~~~ मंडौर राज्य ~~~
~~~ परिहार राजपूतों का इतिहास ~~~
प्रतिहार परिहार क्षत्रियों के मण्डौर राज्य का इतिहास मण्ड़ोर दुर्ग मंडौर जोधपुर की स्थापना से पूर्व मारवाड़ की राजधानी थी। मण्ड़ोर का नाम प्राचीन काल में मांडव्यपुर था, जो माण्डव्य ॠषि के नाम पर पड़ा था। घटियाला से प्राप्त शिलालेख से ज्ञात होता है कि मण्डोर दुर्ग का निर्माण ७ वीं शताब्दी के पूर्व हो चुका था। शिलालेखों के अनुसार विप्र हरिचन्द्र परिहार के पुत्रों ने मण्डौर पर अधिकार कर लिया तथा ६२३ ई० में उन्होंने इसके चारों ओर दीवार बनवाई। मण्डोर दुर्ग के अवशेष आज भी विद्यमान हैं। यह दुर्ग एक पहाड़ी के शिखर पर स्थित था, जिसकी ऊँचाई ३०० से ३५० फुट थी। यह दुर्ग आज खंड़हर हो चुका है। कुछ खण्डहरों के नीचे पड़ा है तथा कुछ विघटित अवस्था में है। विघटित अवस्था में विद्यमान दुर्ग को देखकर यद्यपि उसकी वास्तविक निर्माण विधि का पूरा आकलन नही किया जा सकता तथापि इस विषय में कुछ अनुमान अवश्य लगाया जा सकता है। पहाड़ी पर स्थित इस दुर्ग के चारों ओर पाषाण निर्मित दीवार थी। दुर्ग में प्रवेश करने के लिए एक मुख्य मार्ग था। दुर्ग की पोल पर लकड़ी से निर्मित
विशाल दरवाजा था। दुर्ग के शासकों के निवास के लिए महल, भण्डार, सामंतो व अधिकारियों के भवन आदि बने हुए थे। जिस मार्ग द्वारा नीचे से पहाड़ी के ऊपर किले तक पहुँचा जाता था वह उबड़-खाबड़ था। किले की प्राचीर में जगह-जगह चौकोर छिद्र बने हुए थे। मण्ड़ोर को दुर्ग सामरिक सुरक्षा की दृष्टि से तात्कालीन समय में काफी सुदृढ़ एवं महत्वपूर्ण समझा जाता था। इसके कारण शत्रु की सेना को पहाड़ी पर अचानक चढ़ाई करने में काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता था। दुर्ग में प्रवेश-द्वार इस तरह से निर्मित किए गए थे कि उन्हें तोड़ना शत्रु के लिए असंभव सा था। किले में पानी की प्रयाप्त व्यवस्था होती थी जिससे
आक्रमण के समय सैनिकों एवं रक्षकों को जल की
कमी का सामना नही करना पड़े। इस दुर्ग की प्राचीर चौड़ी एवं सुदृढ़ थी। दुर्ग के पास ही एक विशाल जलाशय का निर्माण करवाया गया था। इस जलाशय की सीढियों पर नाहरदेव नाम अंकित है जो मण्ड़ोर का अंतिम परिहार राजपूत शासक था। दुर्ग की दीवारें पहाड़ी के शीर्ष भाग से ऊपर उठी हुई थीं। बीच के समुन्नत भाग पर विशाल महल बने थे जो नीचे के मैदानों पर छाये हुए थे। मण्ड़ोर दुर्ग के बुर्ज गोलाकार न होकर अधिकांशत: चौकोर थे, जैसे कि अन्य प्राचीन दुर्गों में मण्ड़ोर दुर्ग ७८३ ई० तक परिहार राजपूत शासकों के अधिकार में रहा। इसके बाद नाड़ोल के चौहान शासक रामपाल ने मण्ड़ोर दुर्ग पर अधिकार कर लिया था। १२२७ ई० में गुलाम वंश के शासक इल्तुतनिश ने मण्ड़ोर पर अधिकार कर लिया। यद्यपि परिहार शासकों ने तुर्की आक्रांताओं का डट कर सामना किया पर अंतत: मण्ड़ोर तुर्कों के हाथ चला गया। लेकिन तुर्की आक्रमणकारी मण्ड़ोर को लम्बे समय तक अपने अधिकार में नही रख सके एंव दुर्ग पर पुन: प्रतिहारों का अधिकार हो गया। १२९४ ई० में फिरोज खिलजी ने परिहारों को
