===== सम्राट_महेन्द्रपाल_प्रतिहार =====
आज की यह पोस्ट सूर्यवंशी क्षत्रिय मिहिर भोज प्रतिहार के पुत्र महेंद्रपाल प्रतिहार पर आधारित है।
प्रतिहार राजपूत सम्राट मिहिरभोज की मृत्यु (885 ईस्वीं) के पश्चात् उसका पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम उसके विशाल साम्राज्य का उत्तराधिकारी बना। उसकी माता का नाम चंद्रभट्टारिका देवी था। सम्राट मिहिर ने उसके शिक्षण के लिए उस काल के संस्कृत के महान पण्डित कविराज राजशेखर को नियुक्त किया था। कविराज राजशेखर ने अपनी रचनाओं में महेन्द्पाल को निर्भयराज, निर्भयनरेंद्र रघुकुल चूड़ामणि अथवा रघुकुलतिलक आदि विशेषणों से संबोधित किया है। साथ ही उसके अभिलेखों में महिन्द्रपाल, महेन्द्रायुद्ध एवं महिपाल नाम मिलते है।
सम्राट महेन्द्रपाल प्रतिहार भी अपने पिता मिहिरभोज के समान वीर, पराक्रमी, दूरदृष्टा एवं महत्वाकांक्षी शासक था। अपने पिता से मिले विशाल साम्राज्य की केवल सुरक्षा ही नहीं की अपितु उसे अधिक विस्तृत भी किया। अभिलेखों से जानकारी मिलती है कि उसका साम्राज्य पूर्वी बंगाल से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तक उत्तर पश्चिम् में वर्तमान अफगानिस्तान उत्तर (हिमालय) में कश्मीर से लेकर दक्षिण में विंध्याचल तक विशाल भू - भाग तक फैला हुआ था। उसके अभिलेखों में सम्राट योग्य उपमाएं परम भट्टारक ,महाराजाधिराज एवं परमेश्वर जैसी उपाधियाँ उसके नाम के साथ मिलती है।
सम्राट महेन्द्रपाल प्रथम ने विरासत में मिले साम्राज्य की संपूर्ण व्यवस्था कर अपनी सेना एवं सेना सेनाध्यक्षों को विजय अभियान के लिए सजग किया। वह संपूर्ण उत्तरी भारत का एकछत्र सम्राट बनना चाहता था। एक विशेष बात यह थी कि महत्वाकांक्षी होने के वावजूद उसके मन मे विंध्याचल के दक्षिण मे अपने साम्राज्य को विस्तीर्ण करने की कोई आकांक्षा नही थी, अन्यथा यह समय उसके लिए दक्षिण के राज्यों को भी जीत सकने मे सुगम था क्योंकि उसके साम्राज्य के शत्रु राष्ट्रकूट शासक अत्यंत कमजोर थे तथा आपसी युद्धों में संलग्न थे। फिर भी उसने दक्षिण विजय की आकांक्षा पालने के स्थान पर उत्तर भारत में शासन की सुदृढ व्यवस्था एवं प्रजा के हितसंवर्धन में ही अपना ध्यान केंद्रित किया। 23 वर्षों के शासन काल में अपने सहयोगियों एवं मित्रों की संख्या में वृद्धि की, सीमाओं की सुरक्षा - व्यवस्था मजबूत की तथा अपने दोनों शक्तिशाली शत्रुओं -पाल एवं राष्ट्रकूटों की शक्ति एवं आकांक्षाओं को कुंठित किया।
सम्राट महेन्द्रपाल विद्याप्रेमी एवं विद्यानों, साहित्यकारों का आश्रयदाता भी था। उसकी राज्यसभा में संस्कृत का प्रसिद्व विद्वान कविराज राजशेखर रहता था। राजशेखर के प्रसिद्ध ग्रंथ कर्पूरमंजरी में कहा गया है कि वह महेन्द्रपाल प्रतिहार का गुरु था। महेन्द्रपाल प्रथम की मृत्यु के पश्चात वह उसके पुत्र प्रतिहार नरेश महिपाल का भी संरक्षक था।।
डॉ वी के पांडेय लिखते है - जिसका गुरु राजशेखर रहा हो वह योग्य एवं सुनिश्चित सम्राट न रहा हो ऐसा संभव ही नही है। वह विद्वानों का आश्रयदाता एवं साहित्य का संरक्षक था । वह एक शान्तिप्रिय नरेश था। उसने भारत देश के शत्रु अरब, हूण, शक, गुर्जर विदेशी आक्रमणकारियों को अपने पूर्वजों के भांति ही अपनी तलवार से उनका सर काटा था। उसने साथ ही साथ अन्य राजवंश पालवंश की शक्ति को भी क्षीण किया, परंतु राष्ट्रकूटों से जबरदस्ती उसने संघर्ष नहीं किया, जबकि इस समय राष्ट्रकूटों की आंतरिक स्थिति सन्तोषजनक न थी।
डॉ के सी श्रीवास्तव कहते है, " महेन्द्रपाल प्रतिहार न केवल एक विजेता एवं साम्राज्य निर्माता था, अपितु कुशल प्रशासक एवं विद्या और साहित्य का महान संरक्षक भी था।
