Monday, April 18, 2016

==== क्षत्रिय_मिहिरभोज_प्रतिहार ====

                                         ==== क्षत्रिय_मिहिरभोज_प्रतिहार ====

 


** एक ऐसा राजा जिसने अरब तुर्क मुस्लिम आक्रमणकारियों को भागने पर विवश कर दिया और जिसके युग में भारत सोने की चिड़िया कहलाया **

मित्रों प्रतिहार/परिहार क्षत्रिय राजपूत वंश के नवमी शताब्दी में सम्राट मिहिर भोज भारत का सबसे महान शासक था। उसका साम्राज्य आकार, व्यवस्था , प्रशासन और नागरिको की धार्मिक स्वतंत्रता के लिए चक्रवर्ती गुप्त सम्राटो के समकक्ष सर्वोत्कृष्ट था।

भारतीय संस्कृति के शत्रु म्लेछो यानि मुस्लिम तुर्को -अरबो को पराजित ही नहीं किया अपितु उन्हें इतना भयाक्रांत कर दिया था की वे आगे आने वाली एक शताब्दी तक भारत की और आँख उठाकर देखने का भी साहस नहीं कर सके।

चुम्बकीय व्यक्तित्व संपन्न सम्राट मिहिर भोज की बड़ी बड़ी भुजाये एवं विशाल नेत्र लोगों में सहज ही प्रभाव एवं आकर्षण पैदा करते थे। वह महान धार्मिक , प्रबल पराक्रमी , प्रतापी , राजनीति निपुण , महान कूटनीतिज्ञ , उच्च संगठक सुयोग्य प्रशाशक , लोककल्याणरंजक तथा भारतीय संस्कृति का निष्ठावान शासक था।

ऐसा राजा जिसका साम्राज्य संसार में सबसे शक्तिशाली था। इनके साम्राज्य में चोर डाकुओ का कोई भय नहीं था। सुदृढ़ व्यवस्था व आर्थिक सम्पन्नता इतनी थी कि विदेशियो ने भारत को सोने की चिड़िया कहा।

यह जानकार अफ़सोस होता है की ऐसे अतुलित शक्ति , शौर्य एवं समानता के धनी मिहिर भोज को भारतीय इतिहास की किताबो में स्थान नहीं मिला।
सम्राट मिहिर भोज प्रतिहार के शाशनकाल में सर्वाधिक अरबी मुस्लिम लेखक भारत भ्रमण के लिए आये और लौटकर उन्होंने भारतीय संस्कृति सभ्यता आध्यात्मिक-दार्शनिक ज्ञान विज्ञानं , आयुर्वेद , सहिष्णु , सार्वभौमिक समरस जीवन दर्शन को अरब जगत सहित यूनान और यूरोप तक प्रचारित किया।

क्या आप जानते हे की सम्राट मिहिर भोज ऐसा शासक था जिसने आधे से अधिक विश्व को अपनी तलवार के जोर पर अधिकृत कर लेने वाले ऐसे अरब तुर्क मुस्लिम आक्रमणकारियों को भारत की धरती पर पाँव नहीं रखने दिया , उनके सम्मुख सुदृढ़ दीवार बनकर खड़े हो गए। उसकी शक्ति और प्रतिरोध से इतने भयाक्रांत हो गए की उन्हें छिपाने के लिए जगह ढूंढना कठिन हो गया था। ऐसा किसी भारतीय लेखक ने नहीं बल्कि मुस्लिम इतिहासकारो बिलादुरी सलमान एवं अलमसूदी ने लिखा है। ऐसे महान सम्राट मिहिर भोज ने 836 ई से 885 ई तक लगभग 50 वर्षो के सुदीर्घ काल तक शाशन किया।

सम्राट मिहिर भोज प्रतिहार जी का जन्म रामभद्र प्रतिहार की महारानी अप्पा देवी के द्वारा सूर्यदेव की उपासना के प्रतिफल के रूप में हुआ माना जाता है। मिहिर भोज के बारे में इतिहास की पुस्तकों के अलावा बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। मिहिर भोज ने 836 ईस्वीं से 885 ईस्वीं तक 49 साल तक राज किया।

मिहिर भोज के साम्राज्य का विस्तार आज के मुलतान से पश्चिम बंगाल तक ओर कश्मीर से कर्नाटक तक था। सम्राट मिहिर भोज बलवान, न्यायप्रिय और धर्म रक्षक थे। मिहिर भोज शिव शक्ति के उपासक थे। स्कंध पुराण के प्रभास खंड में भगवान शिव के प्रभास क्षेत्र में स्थित शिवालयों व पीठों का उल्लेख है।