पराजित कर मण्ड़ोर दुर्ग अधिकृत कर लिया, परंतु
१३९५ ई० में परिहारों की इंदा शाखा ने दुर्ग पर
पुन: अधिकार कर लिया। इन्दों ने इस दुर्ग को चूंडा राठौड़ को सौंप दिया जो एक महत्वाकांक्षी शासक था। उसने आस-पास के कई प्रदेशों को अपने अधिकार में कर लिया। १३९६ ई० में गुजरात के फौजदार जफर खाँ ने मण्ड़ोर पर आक्रमण किया। एक वर्ष के निरंतर घेरे के उपरांत भी जफर खाँ को मंडोर पर अधिकार करने में सफलता नही मिली और उसे विवश होकर घेरा उठाना पड़ा। १४५३ ई० में राव जोधा ने मण्डोर दुर्ग पर आक्रमण किया। उसने मरवाड़ की राजधानी मण्डोर से स्थानान्तरित करके जोधपुर ले जाने का निर्णय लिया। राजधानी हटने के कारण मण्ड़ोर दुर्ग धीरे-धीरे वीरान होकर खंडहर में तब्दील हो गया।।
मण्डौर राजस्थान के जिला जोधपुर के अंतर्गत जिला मुख्यालय से लगभग 6 कि. मी. की दूरी पर बसा था| इस स्थान पर वर्तमान में मण्डौर नगर के अवशेस मात्र है । यह स्थान पौराणिक काल में लंकापति रावण की धर्मपत्नी मंदोदरी का पीहर था , अर्थात रावण की ससुराल कहे जाने वाले मण्डौर के भग्र किले की खुदाई में एक प्राचीन मंदिर का गर्भ , सभामंडप , परिक्रमा स्थल सहित नवी दसवी शताब्दी की दुर्लभ गजलक्ष्मी की प्रतिमा मिली है|
इतिहासकार इसे प्रतिहारों का राज्य मानते है क्योंकि यहाँ सर्वाधिक प्रतिहार शासक ही रहे है । मण्डौर में सर्वप्रथम प्रतिहार राजा हरिचंद्र हुए। क्षत्राणी रानी भद्रा प्रतिहार से उत्पन्न हुए पुत्र अपनी महत्वाकांक्षा को रोक न सके चारो क्षत्रिय कुमारो ने मण्डौर का दुर्ग जीतकर उसकी प्राचीरों को ऊँचा किया इस प्रतिहार सत्ता का प्रारम्भ " मेढ़ता " से हुआ । मण्डौर मेढ़ता राज्य के नाम से स्थापित घटियाला अभिलेख से प्राप्त होता है की प्रथम परिहार राज्य का संस्थापक रज्जिल परिहार था। उसने मेढ़ता और मरूडाम में नवीन दुर्गो की रचना करवाई और अपने तीनो भाइयों की सहायता से सैन्य संगठन किया - समीपवर्ती 6 राज्यों को को विजित कर लिया । शासन व्यवस्था सुदृण हो जाने पर अपने जीवनकाल में ही अपने पुत्र नरभट परिहार का राज्य तिलक बड़े समारोह के साथ करवाया |
कर्नल टाड ने अपने राजस्थान के इतिहास में उल्लेख किया है की प्रतिहारों का प्रादुर्भाव आदि में मण्डौर से हुआ है । किन्तु बात तब की है जब मण्डौर का राजा मुकुल परिहार था । उसकी सिंसोंध में बाड़ के राजा से प्रतिदंद्विता थी, उस समय शक्ति परीक्षण का युग था ।" जिसकी लाठी उसी की भैंस " राहुप ने मण्डौर पे चढ़ाई कर मुकुल परिहार को बंदी बना सिंसोंध ले आया था । मुकुल से राणा की उपाधि तथा एक नगर जोहबाढ़ लेकर उसे मुक्त कर दिया । स्वयं राहुप राणा की उपाधि धारण करने लगा । राहुप सिंसोंध के जागीरदार माहप का अनुज था |
