राजधानी बनाकर एक शक्तिशाली परिहार राज्य की नींव डाली। आइए जानते हैं।
नागौद राजघराने के वर्तमान युवराज श्रीमंत शिवेन्द्र प्रताप सिंह जूदेव से बातचीत करने के मुताबिक पता चला कि कैसे उनके पूर्वज कन्नौज से आकर यहां एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की एवं यहां से पाए गए पुरातत्व विभाग को ताम्रपत्रों, शिलालेखों में मिहिर भोज एवं वाराहवतार भगवान विष्णु जी का वर्णन मिलना पाया गया है। जिससे साफ साफ पता चलता है कि नागौद के प्रतिहार मिहिर भोज के वंशज है। जिसकी पुष्टि सभी लेख व ताम्रपत्र कर रहे हैं। और आप सभी इस पोस्ट की पिक्चर मे नागौद राज्य के चिन्ह (सिंबल) पर वाराह पशु (जंगली सुअर) एवं कन्नौज के प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज के शासन काल में चलाए गए चांदी के सिक्कों पर साफ साफ वाराहवतार विष्णु जी की प्रतिमा बनी देख सकते हैं। जिससे यह पूर्णतः सिद्ध हो चुका है कि नागौद के प्रतिहार मिहिर भोज के वंशज है। युवराज साहब से बात करके मालूम पडा कि कैसे उनके पूर्वजों ने अरबों एवं मुगलों से हाथों हाथ युद्ध किए जिससे यह भारत देश अरबियों से बचा है। अगर भारत में अरबी लोग नहीं उसका कारण केवल प्रतिहार राजपूत ही है जिनसे उनके पूर्वज 300 वर्षो तक लडे और सफल हुए। इसीलिए प्रतिहारों को ईसलाम का सबसे बड़ा शत्रु बताया गया है। उन्होंने बताया कि कैसे 1947 आजादी के पहले उनके राज्य के समय किसी मुगली समुदाय के व्यक्ति को किले के अंदर प्रवेश करने का अधिकार न था। और न ही उनके पिताजी महाराज साहब के सामने आने का था। युवराज साहब ने कहा कि हम क्षत्रिय शिरोमणि रघुकुल नंदन सूर्यवंशी राजा रामचन्द्र जी के वंशज है। और हम प्रतिहारों का निकास भी रामचन्द्र जी के अनुज लक्ष्मण जी से हुआ है जिसकी पुष्टि मण्डौर, जालौर, कन्नौज, उज्जैन,ग्वालियर नागौद के शिलालेखों से हो चुकी है। उन्होंने बताया कि लक्ष्मण जी तो ईश्वर रुपी थे पर प्रतिहार वंश में राजा हरिश्चन्द्र, नागभट्ट, मिहिर भोज, वत्सराज, महेन्द्रपाल, वीरराजदेव ये बहुत ही पराक्रमी महान वीर योद्धा शासक हुये। जो हमेशा सनातन धर्म की रक्षा, संस्कृति, परंपरा एवं अपनी प्रजा के लिए लडे। उन्होंने कहा कि जितना सोध इतिहासकारों ने प्रतिहार राजपूत वंश पर किया है शायद ही उतना अन्य राजपूत वंशो का किया हो। उन्होंने फिर दुखित होकर यह भी कहा कि कुछ इतिहासकारों के फर्जी और बनावटी शोध करने के कारण ही है कि किसी इतिहासकार ने प्रतिहारों को गुर्जर माना और किसी ने विदेशी और किसी ने यहां तक कह दिया कि ये प्रतिहार राजपूत हूणों, शकों के साथ भारत आये जिसकी वजह से दिल्ली, ग्वालियर, राजस्थान के गुज्जर जाति के लोग हमे और हमारे पूर्वज मिहिर भोज जी को गुज्जर विदेशी घोषित करने मे लगे हैं। जो सरासर गलत है। रेफरेंस के तौर पर उन्होंने गल्लका अभिलेख की चर्चा की जिसमें कैसे प्रतिहार राजपूतों के शौर्य का वर्णन किया गया है। जिसमें कैसे प्रतिहारों ने गुर्जरात्रा प्रदेष