प्रतिहारी का कार्य किया )और प्रतिहार नाम दिया
( " हिरणय गर्भ राज्यनै रुज्जयन्यां यदसितमा प्रतिहारी कृतं येन गुर्जरेशादि राजकम " )
Pad le or sun Akela ek Gurjar vansh nh tha wha par padhna thang se
गुर्जर जाति ने अनेक स्थानों को अपना नाम दिया। गुर्जर जाति के आधिपत्य के कारण आधुनिक राजस्थान सातवीं शताब्दी में गुर्जर देश कहलाता था। गुर्जर राज्य हर्षवर्धन (606-647 ई.) के दरबारी कवि बाणभट्ट ने हर्षचरित नामक ग्रन्थ में हर्ष के पिता प्रभाकरवर्धन का गुर्जरों के राजा के साथ संघर्ष का ज़िक्र किया हैं। संभवतः उसका संघर्ष गुर्जर देश के गुर्जरों के साथ हुआ था। अतः गुर्जर छठी शताब्दी के अंत तक गुर्जर देश (आधुनिक राजस्थान) में स्थापित हो चुके थे। हेन सांग ने 641 ई. में सी-यू-की नामक पुस्तक में गुर्जर देश का वर्णन किया हैं। हेन सांग ने मालवा के बाद ओचलि, कच्छ, वलभी, आनंदपुर, सुराष्ट्र और गुर्जर देश का वर्णन किया हैं। गुर्जर देश के विषय में उसने लिखा हैं कि ‘वल्लभी के देश से 1800 ली (300 मील) के करीब उत्तर में जाने पर गुर्जर राज्य में पहुँचते हैं| यह देश करीब 5000 ली (833 मील) के घेरे में हैं। उसकी राजधानी भीनमाल 33 ली (5 मील) के घेरे में हैं। ज़मीन की पैदावार और रीत-भांत सुराष्ट्र वालो से मिलती हुई हैं। आबादी घनी हैं लोग धनाढ्य और संपन्न हैं। वे बहुधा नास्तिक हैं, (अर्थात बौद्ध धर्म को नहीं मानने वाले हैं)। बौद्ध धर्म के अनुयाई थोड़े ही हैं। यहाँ एक संघाराम (बौद्ध मठ) हैं, जिसमे 100 श्रवण (बौद्ध साधु) रहते हैं, जो हीन यान और सर्वास्तिवाद निकाय के मानने वाले हैं। यहाँ कई दहाई देव मंदिर हैं, जिनमे भिन्न संप्रदायों के लोग रहते हैं। राजा क्षत्रिय जाति का हैं। वह २० वर्ष का हैं। वह बुद्धिमान और साहसी हैं। उसकी बौद्ध धर्म पर दृढ आस्था हैं और वह बुधिमानो का बाद आदर करता हैं।भीनमाल के रहने वाले ज्योत्षी ब्रह्मगुप्त ने शक संवत 550 (628 ई.) में अर्थात हेन सांग के वह आने के 13 वर्ष पूर्व ब्रह्मस्फुट नामक ग्रन्थ लिखा जिसमे उसने वहाँ के राजा का नाम गुर्जर सम्राट व्याघ्रमुख चपराना और उसके वंश का नाम चप (चपराना, चापोत्कट, चावडा) बताया हैं| हेन सांग के समय भीनमाल का राजा व्याघ्रमुख अथवा उसका पुत्र रहा होगा। भीनमाल का इतिहास गुर्जरों का नाता कुषाण सम्राट कनिष्क से जोड़ता हैं। प्राचीन भीनमाल नगर में सूर्य देवता के प्रसिद्ध जगस्वामी मन्दिर का निर्माण काश्मीर के राजा कनक (सम्राट कनिष्क) ने कराया था। मारवाड़ एवं उत्तरी गुजरात कनिष्क के साम्राज्य का हिस्सा रहे थे। भीनमाल के जगस्वामी मन्दिर के अतिरिक्त कनिष्क ने वहाँ ‘करडा’नामक झील का निर्माण भी कराया था। भीनमाल से सात कोस पूर्व ने कनकावती नामक नगर बसाने का श्रेय भी कनिष्क को दिया जाता है। कहते है कि भिनमाल के वर्तमान निवासी देवड़ा/देवरा लोग एवं श्रीमाली ब्राहमण, कनक के साथ ही काश्मीर से आए थे। देवड़ा/देवरा, लोगों का यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि उन्होंने जगस्वामी सूर्य मन्दिर बनाया था। राजा कनक से सम्बन्धित होने के कारण उन्हें सम्राट कनिष्क की देवपुत्र उपाधि से जोड़ना गलत नहीं होगा। सातवी शताब्दी में यही भीनमाल नगर गुर्जर देश की राजधानी बना। ए. कनिघंम ने आर्केलोजिकल सर्वे रिपोर्ट 1864 में कुषाणों की पहचान आधुनिक गुर्जरों से की है और उसने माना है कि गुर्जरों के कसाना गौत्र के लोग कुषाणों के वर्तमान प्रतिनिधि है गुर्जर देश से गुर्जरों ने पूर्व और दक्षिण की तरफ अपना विस्तार किया। 