प्रतिहार साम्राज्य के काल में सोमनाथ को भारतवर्ष के प्रमुख तीर्थ स्थानों में माना जाता था। प्रभास क्षेत्र की प्रतिष्ठा काशी विश्वनाथ के समान थी। स्कंध पुराण के प्रभास खंड में सम्राट मिहिर भोज के जीवन के बारे में विवरण मिलता है। मिहिर भोज के संबंध में कहा जाता है कि वे सोमनाथ के परम भक्त थे उनका विवाह भी सौराष्ट्र में ही हुआ था उन्होंने मलेच्छों से पृथ्वी की रक्षा की।

49 वर्ष तक राज्य करने के पश्चात वे अपने बेटे महेंद्रपाल प्रतिहार को राज सिंहासन सौंपकर सन्यासवृति के लिए वन में चले गए थे।सम्राट मिहिर भोज का सिक्का जो की मुद्रा थी उसको सम्राट मिहिर भोज ने 836 ईस्वीं में कन्नौज को देश की राजधानी बनाने पर चलाया था। सम्राट मिहिर भोज महान के सिक्के पर वाराह भगवान जिन्हें कि भगवान विष्णु के अवतार के तौर पर जाना जाता है। वाराह भगवान ने हिरण्याक्ष राक्षस को मारकर पृथ्वी को पाताल से निकालकर उसकी रक्षा की थी।

सम्राट मिहिर भोज का नाम आदिवाराह भी है। ऐसा होने के पीछे दो कारण हैं पहला जिस प्रकार वाराह भगवान ने पृथ्वी की रक्षा की थी और हिरण्याक्ष का वध किया था ठीक उसी प्रकार मिहिर भोज मलेच्छों(मुगलो,अरबों)को मारकर अपनी मातृभूमि की रक्षा की। दूसरा कारण सम्राट का जन्म वाराह जयंती को हुआ था जो कि भादों महीने की शुक्ल पक्ष के द्वितीय दोज को होती है। सनातन धर्म के अनुसार इस दिन चंद्रमा का दर्शन करना बहुत शुभ फलदायक माना जाता है।

इस दिन के 2 दिन बाद महाराष्ट्र में गणेश चतुर्थी का उत्सव प्रारंभ हो जाता है। जिन स्थानों पर प्रतिहारों, परिहारों, पडिहारों, इंदा, राघव, अन्य शाखाओं को सम्राट भोज के जन्मदिवस का पता है वे इस वाराह जयंती को बड़े धूमधाम से मनाते हैं। जिन भाईयों को इसकी जानकारी नहीं है आप उन लोगों के इसकी जानकारी दें और सम्राट मिहिर भोज का जन्मदिन बड़े धूमधाम से मनाने की प्रथा चालू करें।

अरब यात्रियों ने किया सम्राट मिहिर भोज का यशोगान अरब यात्री सुलेमान ने अपनी पुस्तक सिलसिलीउत तुआरीख 851 ईस्वीं में लिखी जब वह भारत भ्रमण पर आया था। सुलेमान सम्राट मिहिर भोज के बारे में लिखता है कि प्रतिहार सम्राट की बड़ी भारी सेना है। उसके समान किसी राजा के पास उतनी बड़ी सेना नहीं है। सुलेमान ने यह भी लिखा है कि भारत में सम्राट मिहिर भोज से बड़ा इस्लाम का कोई शत्रु नहीं है। मिहिर भोज के पास ऊंटों, हाथियों और घुडसवारों की सर्वश्रेष्ठ सेना है। इसके राज्य में व्यापार, सोना चांदी के सिक्कों से होता है। यह भी कहा जाता है कि उसके राज्य में सोने और चांदी की खाने
भी हैं।यह राज्य भारतवर्ष का सबसे सुरक्षित क्षेत्र है। इसमें डाकू और चोरों का भय नहीं है।

मिहिर भोज राज्य की सीमाएं दक्षिण में राष्ट्रकूटों के राज्य, पूर्व में बंगाल के पाल शासक और पश्चिम में मुलतान के शासकों की सीमाओं को छूती है। शत्रु उनकी क्रोध अग्नि में आने के उपरांत ठहर नहीं पाते थे। धर्मात्मा, साहित्यकार व विद्वान उनकी सभा में सम्मान पाते थे। उनके दरबार में राजशेखर
कवि ने कई प्रसिद्ध ग्रंथों की रचना की।

कश्मीर के राज्य कवि कल्हण ने अपनी पुस्तक राज तरंगणी में सम्राट मिहिर भोज का उल्लेख किया है। उनका विशाल साम्राज्य बहुत से राज्य मंडलों आदि में विभक्त था। उन पर अंकुश रखने के लिए दंडनायक स्वयं सम्राट द्वारा नियुक्त किए जाते थे। योग्य सामंतों के सुशासन के कारण समस्त साम्राज्य में पूर्ण शांति व्याप्त थी। सामंतों पर सम्राट का दंडनायकों द्वारा पूर्ण नियंत्रण था।