राणा की उपाधि की पुष्टि गौरीशंकर हरिचंद्र ओझा लिखित राजपूत का इतिहास के इस अंश से भी होती है की बाउक प्रतिहार को राणा की उपाधि से विभूषित किया गया था । मण्डौर के प्रतिहारों से ली हुई राणा की पदवी के कारण ही कालांतर में चितौड़ के सिंसोंदिया शासक महाराणा कहलाने लगे । अंतिम मण्डौर शासक हम्मीर जिसे चारडो ने राणा लिखा है , राठौर चूड़ा ने 1394 ई. में दुर्ग छीना था । अतः उपर्युक्त पंक्तियों में हम स्पस्ट कर चुके है की प्रतिहार सत्ता का प्रादुर्भाव मण्डौर से हुआ । मण्डौर के प्रतिहारों की ज्येष्ठ शाखा गुजरत्रा क्षेत्र का जालौर था । भिनमाल में राजधानी स्थापित कर शासन करने की पुष्टि इतिहासकारों के मतानुसार होती है
डा. के. सी. जैन ने अपनी पुस्तक राजपूतों के इतिहास में मत सहमत किया है की इस शाखा की स्थापना राजा हरिचंद्र के द्वारा की गयी है । इसने अपना राज्य राजपूताना में जोधपुर के आस पास 550 ई. के लगभग स्थापित किया था इससे लगभग 850 ई. के राजाओं का अल्प सक्षिप्त इतिहास प्राप्त होता है |
भगवान श्रीराम के अनुज लक्ष्मण ने ही प्रतिहार का कार्य किया था । इसीलिए यह वंश परिहार वंश के नाम से विख्यात हुआ । यही तथ्य कुकुक्क के घटियाला अभिलेख में भी दोहराया गया है । " उपर्युक्त दोनों अभिलेखों से प्रतिहार वंश के आद्य पुरुष हरिचंद्र को विप्र कहा गया । क्षत्रिय राजा हरिचंद्र के लिए 'विप्र' शब्द का उपयोग उल्लेखनीय है । वृह दोरण्य कोपनिषद् के अनुसार सबसे पहले क्षत्रिय हुए और उनके बाद अन्य वर्णों का जनम हुआ । इसी प्रकार ब्रजसूचिकोपनिषद् में निम्नांकित श्लोक मिलता है |
जन्मना जायते शूद्र संस्काराद्विज ऊचयते ।।
वेदपाठ वदेः विप्रः ब्रम्हा जानाति ब्राहाडाः ।।
मंडौर राज्य।।
परिहार राजपूत।।
नागौद रियासत।।
~~~ परिहार राजपूतों का इतिहास ~~~
प्रतिहार परिहार क्षत्रियों के मण्डौर राज्य का इतिहास मण्ड़ोर दुर्ग मंडौर जोधपुर की स्थापना से पूर्व मारवाड़ की राजधानी थी। मण्ड़ोर का नाम प्राचीन काल में मांडव्यपुर था, जो माण्डव्य ॠषि के नाम पर पड़ा था। घटियाला से प्राप्त शिलालेख से ज्ञात होता है कि मण्डोर दुर्ग का निर्माण ७ वीं शताब्दी के पूर्व हो चुका था। शिलालेखों के अनुसार विप्र हरिचन्द्र परिहार के पुत्रों ने मण्डौर पर अधिकार कर लिया तथा ६२३ ई० में उन्होंने इसके चारों ओर दीवार बनवाई। मण्डोर दुर्ग के अवशेष आज भी विद्यमान हैं। यह दुर्ग एक पहाड़ी के शिखर पर स्थित था, जिसकी ऊँचाई ३०० से ३५० फुट थी। यह दुर्ग आज खंड़हर हो चुका है। कुछ खण्डहरों के नीचे पड़ा है तथा कुछ विघटित अवस्था में है। विघटित अवस्था में विद्यमान दुर्ग को देखकर यद्यपि उसकी वास्तविक निर्माण विधि का पूरा आकलन नही किया जा सकता तथापि इस विषय में कुछ अनुमान अवश्य लगाया जा सकता है। पहाड़ी पर स्थित इस दुर्ग के चारों ओर पाषाण निर्मित दीवार थी। दुर्ग में प्रवेश करने के लिए एक मुख्य मार्ग था। दुर्ग की पोल पर लकड़ी से निर्मित