से गुज्जरों को खदेडा था। एवं प्रसिद्ध इतिहासकार और जाने माने लेखक बी. एन. मुंशी पहले ही साबित कर चुके है कि गुर्जरात्रा प्रदेश से आकर राजौरगढ़ बसी हुई प्रतिहार शाखा गुर्जरात्रा के नागरिक होने के कारण ही गुर्जर प्रतिहार कहलाये और जो भी व्यक्ति गुर्जरात्रा क्षेत्र से अन्य जगह जाता वह गुर्जर ही कहलाता था। गुर्जरात्रा देश में प्रतिहार राजपूतों के अलावा अन्य क्षत्रिय राजपूत वंशो ने भी शासन किया जैसे चावड़ा, चालुक्य, राठौड़ और इतिहास में उनके साथ भी इतिहासकारों ने गुर्जर शब्द प्रयोग किया है पर वह शुद्ध क्षत्रिय राजपूत वंश है तभी आज भी गुर्जरात्रा के पास गुर्जर ब्राह्मण, गुर्जर वैश्य, गुर्जर कुर्मी, खाटी, लोहार, नाई, धोबी आदि पाये जाते हैं जिन्हें गुर्जर ही कहा जाता है। जिससे साबित होता है कि यह केवल स्थान सूचक शब्द है जिसे जोड तंगोड कर जाति सूचक बताया जा रहा है।
आइए अब हम सब जानते हैं कैसे सम्राट मिहिर भोज के वंशज प्रतिहार राजपूतों का आगमन हुआ इस विंध्य क्षेत्र में। उचेहरा में प्रतिहार सत्ता की स्थापना 14 वीं शताब्दी में हुई थी 13 वीं शताब्दी में यहाँ तैलव तेली (शूद्र) राजाओं का राज्य था, वे प्रजा को आतंकित कर त्रस्त कर रखा था, रानियों के साथ भी अत्याचार किया जाता था उन्हें सही सलामत नहीं बक्सा गया था इनका सामना करने के लिए मण्डौर राजा ककुक्क परिहार की सातवीं पीढ़ी में राजकुमार वीरराजदेव हुआ, वह बड़ा तेजस्वी एवं महत्वाकांक्षी था उसे कन्नौज साम्राज्य के अधीन एक सामंत बनकर रहना पसंद नहीं था वह साम्राज्य से विद्रोह तो नहीं करना चाहता था पर एक स्वतंत्र राजा बनकर राज करने की प्रबल आकांक्षा रही, उसने अपने इस निश्चय को साकार रूप देने का निश्चय किया और अपने साथ चुने हुए राजपूतों को लेकर सन 1320 में मण्डौर को छोड़ दिया और कैमोर की ओर एक नये राज्य की स्थापना के लिए चल पड़ा |
इस समय चन्देलों का प्रभाव छीड़ हो रहा था, केन नदी के किनारे दायें तट पर मऊ आदि गाँवों में इधर - उधर से आकर अनेक प्रतिहार राजपूत परिवार दल बस गए थे इन्ही के संपर्क में आकर वीरराजदेव प्रतिहार और उनके साथियों के साथ कोट गांव में ठहर गए, सिंगोरगढ़ एक छोटा सा राज्य था, जिसका निर्माण राजा गज सिंह ने करवाया था। वहीँ के प्रतिहार राजा कोतपाल देव ने वीरराजदेव को बुलवाया उसकी तेजस्विता और बुद्धि से कोतपाल ने पहले तो उसे आमात्य का पद दिया और उसके सभी साथियों को सेना में रख लिया, कोतपाल देव निःसंतान था, अस्तु वीरराजदेव प्रतिहार को अपना वारिस भी बना दिया, सत्ता हाँथ में पाते ही मौका देखकर वीरराजदेव प्रतिहार और उसके साथियों ने नरो दुर्ग को अपने अधिकार में ले लिया और वही अपना आवास बनाया वीरराजदेव प्रतिहार ने (1330- 1340) दस साल के अंतराल में सिंगोरगढ़ राज्य को व्यवस्थित किया और नरो दुर्ग की मरमत्त करा ली, इधर उत्तरी भारत में तुर्कों का उत्पात अपनी चरम सीमा पर था, वे सारे देश में लूट - पाट, मार काट मचा रहे थे सन 1340 में मुहम्मद बिन तुगलक ने सिंगोरगढ़ पर आक्रमण कर दिया - सारा राज्य लूट लिया नगर जला दिया और नरो दुर्ग को तुर्कों ने अपने हवाले कर लिया |