किसी की आज्ञा का उल्लंघन करने व सिर उठाने की हिम्मत नहीं होती थी। उनके पूर्वज सम्राट नागभट्ट प्रतिहार ने स्थाई सेना संगठित कर उसको नगद वेतन देने की जो प्रथा चलाई वह इस समय में और भी पक्की हो गई और प्रतिहार/ परिहार राजपूत साम्राज्य की महान सेना खड़ी हो गई। यह भारतीय इतिहास का पहला उदाहरण है,
जब किसी सेना को नगद वेतन दिया जाता था।।

मित्रों महान क्षत्रिय सम्राट मिहिर भोज की जयंती आगामी 4 सितंबर 2016 को है हम सभी पिछले साल की तरह ही इस साल भी बडे स्तर पर जयंती मानायेगे।।

Pratihara / Pratihar / Parihar Rulers of india

जय माँ भवानी।।
जय क्षात्र धर्म।।
शेयर जरुर करें।।
नागौद रियासत।।

सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार काल के तांबे के सिक्के

सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार के शासनकाल के समय चलाये गये तांबे के सिक्के जो नवमीं शताब्दी में राज्य मुद्रा के रुप मे चलते थे।


प्रतिहार/परिहार/पढ़ियार क्षत्रिय वंश।।
लक्ष्मणवंशी प्रतिहार राजपूत।।
सम्राट मिहिर भोज।।
जय माँ चामुण्डा।।
जय क्षात्र धर्म।।
नागौद राज्य।।

== प्रतिहारकालीन जैन मंदिर ==

                                     == प्रतिहारकालीन जैन मंदिर ==


जोधपुर से 65 किलोमीटर दूर औसियाँ जैन मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। इन मंदिरों का निर्माण प्रतिहार क्षत्रिय शासकों द्वारा करवाया गया था।
वत्सराज प्रतिहार (778-794 ईस्वी) के समय निर्मित महावीर स्वामी का मंदिर स्थापत्य का उत्कृष्ट नमूना है, इसके अतिरिक्त सच्चिया माता का मंदिर, सूर्य मंदिर, हरीहर मंदिर इत्यादि प्रतिहारकालीन स्थापत्य कला के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। ये मंदिर महामारू अर्थात प्रतिहार शैली में निर्मित है।
जय माँ भवानी।।
जय क्षात्र धर्म।।
नागौद रियासत।।

H.H. Maharaja Mahendra singh judev of Nagod Princely state

                                       == महाराजा महेन्द्र सिंह जूदेव नागौद ==


जन्म - 5 फरवरी 1916
शिक्षा - इंदौर एवं बँगलौर
राजगद्दी- 1926
पहला विवाह - महामान्या यशवंत कुमारी बाई जी राजे, धर्मपुर रियासत (गुजरात )1932 दूसरा विवाह - महामान्या श्याम कुमारी,ठिकाना बांधी, सोहावल रियासत 1942 व्यक्तित्व - सुंदर, सौम्य, सुशील, उदार, स्वाभिमानी, अच्छे घुड़सवार, संस्कृत के ज्ञाता, अंग्रेजी के विद्वान (धारा प्रवाह अंग्रेजी) हिन्दी के मर्मज्ञ, काव्य प्रेमी, संगीत प्रेमी, रास-रंग के शौकीन, अचूक निशाने बाज, बेढब शिकारी (256 शेर मारे, नागौद, उचेहरा, परसमनिया, इलाहाबाद, बाम्बे की कोठियाँ तरह -तरह की ट्राफी एवं खालों से सुसज्जित है।
खाद्यपदार्थ बनाने, खाने एवं खिलाने के शौकीन, उदार दाता (इनाम इकरार एवं जागीर देने में उदार। लोग जय जय कार करते परम शैव जो पिता श्री से विरासत में मिला, अच्छे पुजारी, अति क्रोधी (पर जल्दी शांत होते थे) अत्यन्त हठी (चाहे ब्रह्मा उतर आएं, करते मन की) रसज्ञ, अच्छे वक्ता, विशेष अवसरों पर परिधान खास होती ऐसे थे हमारे महाराजाधिराज ।
खानदानी उपाधि
"श्री श्री 108 श्री सदाशिव चरणार्विंद, मकर रन्द, श्री महीभुज मण्डल मार्तण्ड, श्री सूर्य वंश परिहार वतंशः, श्री महाराजधिराज, श्री महाराज संग्रामशूर, श्री बरमेन्द्र महाराज,
श्रीमान महेन्द्र सिंह जूदेव ।।"
आप महाराजा यादवेन्द्र सिंह जी के छोटे पुत्र है। अग्रज महाराजा नरहरेन्द्र सिंह जी की मृत्यु के बाद अवयस्क होने पर तत्कालीन राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया गया था। आप का जन्म 8 फरवरी 1916 को हुआ और पढ़ाई इन्दौर और बैंगलोर मे संपन्न हुई।
वयस्क होने पर 9 फरवरी 1938 ई. को आपका राज्याभिषेक हुआ और 1939 ई. मे शेसन के अधिकार प्राप्त हुए। आप भारतीय नरेश मंडल के सदस्य भी थे।
आप ने हमेशा ही राज्य व प्रजा का तन मन धन से ख्याल रखा। आप नागौद राज्य के आखिरी उत्तराधिकारी हुए। 15 अगस्त 1947 ई. को भारत स्वतंत्र हुआ। और सभी रियासतों के साथ नागौद रियासत भी अंततः अंतरमुक्त हो गया और कुछ ही सालों बाद आप 23 अक्टूबर 1981 ई. को 65 वर्ष की उम्र मे पंचतत्व विलीन हो गये।।
साभार - अजय सिंह परिहार
ठिकाना - सेमरी, नागौद
Pratihara / Pratihar / Parihar Rulers of india
जय बरमेन्द्रनाथ।।
जय चामुण्डा देवी।।
सूर्यवंशी प्रतिहार वंश।।