इस प्रकार विभिन्न स्रोतों के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है की महेन्द्रपाल के शासनकाल में राजनीतिक तथा सांस्कृतिक दोनो ही दृस्टियों से प्रतिहार राजपूत साम्राज्य की अभूतपूर्व प्रगति हुई। कन्नौज ने एक बार पुनः वही गौरव और प्रतिष्ठा प्राप्त कर लिया जो हर्षवर्धन के काल में उसे प्राप्त था। यह नगर जहां हिन्दू सभ्यता एवं संस्कृति का केन्द्र बन गया वहीं कोई परिवर्तन नहीं, शक्ति और सौंदर्य में इसकी बराबरी करने वाला दूसरा नगर नही था। पश्चिमोत्तर एवं पश्चिम सीमा एकदम सुरक्षित रही।
महेन्द्रपाल प्रथम की अंतिम तिथि 907 - 908 ईस्वीं मिलती है। अतः माना जा सकता है कि महेन्द्रपाल की मृत्यु 908 ईस्वीं के लगभग हुई थी।
885 ईस्वीं से 908 ईस्वीं अथवा 910 ईस्वीं का एक ऐसा कालखण्ड था जब सम्राट महेन्द्रपाल प्रतिहार को चुनौती देने वाला भारत ही नही भारत के बाहर भी दुनिया में कोई राज्य नही था। यह एक ऐसा समय था जब सम्राट महेन्द्रपाल प्रथम इतना शक्तिशाली था कि वह उत्तर - पश्चिम एशिया में अपने साम्राज्य का विस्तार कर सकता था। इस साम्राज्य - विस्तार से भविष्य के लिए भी भारत पर किसी आक्रमण की संभावना नही रहती। परंतु ऐसा सोचा ही नही गया क्योंकि भारतीय क्षत्रिय राजपूत शासको की मानसिकता हमेशा सुरक्षात्मक रही है। आक्रमकता की कभी नही रही। वे जीवो और जीने दो के सिद्धांत पर विश्वास करते थे।
Pratihara / Pratihar / Parihar Rulers of india
#Pratihar #Empire #Emperor
#Parihar #History #Kshatriya
#Padhiyar #Mahendrapal #kannauj #Nagod #Mandore #Laxmanwanshi #jalore #Suryawanshi #jaichamunda
प्रतिहार/परिहार/पढ़ियार क्षत्रिय राजपूत वंश
जय माँ चामुण्डा।।
जय क्षात्र धर्म।।
नागौद रियासत।।
आज की यह पोस्ट सूर्यवंशी क्षत्रिय मिहिर भोज प्रतिहार के पुत्र महेंद्रपाल प्रतिहार पर आधारित है।
प्रतिहार राजपूत सम्राट मिहिरभोज की मृत्यु (885 ईस्वीं) के पश्चात् उसका पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम उसके विशाल साम्राज्य का उत्तराधिकारी बना। उसकी माता का नाम चंद्रभट्टारिका देवी था। सम्राट मिहिर ने उसके शिक्षण के लिए उस काल के संस्कृत के महान पण्डित कविराज राजशेखर को नियुक्त किया था। कविराज राजशेखर ने अपनी रचनाओं में महेन्द्पाल को निर्भयराज, निर्भयनरेंद्र रघुकुल चूड़ामणि अथवा रघुकुलतिलक आदि विशेषणों से संबोधित किया है। साथ ही उसके अभिलेखों में महिन्द्रपाल, महेन्द्रायुद्ध एवं महिपाल नाम मिलते है।
सम्राट महेन्द्रपाल प्रतिहार भी अपने पिता मिहिरभोज के समान वीर, पराक्रमी, दूरदृष्टा एवं महत्वाकांक्षी शासक था। अपने पिता से मिले विशाल साम्राज्य की केवल सुरक्षा ही नहीं की अपितु उसे अधिक विस्तृत भी किया। अभिलेखों से जानकारी मिलती है कि उसका साम्राज्य पूर्वी बंगाल से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तक उत्तर पश्चिम् में वर्तमान अफगानिस्तान उत्तर (हिमालय) में कश्मीर से लेकर दक्षिण में विंध्याचल तक विशाल भू - भाग तक फैला हुआ था। उसके अभिलेखों में सम्राट योग्य उपमाएं परम भट्टारक ,महाराजाधिराज एवं परमेश्वर जैसी उपाधियाँ उसके नाम के साथ मिलती है।