विशाल दरवाजा था। दुर्ग के शासकों के निवास के लिए महल, भण्डार, सामंतो व अधिकारियों के भवन आदि बने हुए थे। जिस मार्ग द्वारा नीचे से पहाड़ी के ऊपर किले तक पहुँचा जाता था वह उबड़-खाबड़ था। किले की प्राचीर में जगह-जगह चौकोर छिद्र बने हुए थे। मण्ड़ोर को दुर्ग सामरिक सुरक्षा की दृष्टि से तात्कालीन समय में काफी सुदृढ़ एवं महत्वपूर्ण समझा जाता था। इसके कारण शत्रु की सेना को पहाड़ी पर अचानक चढ़ाई करने में काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता था। दुर्ग में प्रवेश-द्वार इस तरह से निर्मित किए गए थे कि उन्हें तोड़ना शत्रु के लिए असंभव सा था। किले में पानी की प्रयाप्त व्यवस्था होती थी जिससे
आक्रमण के समय सैनिकों एवं रक्षकों को जल की
कमी का सामना नही करना पड़े। इस दुर्ग की प्राचीर चौड़ी एवं सुदृढ़ थी। दुर्ग के पास ही एक विशाल जलाशय का निर्माण करवाया गया था। इस जलाशय की सीढियों पर नाहरदेव नाम अंकित है जो मण्ड़ोर का अंतिम परिहार राजपूत शासक था। दुर्ग की दीवारें पहाड़ी के शीर्ष भाग से ऊपर उठी हुई थीं। बीच के समुन्नत भाग पर विशाल महल बने थे जो नीचे के मैदानों पर छाये हुए थे। मण्ड़ोर दुर्ग के बुर्ज गोलाकार न होकर अधिकांशत: चौकोर थे, जैसे कि अन्य प्राचीन दुर्गों में मण्ड़ोर दुर्ग ७८३ ई० तक परिहार राजपूत शासकों के अधिकार में रहा। इसके बाद नाड़ोल के चौहान शासक रामपाल ने मण्ड़ोर दुर्ग पर अधिकार कर लिया था। १२२७ ई० में गुलाम वंश के शासक इल्तुतनिश ने मण्ड़ोर पर अधिकार कर लिया। यद्यपि परिहार शासकों ने तुर्की आक्रांताओं का डट कर सामना किया पर अंतत: मण्ड़ोर तुर्कों के हाथ चला गया। लेकिन तुर्की आक्रमणकारी मण्ड़ोर को लम्बे समय तक अपने अधिकार में नही रख सके एंव दुर्ग पर पुन: प्रतिहारों का अधिकार हो गया। १२९४ ई० में फिरोज खिलजी ने परिहारों को
पराजित कर मण्ड़ोर दुर्ग अधिकृत कर लिया, परंतु
१३९५ ई० में परिहारों की इंदा शाखा ने दुर्ग पर
पुन: अधिकार कर लिया। इन्दों ने इस दुर्ग को चूंडा राठौड़ को सौंप दिया जो एक महत्वाकांक्षी शासक था। उसने आस-पास के कई प्रदेशों को अपने अधिकार में कर लिया। १३९६ ई० में गुजरात के फौजदार जफर खाँ ने मण्ड़ोर पर आक्रमण किया। एक वर्ष के निरंतर घेरे के उपरांत भी जफर खाँ को मंडोर पर अधिकार करने में सफलता नही मिली और उसे विवश होकर घेरा उठाना पड़ा। १४५३ ई० में राव जोधा ने मण्डोर दुर्ग पर आक्रमण किया। उसने मरवाड़ की राजधानी मण्डोर से स्थानान्तरित करके जोधपुर ले जाने का निर्णय लिया। राजधानी हटने के कारण मण्ड़ोर दुर्ग धीरे-धीरे वीरान होकर खंडहर में तब्दील हो गया।।
मण्डौर राजस्थान के जिला जोधपुर के अंतर्गत जिला मुख्यालय से लगभग 6 कि. मी. की दूरी पर बसा था| इस स्थान पर वर्तमान में मण्डौर नगर के अवशेस मात्र है । यह स्थान पौराणिक काल में लंकापति रावण की धर्मपत्नी मंदोदरी का पीहर था , अर्थात रावण की ससुराल कहे जाने वाले मण्डौर के भग्र किले की खुदाई में एक प्राचीन मंदिर का गर्भ , सभामंडप , परिक्रमा स्थल सहित नवी दसवी शताब्दी की दुर्लभ गजलक्ष्मी की प्रतिमा मिली है|