History of Kshatriya Rajput Samrat Mahendrapal Pratihar

                                     ===== सम्राट_महेन्द्रपाल_प्रतिहार =====


आज की यह पोस्ट सूर्यवंशी क्षत्रिय मिहिर भोज प्रतिहार के पुत्र महेंद्रपाल प्रतिहार पर आधारित है।
प्रतिहार राजपूत सम्राट मिहिरभोज की मृत्यु (885 ईस्वीं) के पश्चात् उसका पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम उसके विशाल साम्राज्य का उत्तराधिकारी बना। उसकी माता का नाम चंद्रभट्टारिका देवी था। सम्राट मिहिर ने उसके शिक्षण के लिए उस काल के संस्कृत के महान पण्डित कविराज राजशेखर को नियुक्त किया था। कविराज राजशेखर ने अपनी रचनाओं में महेन्द्पाल को निर्भयराज, निर्भयनरेंद्र रघुकुल चूड़ामणि अथवा रघुकुलतिलक आदि विशेषणों से संबोधित किया है। साथ ही उसके अभिलेखों में महिन्द्रपाल, महेन्द्रायुद्ध एवं महिपाल नाम मिलते है।
सम्राट महेन्द्रपाल प्रतिहार भी अपने पिता मिहिरभोज के समान वीर, पराक्रमी, दूरदृष्टा एवं महत्वाकांक्षी शासक था। अपने पिता से मिले विशाल साम्राज्य की केवल सुरक्षा ही नहीं की अपितु उसे अधिक विस्तृत भी किया। अभिलेखों से जानकारी मिलती है कि उसका साम्राज्य पूर्वी बंगाल से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तक उत्तर पश्चिम् में वर्तमान अफगानिस्तान उत्तर (हिमालय) में कश्मीर से लेकर दक्षिण में विंध्याचल तक विशाल भू - भाग तक फैला हुआ था। उसके अभिलेखों में सम्राट योग्य उपमाएं परम भट्टारक ,महाराजाधिराज एवं परमेश्वर जैसी उपाधियाँ उसके नाम के साथ मिलती है।
सम्राट महेन्द्रपाल प्रथम ने विरासत में मिले साम्राज्य की संपूर्ण व्यवस्था कर अपनी सेना एवं सेना सेनाध्यक्षों को विजय अभियान के लिए सजग किया। वह संपूर्ण उत्तरी भारत का एकछत्र सम्राट बनना चाहता था। एक विशेष बात यह थी कि महत्वाकांक्षी होने के वावजूद उसके मन मे विंध्याचल के दक्षिण मे अपने साम्राज्य को विस्तीर्ण करने की कोई आकांक्षा नही थी, अन्यथा यह समय उसके लिए दक्षिण के राज्यों को भी जीत सकने मे सुगम था क्योंकि उसके साम्राज्य के शत्रु राष्ट्रकूट शासक अत्यंत कमजोर थे तथा आपसी युद्धों में संलग्न थे। फिर भी उसने दक्षिण विजय की आकांक्षा पालने के स्थान पर उत्तर भारत में शासन की सुदृढ व्यवस्था एवं प्रजा के हितसंवर्धन में ही अपना ध्यान केंद्रित किया। 23 वर्षों के शासन काल में अपने सहयोगियों एवं मित्रों की संख्या में वृद्धि की, सीमाओं की सुरक्षा - व्यवस्था मजबूत की तथा अपने दोनों शक्तिशाली शत्रुओं -पाल एवं राष्ट्रकूटों की शक्ति एवं आकांक्षाओं को कुंठित किया।