वीरराजदेव प्रतिहार और उसकी छोटी सी राजपूती सेना, तुर्कों की विशाल सेना का सामना न कर कैमोर तराई की ओर चली आई इस समय लूक के राजा हम्मीरदेव और कडौली के राजा देवक के बीच लुका छिपी लड़ाई चल रही थी, कैमोर क्षेत्र की न तो किसी की दृस्टि थी और न ध्यान दिया गया इसका लाभ उठाकर प्रतिहार दल उचेहरा की ओर बढ़ चला और अक्षय तृतीया संवत 1381 दिन सोमवार को प्रतापी राजा वीरराजदेव प्रतिहार पुत्र विशालदेव प्रतिहार ने मान्थ पिलासी राजा धार सिंह का वध कर प्रतिहार राज्य स्थापित किया, वे उचेहरा (उच्चकल्प) राज्य के प्रथम शासक थे उचेहरा राज्य की स्थापना का काल वीरता का युद्ध था, वीर पुरुष शासन के अधिकारी थे वे बरछी, तीर, तलवार, कटारे और गदाएँ ऐसे ही अनेक अस्त्र शस्त्र प्रसिद्द थे हांथी, घोडा, पालकियाँ उस समय सवारी हुआ करती थी, आमने सामने की लड़ाई में बाहुबल ही काम आता था, वीरता राजाओं का आभूषण हुआ करती थी उचेहरा के प्रतिहार शासकों में महाराजाधिराज वीरराजदेव प्रतिहार सर्वाधिक शक्तिशाली राजा थे जिन्होंने एक विस्तृत भू - भाग पर प्रतिहार सत्ता स्थपित की |
वीरराजदेव प्रतिहार जब खोह राज्य अर्थात उचेहरा में आये तब उचेहरा के पास एक गढ़ में तेली लोग जमे थे - उसे तेलिया गढ़ नाम देकर स्वयं को राजा बना लिए थे एक रात जब तेली लोग मदांध होकर नाच गा रहे थे - वीरराजदेव प्रतिहार ने अपने साथियों को लेकर उन पर आक्रमण कर दिया प्रतिहार राजपूतों के डर से तेली लोग ऐसे भागे की गढ़ से अपना डेरा - सामना भी नहीं ले सके प्रातः काल तेलिया गढ़ पर प्रतिहार राजपूतों के सरदार वीरराजदेव प्रतिहार का झंडा लहरा उठा यह राज्य बहुत छोटा था किन्तु गढ़ में धन सम्पदा पर्याप्त थी जिससे वीरराजदेव प्रतिहार ने एक सेना का गठन कर लिया और धीरे धीरे खोह राज्य का विस्तार कर लिया अतः इस प्रकार 1341- 1345 ई. के मध्य वीरराजदेव प्रतिहार ने उचेहरा में स्वतंत्र राज्य स्थपित किया, उपरोक्त स्थानों में पाये गए उनके शिलालेखों के आधार पर उनका राज्य महाकौशल वर्तमान जबलपुर जिला कटनी की तहसील सतना जिला की मैहर, नागौद, रघुराजनगर, अमरपाटन तहसीलें एवं रीवा पठार तक फैला हुआ था |
वीरराजदेव प्रतिहार भट्टा - गहोरा के राजा बुल्लारदेव बाघेला का समकालिक था, इस तरह से उचेहरा में प्रतिहार सत्ता की स्थापना ओर विस्तार हुआ। लगभग 1357 ई. में वीरराजदेव प्रतिहार की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी महाराजा जुगराजदेव प्रतिहार हुए, इसके पश्चात क्रमशः महाराजा धार सिंह, महाराजा किशनदास सिंह का संवत 1423 में राज्य की सत्ता बागडोर संभाली थी, तब खोह एक वास्तविक राज्य था, किशनदास का एक राजा की भांति परंपरागत राज्याभिषेक किया गया था |
सुरजपुर गो जब अवनिपति धारा सिंह सुरेश ||
किशनदास राजाभयो तिहि सम्यत वेश ||
चौदह सौ तेईस में बैठयो जुकि गद्दिहि ||