इतिहासकार इसे प्रतिहारों का राज्य मानते है क्योंकि यहाँ सर्वाधिक प्रतिहार शासक ही रहे है । मण्डौर में सर्वप्रथम प्रतिहार राजा हरिचंद्र हुए। क्षत्राणी रानी भद्रा प्रतिहार से उत्पन्न हुए पुत्र अपनी महत्वाकांक्षा को रोक न सके चारो क्षत्रिय कुमारो ने मण्डौर का दुर्ग जीतकर उसकी प्राचीरों को ऊँचा किया इस प्रतिहार सत्ता का प्रारम्भ " मेढ़ता " से हुआ । मण्डौर मेढ़ता राज्य के नाम से स्थापित घटियाला अभिलेख से प्राप्त होता है की प्रथम परिहार राज्य का संस्थापक रज्जिल परिहार था। उसने मेढ़ता और मरूडाम में नवीन दुर्गो की रचना करवाई और अपने तीनो भाइयों की सहायता से सैन्य संगठन किया - समीपवर्ती 6 राज्यों को को विजित कर लिया । शासन व्यवस्था सुदृण हो जाने पर अपने जीवनकाल में ही अपने पुत्र नरभट परिहार का राज्य तिलक बड़े समारोह के साथ करवाया |
कर्नल टाड ने अपने राजस्थान के इतिहास में उल्लेख किया है की प्रतिहारों का प्रादुर्भाव आदि में मण्डौर से हुआ है । किन्तु बात तब की है जब मण्डौर का राजा मुकुल परिहार था । उसकी सिंसोंध में बाड़ के राजा से प्रतिदंद्विता थी, उस समय शक्ति परीक्षण का युग था ।" जिसकी लाठी उसी की भैंस " राहुप ने मण्डौर पे चढ़ाई कर मुकुल परिहार को बंदी बना सिंसोंध ले आया था । मुकुल से राणा की उपाधि तथा एक नगर जोहबाढ़ लेकर उसे मुक्त कर दिया । स्वयं राहुप राणा की उपाधि धारण करने लगा । राहुप सिंसोंध के जागीरदार माहप का अनुज था |
राणा की उपाधि की पुष्टि गौरीशंकर हरिचंद्र ओझा लिखित राजपूत का इतिहास के इस अंश से भी होती है की बाउक प्रतिहार को राणा की उपाधि से विभूषित किया गया था । मण्डौर के प्रतिहारों से ली हुई राणा की पदवी के कारण ही कालांतर में चितौड़ के सिंसोंदिया शासक महाराणा कहलाने लगे । अंतिम मण्डौर शासक हम्मीर जिसे चारडो ने राणा लिखा है , राठौर चूड़ा ने 1394 ई. में दुर्ग छीना था । अतः उपर्युक्त पंक्तियों में हम स्पस्ट कर चुके है की प्रतिहार सत्ता का प्रादुर्भाव मण्डौर से हुआ । मण्डौर के प्रतिहारों की ज्येष्ठ शाखा गुजरत्रा क्षेत्र का जालौर था । भिनमाल में राजधानी स्थापित कर शासन करने की पुष्टि इतिहासकारों के मतानुसार होती है
डा. के. सी. जैन ने अपनी पुस्तक राजपूतों के इतिहास में मत सहमत किया है की इस शाखा की स्थापना राजा हरिचंद्र के द्वारा की गयी है । इसने अपना राज्य राजपूताना में जोधपुर के आस पास 550 ई. के लगभग स्थापित किया था इससे लगभग 850 ई. के राजाओं का अल्प सक्षिप्त इतिहास प्राप्त होता है |
भगवान श्रीराम के अनुज लक्ष्मण ने ही प्रतिहार का कार्य किया था । इसीलिए यह वंश परिहार वंश के नाम से विख्यात हुआ । यही तथ्य कुकुक्क के घटियाला अभिलेख में भी दोहराया गया है । " उपर्युक्त दोनों अभिलेखों से प्रतिहार वंश के आद्य पुरुष हरिचंद्र को विप्र कहा गया । क्षत्रिय राजा हरिचंद्र के लिए 'विप्र' शब्द का उपयोग उल्लेखनीय है । वृह दोरण्य कोपनिषद् के अनुसार सबसे पहले क्षत्रिय हुए और उनके बाद अन्य वर्णों का जनम हुआ । इसी प्रकार ब्रजसूचिकोपनिषद् में निम्नांकित श्लोक मिलता है |
जन्मना जायते शूद्र संस्काराद्विज ऊचयते ।।
वेदपाठ वदेः विप्रः ब्रम्हा जानाति ब्राहाडाः ।।
मंडौर राज्य।।
परिहार राजपूत।।
नागौद रियासत।।