सम्राट महेन्द्रपाल विद्याप्रेमी एवं विद्यानों, साहित्यकारों का आश्रयदाता भी था। उसकी राज्यसभा में संस्कृत का प्रसिद्व विद्वान कविराज राजशेखर रहता था। राजशेखर के प्रसिद्ध ग्रंथ कर्पूरमंजरी में कहा गया है कि वह महेन्द्रपाल प्रतिहार का गुरु था। महेन्द्रपाल प्रथम की मृत्यु के पश्चात वह उसके पुत्र प्रतिहार नरेश महिपाल का भी संरक्षक था।।
डॉ वी के पांडेय लिखते है - जिसका गुरु राजशेखर रहा हो वह योग्य एवं सुनिश्चित सम्राट न रहा हो ऐसा संभव ही नही है। वह विद्वानों का आश्रयदाता एवं साहित्य का संरक्षक था । वह एक शान्तिप्रिय नरेश था। उसने भारत देश के शत्रु अरब, हूण, शक, गुर्जर विदेशी आक्रमणकारियों को अपने पूर्वजों के भांति ही अपनी तलवार से उनका सर काटा था। उसने साथ ही साथ अन्य राजवंश पालवंश की शक्ति को भी क्षीण किया, परंतु राष्ट्रकूटों से जबरदस्ती उसने संघर्ष नहीं किया, जबकि इस समय राष्ट्रकूटों की आंतरिक स्थिति सन्तोषजनक न थी।
डॉ के सी श्रीवास्तव कहते है, " महेन्द्रपाल प्रतिहार न केवल एक विजेता एवं साम्राज्य निर्माता था, अपितु कुशल प्रशासक एवं विद्या और साहित्य का महान संरक्षक भी था।
इस प्रकार विभिन्न स्रोतों के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है की महेन्द्रपाल के शासनकाल में राजनीतिक तथा सांस्कृतिक दोनो ही दृस्टियों से प्रतिहार राजपूत साम्राज्य की अभूतपूर्व प्रगति हुई। कन्नौज ने एक बार पुनः वही गौरव और प्रतिष्ठा प्राप्त कर लिया जो हर्षवर्धन के काल में उसे प्राप्त था। यह नगर जहां हिन्दू सभ्यता एवं संस्कृति का केन्द्र बन गया वहीं कोई परिवर्तन नहीं, शक्ति और सौंदर्य में इसकी बराबरी करने वाला दूसरा नगर नही था। पश्चिमोत्तर एवं पश्चिम सीमा एकदम सुरक्षित रही।
महेन्द्रपाल प्रथम की अंतिम तिथि 907 - 908 ईस्वीं मिलती है। अतः माना जा सकता है कि महेन्द्रपाल की मृत्यु 908 ईस्वीं के लगभग हुई थी।
885 ईस्वीं से 908 ईस्वीं अथवा 910 ईस्वीं का एक ऐसा कालखण्ड था जब सम्राट महेन्द्रपाल प्रतिहार को चुनौती देने वाला भारत ही नही भारत के बाहर भी दुनिया में कोई राज्य नही था। यह एक ऐसा समय था जब सम्राट महेन्द्रपाल प्रथम इतना शक्तिशाली था कि वह उत्तर - पश्चिम एशिया में अपने साम्राज्य का विस्तार कर सकता था। इस साम्राज्य - विस्तार से भविष्य के लिए भी भारत पर किसी आक्रमण की संभावना नही रहती। परंतु ऐसा सोचा ही नही गया क्योंकि भारतीय क्षत्रिय राजपूत शासको की मानसिकता हमेशा सुरक्षात्मक रही है। आक्रमकता की कभी नही रही। वे जीवो और जीने दो के सिद्धांत पर विश्वास करते थे।
Pratihara / Pratihar / Parihar Rulers of india
‪#‎Pratihar‬ ‪#‎Empire‬ ‪#‎Emperor‬
‪#‎Parihar‬ ‪#‎History‬ ‪#‎Kshatriya‬
‪#‎Padhiyar‬ ‪#‎Mahendrapal‬ ‪#‎kannauj‬ ‪#‎Nagod‬ ‪#‎Mandore‬ ‪#‎Laxmanwanshi‬ ‪#‎jalore‬ ‪#‎Suryawanshi‬ ‪#‎jaichamunda‬
प्रतिहार/परिहार/पढ़ियार क्षत्रिय राजपूत वंश
जय माँ चामुण्डा।।
जय क्षात्र धर्म।।
नागौद रियासत।।