580 ई के लगभग दद्दा गुर्जर I ने दक्षिणी गुजरात के भडोच इलाके में एक राज्य की स्थापना कर ली थी। अपने अधिकांश शासन काल के दौरान भडोच के गुर्जर वल्लभी के मैत्रको के सामंत रहे। भगवान जी लाल इंद्र के अनुसार वल्लभी के मैत्रक भी गुर्जर थे। गुर्जर मालवा होते हुए दक्षिणी गुजरात पहुंचे और भडोच में एक शाखा को वह छोड़ते हुए समुन्द्र के रास्ते वल्लभी पहुंचे। मैत्रको के अतरिक्त चावडा यानि चप (चपराना) गुर्जर भी छठी शताब्दी में समुन्द्र के रास्ते ही गुजरात पहुंचे थे। गुजरात में चावडा सबसे पहले बेट-सोमनाथ इलाके में आकर बसे। छठी शताब्दी के अंत तक चालुक्यो ने दक्कन में वातापी राज्य की स्थापना कर ली थी। होर्नले के अनुसार वो हूण गुर्जर समूह के थे। मंदसोर के यशोधर्मन और हूणों के बीच मालवा में युद्ध लगभग 530 ई. में हुआ था। होर्नले का मत हैं कि यशोधर्मन से मालवा में पराजित होने के बाद हूणों की एक शाखा नर्मदा के पार दक्कन की तरफ चली गई। जिन्होने चालुक्यो के नेतृत्व वातापी राज्य की स्थापना की।
ReplyDeleteजिस देश के व्यक्ति शत्रुओं के आक्रमणों और परिश्रम आदि को नष्ट करने वाले हों उन साहसी सूरमाओं को गुर्जर कहा जाता है। शत्रु के लिए युद्ध में भारी पड़ने के कारण इन्हें पहले गुरुतर कहा गया, किसी के मतानुसार बड़े व्यक्ति के नाते गुरुजन कहकर अपभ्रंश स्वरूप ‘गुर्जर’ शब्द का चलन हुआ। पं० गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के अनुसार प्राचीनकाल में गुर्जर नामक एक राजवंश था। अपने मूल पुरुषों के गुणों के आधार पर इस वंश का नाम गुर्जर पड़ा था। उस पराक्रमी गुर्जर के नाम पर उनके अधीन देश ‘गुर्जर’, ‘गुर्जरात्रा’ और ‘गुर्जर देश’ प्रसिद्ध हुए।
ReplyDeleteश्री के० एम० मुन्शी ने स्वीकार किया है कि छठी शताब्दी के प्रारम्भ से पहले अर्थात् शकराजा रुद्रदामा आदि के समय गुर्जर प्रदेश, गुर्जरात्रा अर्थात् गुजरात नाम का कोई प्रदेश नहीं था, और यह भी स्वीकार किया है कि सन् 500 ई० के तुरन्त पश्चात् ही आबू पर्वत के चारों ओर का विस्तृत क्षेत्र ‘गुर्जर प्रदेश’ के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हो गया। उस समय आबू के चारों ओर ऐसे कुलों का समूह बसता था, जिनका रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, भाषा एवं रीति-रिवाज एक थे, और वह शुद्ध आर्य संस्कृति से ओत-प्रोत थे। उनके प्रतिहार, परमार, चालुक्य (सोलंकी) व चौहान आदि वंशों के शासक, वीर विजेता अपनी विजयों के साथ अपनी मातृभूमि गुर्जर देश या गुर्जरात्रा आदि का नाम (गुर्जर) चारों ओर के भूखण्डों में ले गये। गुर्जर देश गुर्जरात्रा या गुजरात की सीमाएं स्थायी नहीं थीं, बल्कि वे गुर्जर राजाओं के राज्य विस्तार के साथ घटती बढती रहती थीं। उससे भी गुर्जर जाति ही सिद्ध होती है और देश (गुर्जर देश) की सीमाएं उक्त जाति के राज्य विस्तार के साथ ही घटती बढती रहती थीं1।
ReplyDeleteगूजर शब्द पहली बार सन् 585 ई० में सुना गया, जब हर्षवर्धन के पिता प्रभाकरवर्धन ने इनको पराजित किया। उससे पहले गूजर नाम प्रकाशित नहीं था। गुजरात प्रान्त का नाम भी दसवीं शताब्दी के बाद पड़ा, इससे पहले इस प्रान्त का नाम लॉट था
चाटसू अभिलेख में लिखा हुआ है की गूहिल वंश जोकि महाराणा प्रताप का मूल वंस है वह गुर्जरों के अधीन था
ReplyDeleteKanishk tanwar i want to contact you . Kindly reply
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DeleteO bhai
ReplyDeleteGurjardesh ya gurjaratra aaj bhi exist karta hai by d name of gujarat.aur wahe
Ke logo ko gujarati kaha jata hai naa ki gurjar
Gurjar ek tribe hai jo aaj bhi gujarat me paayi jaati hai.
Aur pratihar gotra to gurjar, rajput ke alawa jaato me bhi hai.