महाराजा किशनदास के पश्चात महाराजा विक्रमादित्य देव राजा हुए तत्पश्चात महाराजा सूरजपाल सिंह राजा हुए जिन्हे सूरजमल भी कहा जाता है इस समय तक उचेहरा राज्य वर्तमान उचेहरा से लगभग तीन किलोमीटर दूर था जिसे उच्चकल्प कहा जाता था, आज जिसे खोह कहते है, उसकी राजधानी कुटरा थी |
अतः महाराजा सूरजपाल देव के पश्चात महाराजा भोजपाल सिंह (भोजराज) का शासन प्रारम्भ होता है राजा भोजराज ने 1478 ई. में वर्तमान उचेहरा नगर स्थापित किया और इसे अपनी राजधानी बनायीं, भोजराज का शासन काल व्यवस्था का काल था उसने निष्कंटक शासन किया, उसने उचेहरा (उच्चकल्प) के दुर्ग की मरम्मत कराई बरुआ नदी के पश्चिम एक सुन्दर किले का निर्माण करवाया - नगर में एक सरोवर और बावली बनवाई गहोरा के तत्कालीन राजा भैदचन्द बाघेला से एक अयुद्ध संधि करी जिसके अंतर्गत उसे घटैया की गढ़ी मिल गयी, भोजराज के शासन के अंतिम समय तक उचेहरा एक संपन्न और बड़ा राज्य बन गया था । इनके बाद महाराजा कर्ण सिंह, महाराजा नरेंद्र सिंह, महाराजा भारत सिंह, महाराजा पृथ्वीराज सिंह, महाराजा फकीर सिंह, यहां तक के महाराजाओं के समय राज्य का काफी विस्तार हुआ जिससे विंध्य क्षेत्र मे उचेहरा को उप राजधानी बनाकर नागौद को प्रतिहारों की मुख्य राजधानी घोषित किया गया।
आइए अब जानते हैं प्रतिहारों की नई मुख्य राजधानी के बारे में नागौद की स्थापना सन् 1742 ई. मे हुई। नागौद अमरन नदी के तट पर बसा हुआ है पुराने समय मे नागौद का छेत्र"विन्ध्याटवी" के नाम से प्रसिद्ध था नागौद राजधानी की स्थापना महाराजा फकीर शाह के द्वितीय पुत्र महाराजा चैन सिंह ने अपने शासन के अंतिम काल अर्थात 1742 सन् 1748 के मध्य नागौद को बसाने एवं राज्य को सुव्यस्थित करने का प्रशंसनीय कार्य किया था। इसके पहले प्रतिहारों की मुख्य राजधानी उंचेहरा थी क्योंकी प्रतिहारों का राज्य विस्तार हो रहा था तो मध्य मे एक ओर किले का निर्माण किया गया। नागौद वर्तमान में मध्यप्रदेश के सतना जिले के रीवा से पन्ना मार्ग पे सतना से 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। महाराजा फकीर सिंह के पुत्र महाराजा चैन सिंह, हुए इनके बाद महाराजा अहलाद सिंह, महाराजा शिवराज सिंह, महाराजा बलभद्र सिंह, महाराजा राघवेंद्र सिंह, महाराजा यादवेंद्र सिंह, महाराजा नरहरेंद्र सिंह, महाराजा महेन्द्र सिंह, इस् तरह आने वाली सभी वंशजो से अंतिम महाराजा रूद्रेन्द्र प्रताप सिंह जूदेव ने प्रतिहार राज्य नागौद का राजपाट अति स्मरणीय ढंग से संभाला।। नागौद रियासत के समय राज्य के अंतर्गत लगभग एक हजार से भी ज्यादा गांव थे। और क्षेत्रफळ एक हजार तीन सौ किलोमीटर माइलस का था। नागौद रियासत मे 24 महाराजाओं ने शासन किया और वर्तमान में युवराज शिवेंद्र प्रताप सिंह जू देव जी ने अतिस्मरणीय ढंग से पूर्वजो की विरासत को संभाला हुआ है।।
नागौद रियासद के हमारे पूर्वज भी थे हम लोग नागवंशी क्षत्रिय सोनी कहलाते है
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