सम्राट महेन्द्रपाल प्रथम ने विरासत में मिले साम्राज्य की संपूर्ण व्यवस्था कर अपनी सेना एवं सेना सेनाध्यक्षों को विजय अभियान के लिए सजग किया। वह संपूर्ण उत्तरी भारत का एकछत्र सम्राट बनना चाहता था। एक विशेष बात यह थी कि महत्वाकांक्षी होने के वावजूद उसके मन मे विंध्याचल के दक्षिण मे अपने साम्राज्य को विस्तीर्ण करने की कोई आकांक्षा नही थी, अन्यथा यह समय उसके लिए दक्षिण के राज्यों को भी जीत सकने मे सुगम था क्योंकि उसके साम्राज्य के शत्रु राष्ट्रकूट शासक अत्यंत कमजोर थे तथा आपसी युद्धों में संलग्न थे। फिर भी उसने दक्षिण विजय की आकांक्षा पालने के स्थान पर उत्तर भारत में शासन की सुदृढ व्यवस्था एवं प्रजा के हितसंवर्धन में ही अपना ध्यान केंद्रित किया। 23 वर्षों के शासन काल में अपने सहयोगियों एवं मित्रों की संख्या में वृद्धि की, सीमाओं की सुरक्षा - व्यवस्था मजबूत की तथा अपने दोनों शक्तिशाली शत्रुओं -पाल एवं राष्ट्रकूटों की शक्ति एवं आकांक्षाओं को कुंठित किया।
सम्राट महेन्द्रपाल विद्याप्रेमी एवं विद्यानों, साहित्यकारों का आश्रयदाता भी था। उसकी राज्यसभा में संस्कृत का प्रसिद्व विद्वान कविराज राजशेखर रहता था। राजशेखर के प्रसिद्ध ग्रंथ कर्पूरमंजरी में कहा गया है कि वह महेन्द्रपाल प्रतिहार का गुरु था। महेन्द्रपाल प्रथम की मृत्यु के पश्चात वह उसके पुत्र प्रतिहार नरेश महिपाल का भी संरक्षक था।।
डॉ वी के पांडेय लिखते है - जिसका गुरु राजशेखर रहा हो वह योग्य एवं सुनिश्चित सम्राट न रहा हो ऐसा संभव ही नही है। वह विद्वानों का आश्रयदाता एवं साहित्य का संरक्षक था । वह एक शान्तिप्रिय नरेश था। उसने भारत देश के शत्रु अरब, हूण, शक, गुर्जर विदेशी आक्रमणकारियों को अपने पूर्वजों के भांति ही अपनी तलवार से उनका सर काटा था। उसने साथ ही साथ अन्य राजवंश पालवंश की शक्ति को भी क्षीण किया, परंतु राष्ट्रकूटों से जबरदस्ती उसने संघर्ष नहीं किया, जबकि इस समय राष्ट्रकूटों की आंतरिक स्थिति सन्तोषजनक न थी।
डॉ के सी श्रीवास्तव कहते है, " महेन्द्रपाल प्रतिहार न केवल एक विजेता एवं साम्राज्य निर्माता था, अपितु कुशल प्रशासक एवं विद्या और साहित्य का महान संरक्षक भी था।
इस प्रकार विभिन्न स्रोतों के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है की महेन्द्रपाल के शासनकाल में राजनीतिक तथा सांस्कृतिक दोनो ही दृस्टियों से प्रतिहार राजपूत साम्राज्य की अभूतपूर्व प्रगति हुई। कन्नौज ने एक बार पुनः वही गौरव और प्रतिष्ठा प्राप्त कर लिया जो हर्षवर्धन के काल में उसे प्राप्त था। यह नगर जहां हिन्दू सभ्यता एवं संस्कृति का केन्द्र बन गया वहीं कोई परिवर्तन नहीं, शक्ति और सौंदर्य में इसकी बराबरी करने वाला दूसरा नगर नही था। पश्चिमोत्तर एवं पश्चिम सीमा एकदम सुरक्षित रही।
महेन्द्रपाल प्रथम की अंतिम तिथि 907 - 908 ईस्वीं मिलती है। अतः माना जा सकता है कि महेन्द्रपाल की मृत्यु 908 ईस्वीं के लगभग हुई थी।
885 ईस्वीं से 908 ईस्वीं अथवा 910 ईस्वीं का एक ऐसा कालखण्ड था जब सम्राट महेन्द्रपाल प्रतिहार को चुनौती देने वाला भारत ही नही भारत के बाहर भी दुनिया में कोई राज्य नही था। यह एक ऐसा समय था जब सम्राट महेन्द्रपाल प्रथम इतना शक्तिशाली था कि वह उत्तर - पश्चिम एशिया में अपने साम्राज्य का विस्तार कर सकता था। इस साम्राज्य - विस्तार से भविष्य के लिए भी भारत पर किसी आक्रमण की संभावना नही रहती। परंतु ऐसा सोचा ही नही गया क्योंकि भारतीय क्षत्रिय राजपूत शासको की मानसिकता हमेशा सुरक्षात्मक रही है। आक्रमकता की कभी नही रही। वे जीवो और जीने दो के सिद्धांत पर विश्वास करते थे।
Pratihara / Pratihar / Parihar Rulers of india
#Pratihar #Empire #Emperor
#Parihar #History #Kshatriya
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प्रतिहार/परिहार/पढ़ियार क्षत्रिय राजपूत वंश
जय माँ चामुण्डा।।
जय क्षात्र धर्म।।
नागौद रियासत।।
शानदार लेख
ReplyDeleteइस अमूल्य जानकारी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद हुक्म