History of Kshatriya samrat Naagbhatt Pratihar

===== सम्राट_नागभट्ट_प्रतिहार =====


लक्ष्मणवंशी प्रतिहार क्षत्रिय वंश का वस्तुतः राजनैतिक इतिहास प्रमुख रुप से इसके संस्थापक नागभट्ट प्रथम से प्रारम्भ होता है। नागभट्ट प्रथम के परदादा महाराज हरिश्चन्द्र प्रतिहार का समय डॉ बैजनाथ के अनुसार छठी शताब्दी के आसपास था। डॉ के सी श्रीवास्तव के अनुसार इस वंश की प्राचीनता पांचवीं सदी तक जाती है। पुलिकेशिन द्वितीय के ऐहोल अभिलेख के 22 वें श्लोक में गुर्जरात्रा प्रदेष (वर्तमान का गुजरात) भड़ौच का उल्लेख सर्वप्रथम हुआ।
महाराज हरिश्चन्द्र प्रतिहार का पुत्र रज्जिल, रज्जिल का पुत्र नरभट एवं नरभट का पुत्र नागभट्ट था। इस आधार पर इतिहासकार नागभट्ट का काल 730 ई. से प्रारम्भ मानते है। 730 ई. वह कालखण्ड था। जब नागभट्ट प्रथम ने भीनमाल पर अधिकार कर वास्तविक रुप से प्रतिहार साम्राज्य का श्री गणेश किया था। उस समय नागभट्ट पूर्णयुवावस्था में था।
नागभट्ट के पिता नरभट मण्डौर के शासक थे। लगभग 725 ईस्वीं के आसपास अरब के मुस्लिमों ने सिंध व मुल्तान पर अधिकार करने के पश्चात मण्डौर राज्य पर आक्रमण किया था। परंतु राजकुमार नागभट्ट ने आंगे बढकर अरबों प्रत्याक्रमण कर उन्हें बुरी तरह पराजित किया तथा पलायन करने पर बाध्य किया। अरब सेनाएँ मण्डौर को छोडकर भीनमाल की ओर बढ गई। उस समय उनका अरब सेनापति जुनैद था।
अरब सेनापति जुनैद मण्डौर के प्रतिहार क्षत्रियों से हार पिटकर पराजित होने के बाद भीनमाल की ओर बढा। उस समय भीनमाल मे चावड़ा क्षत्रियों का शासन था। यहां का शासक कमजोर था। अतः अरबो ने इसे जीत लिया तथा वे उज्जैन की ओर आंगे बढे। बिलादुरी ने अपने ग्रन्थ में लिखा है--- अरब सेनापति जुनैद खां ने उज्जैन, बहरीमद, अलमालिवह (मालवा), मारवाड़, वलमण्डल, दहनाज और बरवास (भड़ौच) पर आक्रमण किये। उसने भीनमाल पर पर अधिकार किया।
इससे सपष्ट है कि इन आक्रमणों में उसे केवल भीनमाल पर ही सफलता मिली। उज्जैन उस समय कन्नौज सम्राट यशोवर्मन के शासनाअंतर्गत था। गौडवहों के अनुसार अरबों के आक्रमण की जानकारी मिलते ही यशोवर्मन महेन्द्र पर्वतीय राजाओं की विजय यात्रा को बीच में छोडकर सीघा मध्य देश को पार करते हुए उज्जैन आकर अरबी सेनाओं पर प्रत्याक्रमण किया।
आक्रमण इतना जबरदस्त था कि अरबों के पांव उखड गये। उसने उनका पीछा करते हुए अनेक युद्धों में पराजित करते हुए सिंध के पार खदेड़ दिया। अब केवल मकरान ही अरबों के पास रह गया। वहाँ से यशोवर्मन मण्डौर गया। वहां उसका स्वागत हुआ। ऐसा लगता है कि नागभट्ट प्रथम को उसने भीनमाल मजबूत करने के लिए कहा।
उस काल में भीनमाल का बहुत ही महत्व था क्योंकि सिंध में भीनमाल होकर ही मालवा व कन्नौज मध्यदेश में जाया जा सकता था। चीनी यात्री हुऐनसांग 641 ईस्वीं में भीनमाल गया था। उस समय वहाँ चावड़ा क्षत्रियों का शासन था। शिशुपाल वध के लेखक महाकवि माघ एवं 'ब्रहस्फुट' सिद्धान्त के प्रतिपादक श्री ब्रम्हभट्ट भी 628 ईस्वीं में चावडा क्षत्रिय शासकों के काल में भीनमाल में रहते थे।
यशोवर्मन मण्डौर से कुरुक्षेत्र चला गया। राष्ट्रीय संकट को देखते हुए भीनमाल की कमजोर स्थिति को ध्यान में रखकर नागभट्ट प्रथम ने आक्रमण कर वहां से चावड़ा क्षत्रियों के शासन को समाप्त कर भीनमाल पर अधिकार कर लिया तथा अपनी राजधानी मेड़ता के स्थान पर भीनमाल स्थानान्तरित कर ली। अब उसने विशाल शक्ति का संगठन कर प्रतिहार साम्राज्य की स्थापना की।
नागभट्ट प्रथम प्रतिहार क्षत्रिय वंश के सर्वश्रेष्ठ योद्धा थे। नागभट्ट को प्रतिहार साम्राज्य का संस्थापक भी माना जाता है। मण्डौर व मेड़ता तक केवल प्रतिहार ही थे। अब चूँकि गुर्जरात्रा प्रदेष का शासक हो गया, अतः यही से यह वंश गुर्जर - प्रतिहार कहलाने लगा। मण्डौर के शासक प्रतिहार ही कहलाते थे।
गुर्जरत्रा : , आनर्त, स्वर्भ, माहीघाटी, अनूप, वलभी, सौराष्ट्र, काठियावाड़, कच्छभुज, मण्डौर, जाँगल कूप दुर्ग आदि स्थानों से खदेड़ने का कार्य नागभट्ट प्रथम ने किया। लाट , थाना क्षेत्र से खदेड़ने का कार्य अवनिजनाश्रय पुलिकेशिन चालुक्य ने एवं मालवा, उज्जैन एवं सिंध से बाहर निकालने का कार्य सम्राट यशोवर्मन ने किया था।
भीनमाल को राजधानी बनाने के पश्चात नागभट्ट प्रथम ने पडोस में लगे राज्य जालौर पर अधिकार किया एवं वहां के सवर्णगिरी पर्वत पर एक शत्रुओं को आतंकित करने वाला दुर्ग का निर्माण भी करवाया। उस समय जालौर में कौन शासन कर रहा था, इसकी जानकारी उपलब्ध नहीं है। "कुवलयमाला" ग्रन्थ से भी जालौर पर नागभट्ट प्रथम के अधिकार की पुष्टि उपलब्ध होती है।
उस समय प्रतिहार क्षत्रिय वंश का राज्य विस्तार बडे राज्यों तक फैल चुका था। उस समय के चारणो भाटों के अनुसार नागभट्ट प्रथम प्रतिहार वंश में जो तीनो तीनों लोको का रक्षक था नागभट्ट प्रथम नारायण की प्रतिकृति के रुप में उत्पन्न हुआ जिसने सुकृतियों का नाश करने वाले मलेच्छ नरेशों की अक्षौहिणी सेना का विनाश कर दिया। भयंकर अस्त्र शस्त्रों से वह चार भुजाओं से शोभित प्रतीत होता था। साक्षात नारायण (विष्णु) लगता था।"
प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ वी के पांडे ने लिखा है -- अरबो के युद्ध का वर्णन हमे अरब लेखक बिलादुरी से भी प्राप्त होता है। उनका कथन है कि सिंध के गवर्नर जुनैद ने अनेक स्थानों पर विजय प्राप्त की जिसके पास दस लाख सैनिक रहे हो। उसने उज्जैन पर भी आक्रमण किया परंतु जुनैद के उत्तराधिकारी वहां हार गये।
जिससे भारत के अनेक भू भाग उसके हाथों से निकल गये। वह आंगे लिखता है। अरब लेखक बिलादुरी के इस कथन से विदित होता है। इतनी बडी विशाल सेना के वाबजूद जुनैद उज्जैन पर विजय प्राप्त नही कर सका। इसका प्रमुख कारण था कि इस समय उज्जैन का प्रमुख शक्तिशाली प्रतिहार क्षत्रिय शासक सम्राट नागभट्ट प्रथम था।
नागभट्ट प्रथम से अरबों का मुकाबला प्रमुख रुप से दो बार हुआ। एक मण्डौर में रहते हुए तथा दूसरा भड़ौच अथवा कच्छ भुज मे और दोनो ही बार जुनैद को बुरी तरह पराजित होना पडा था। अतः नागभट्ट का ऐसा कोप अरबों के मन में छा गया था कि वे उसका मुकाबला करने की सोच भी नही सकते थे। इसीलिए ग्वालियर प्रशस्ति में कहा गया है कि " मलेच्छा राजा की विशाल सेनाओं को चूर करने वाला मानो नारायण (विष्णु) रुप में वह लोगों की रक्षा के लिए उपस्थित हुआ था।"
प्रतिहार राजवंश के संस्थापक नागभट्ट प्रथम के साम्राज्य में संपूर्ण मारवाड जिसमें डीडवाना तक प्रदेश यानि वर्तमान नागौर जिले, गोंडवाना जिसमे जालौर एवं आबू आते थे। तथा उत्तरी गुजरात से लेकर भड़ौच तक का भू भाग आते थे। दक्षिणी राजस्थान का चित्तौड़ राज्य का शासक गोहिल क्षत्रिय राजपूत बप्पा रावल एवं सिंध का जय सिंह मित्र थे। उस समय कन्नौज सम्राट यशोवर्मन भी मित्र थे। इस प्रकार नागभट्ट प्रथम ने भीनमाल के अंतर्गत अपने साम्राज्य को पर्याप्त शक्तिशाली बना लिया था। यह भारतीर पश्चिमी सीमा का वास्तविक प्रतिहार अर्थात रक्षक था।
Pratihara / Pratihar / Parihar Rulers of india
प्रतिहार/परिहार/पढ़ियार क्षत्रिय राजपूत वंश
‪#‎Pratihar‬ ‪#‎Empire‬ ‪#‎Emperor‬
‪#‎Parihar‬ ‪#‎History‬ ‪#‎Kshatriya‬
‪#‎Padhiyar‬ ‪#‎Rajvansh‬
‪#‎Suryawanshi‬ ‪#‎Pratihara‬ ‪#‎Dynasty‬ ‪#‎Rajput‬ ‪#‎Rajputana‬ ‪#‎Rajputra‬ ‪#‎Ujjain‬ ‪#‎Jalore‬ ‪#‎Bhinmal‬ ‪#‎Mandore‬ ‪#‎Medta‬
‪#‎kannauj‬ ‪#‎Naagbhatt‬ ‪#‎Mihirbhoj‬
जय माँ चामुण्डा देवी।।
लक्ष्मणवंशी प्रतिहार।।
सूर्यवंशी क्षत्रिय।।
जय क्षात्र धर्म।।
नागौद रियासत।।

History of Kakustha Pratihar and Devraj Pratihar

===== महाराजा देवराज प्रतिहार =====
मित्रों आज की यह पोस्ट लक्ष्मणवंशी प्रतिहार/परिहार राजपूत वंश के वीर योद्धा शासक देवराज परिहार पर आधारित है।


क्षत्रिय नरेश नागभट्ट प्रथम की मृत्यु 760 ईस्वीं में होने के पश्चात उसके भाई का पुत्र ककुक्क अथवा कक्कुस्थ प्रतिहार सिंहासन पर बैठा परंतु कक्कुस्थ एक निर्बल एवं अयोग्य शासक होने के कारण शीघ्र ही उसके स्थान पर उसका छोटा भाई देवराज सिंघासन पर बैठा।
कक्कुस्थ के विषय मे कोई विशेष घटनाओं की जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। कक्कुस्थ के कोई संतान न होने की वजह से भी उसका छोटा भाई ही शासक बना। ग्वालियर प्रशस्ति में कक्कुस्थ के विषय में लिखा है कि वह प्रियभाषी होने के कारण वह लोक मे कक्कुस्थ (हँसने वाला) नाम से जाना गया।
यह तो नही कहा जा सकता कि इसने कितने वर्ष तक शासन किया क्योंकि इससे संबंधित कोई साक्ष्य नही मिलता। परंतु ऐसा लगता है की अत्यंत अल्प समय ही यह शासनाधिकारी रहा होगा।"
कक्कुस्थ के बाद उसका छोटा भाई देवराज ने प्रतिहार राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया गया। ग्वालियर प्रशस्ति कहती है कि " उसके पराक्रमी अनुज देवराज ने कुल यश की वृद्धि की तथा पृथ्वी के राजाओं की प्रभुता का विनाश करके उन्हें उसी प्रकार प्रभुत्वविहीन कर दिया, जिस प्रकार इन्द्र ने पर्वतो के पंखो को काटकर गतिहीन बना दिया था। इसका तात्पर्य है कि देवराज वीर योग्य शासक था। प्रशस्ति में इसे 'कुलिश - धर' याने इन्द्र के समान कहा गया है।
मिहिर भोज प्रथम के वराह अभिलेख में देवराज को देवशक्ति कहा गया है। ग्वालियर अभिलेख के अनुसार देवराज ने बहुसंख्यक भूभृतों यानी राजाओं और उनके शक्तिशाली सहयोगियों की गति को समाप्त कर दिया। " यज्ञे छिन्नोरुपक्षक्षपितगतिकुलं भूभृतं सन्नीयनता।" अभिलेख में शत्रुओं एवं उनके सहयोगियों के नामों का उल्लेख नहीं है।
अतः निश्चित रुप से कुछ नही कहा जा सकता। परंतु यह तो निश्चित है कि देवराज प्रतिहार ने अपने पूर्वजों के साम्राज्य की सीमाओं को कम नही होने दिया। बीस वर्ष तक शासन चलाना और वह भी उज्जैन जैसे केंद्रीय स्थान पर रहकर जहाँ दक्षिण एवं पश्चिम के आक्रमणों का निरंतर भय बना रहता था।, आसान काम नही था परंतु देवराज ने निर्बाध गति से शासन चलाया।
दुरदेव से इसके शासन के विषय में अधिक जानकारी आज हमें उपलब्ध नहीं है। कक्कुस्थ एवं देवराज ने बीस वर्ष शासन किया। देवराज प्रतिहार की मृत्यु 776 ईस्वीं मे हो गई।
Pratihara / Pratihar / Parihar Rulers of india
प्रतिहार/परिहार/पढ़ियार क्षत्रिय राजपूत वंश
‪#‎Pratihar‬ ‪#‎Empire‬ ‪#‎Emperor‬
‪#‎Parihar‬ ‪#‎History‬ ‪#‎Kshatriya‬
‪#‎Padhiyar‬ ‪#‎Rajvansh‬
‪#‎Suryawanshi‬ ‪#‎Rambhadra‬
‪#‎Mihirbhoj‬ ‪#‎Rajputs‬
‪#‎kakkustha‬ ‪#‎Devraj‬
‪#‎Ujjain‬ ‪#‎Nagod‬
लक्ष्मणवंशी प्रतिहार।।
सूर्यवंशी क्षत्रिय।।
जय माँ चामुण्डा।।
जय क्षात्र धर्म।।
नागौद रियासत।।