Thursday, March 31, 2016

history of mandore fort

~~~ मंडौर राज्य ~~~
~~~ परिहार राजपूतों का इतिहास ~~~

प्रतिहार परिहार क्षत्रियों के मण्डौर राज्य का इतिहास मण्ड़ोर दुर्ग मंडौर जोधपुर की स्थापना से पूर्व मारवाड़ की राजधानी थी। मण्ड़ोर का नाम प्राचीन काल में मांडव्यपुर था, जो माण्डव्य ॠषि के नाम पर पड़ा था। घटियाला से प्राप्त शिलालेख से ज्ञात होता है कि मण्डोर दुर्ग का निर्माण ७ वीं शताब्दी के पूर्व हो चुका था। शिलालेखों के अनुसार विप्र हरिचन्द्र परिहार के पुत्रों ने मण्डौर पर अधिकार कर लिया तथा ६२३ ई० में उन्होंने इसके चारों ओर दीवार बनवाई। मण्डोर दुर्ग के अवशेष आज भी विद्यमान हैं। यह दुर्ग एक पहाड़ी के शिखर पर स्थित था, जिसकी ऊँचाई ३०० से ३५० फुट थी। यह दुर्ग आज खंड़हर हो चुका है। कुछ खण्डहरों के नीचे पड़ा है तथा कुछ विघटित अवस्था में है। विघटित अवस्था में विद्यमान दुर्ग को देखकर यद्यपि उसकी वास्तविक निर्माण विधि का पूरा आकलन नही किया जा सकता तथापि इस विषय में कुछ अनुमान अवश्य लगाया जा सकता है। पहाड़ी पर स्थित इस दुर्ग के चारों ओर पाषाण निर्मित दीवार थी। दुर्ग में प्रवेश करने के लिए एक मुख्य मार्ग था। दुर्ग की पोल पर लकड़ी से निर्मित
विशाल दरवाजा था। दुर्ग के शासकों के निवास के लिए महल, भण्डार, सामंतो व अधिकारियों के भवन आदि बने हुए थे। जिस मार्ग द्वारा नीचे से पहाड़ी के ऊपर किले तक पहुँचा जाता था वह उबड़-खाबड़ था। किले की प्राचीर में जगह-जगह चौकोर छिद्र बने हुए थे। मण्ड़ोर को दुर्ग सामरिक सुरक्षा की दृष्टि से तात्कालीन समय में काफी सुदृढ़ एवं महत्वपूर्ण समझा जाता था। इसके कारण शत्रु की सेना को पहाड़ी पर अचानक चढ़ाई करने में काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता था। दुर्ग में प्रवेश-द्वार इस तरह से निर्मित किए गए थे कि उन्हें तोड़ना शत्रु के लिए असंभव सा था। किले में पानी की प्रयाप्त व्यवस्था होती थी जिससे
आक्रमण के समय सैनिकों एवं रक्षकों को जल की
कमी का सामना नही करना पड़े। इस दुर्ग की प्राचीर चौड़ी एवं सुदृढ़ थी। दुर्ग के पास ही एक विशाल जलाशय का निर्माण करवाया गया था। इस जलाशय की सीढियों पर नाहरदेव नाम अंकित है जो मण्ड़ोर का अंतिम परिहार राजपूत शासक था। दुर्ग की दीवारें पहाड़ी के शीर्ष भाग से ऊपर उठी हुई थीं। बीच के समुन्नत भाग पर विशाल महल बने थे जो नीचे के मैदानों पर छाये हुए थे। मण्ड़ोर दुर्ग के बुर्ज गोलाकार न होकर अधिकांशत: चौकोर थे, जैसे कि अन्य प्राचीन दुर्गों में मण्ड़ोर दुर्ग ७८३ ई० तक परिहार राजपूत शासकों के अधिकार में रहा। इसके बाद नाड़ोल के चौहान शासक रामपाल ने मण्ड़ोर दुर्ग पर अधिकार कर लिया था। १२२७ ई० में गुलाम वंश के शासक इल्तुतनिश ने मण्ड़ोर पर अधिकार कर लिया। यद्यपि परिहार शासकों ने तुर्की आक्रांताओं का डट कर सामना किया पर अंतत: मण्ड़ोर तुर्कों के हाथ चला गया। लेकिन तुर्की आक्रमणकारी मण्ड़ोर को लम्बे समय तक अपने अधिकार में नही रख सके एंव दुर्ग पर पुन: प्रतिहारों का अधिकार हो गया। १२९४ ई० में फिरोज खिलजी ने परिहारों को
पराजित कर मण्ड़ोर दुर्ग अधिकृत कर लिया, परंतु
१३९५ ई० में परिहारों की इंदा शाखा ने दुर्ग पर
पुन: अधिकार कर लिया। इन्दों ने इस दुर्ग को चूंडा राठौड़ को सौंप दिया जो एक महत्वाकांक्षी शासक था। उसने आस-पास के कई प्रदेशों को अपने अधिकार में कर लिया। १३९६ ई० में गुजरात के फौजदार जफर खाँ ने मण्ड़ोर पर आक्रमण किया। एक वर्ष के निरंतर घेरे के उपरांत भी जफर खाँ को मंडोर पर अधिकार करने में सफलता नही मिली और उसे विवश होकर घेरा उठाना पड़ा। १४५३ ई० में राव जोधा ने मण्डोर दुर्ग पर आक्रमण किया। उसने मरवाड़ की राजधानी मण्डोर से स्थानान्तरित करके जोधपुर ले जाने का निर्णय लिया। राजधानी हटने के कारण मण्ड़ोर दुर्ग धीरे-धीरे वीरान होकर खंडहर में तब्दील हो गया।।

मण्डौर राजस्थान के जिला जोधपुर के अंतर्गत जिला मुख्यालय से लगभग 6 कि. मी. की दूरी पर बसा था| इस स्थान पर वर्तमान में मण्डौर नगर के अवशेस मात्र है । यह स्थान पौराणिक काल में लंकापति रावण की धर्मपत्नी मंदोदरी का पीहर था , अर्थात रावण की ससुराल कहे जाने वाले
मण्डौर के भग्र किले की खुदाई में एक प्राचीन मंदिर का गर्भ , सभामंडप , परिक्रमा स्थल सहित नवी दसवी शताब्दी की दुर्लभ गजलक्ष्मी की प्रतिमा मिली है|

इतिहासकार इसे प्रतिहारों का राज्य मानते है क्योंकि यहाँ सर्वाधिक प्रतिहार शासक ही रहे है । मण्डौर में सर्वप्रथम प्रतिहार राजा हरिचंद्र हुए। क्षत्राणी रानी भद्रा प्रतिहार से उत्पन्न हुए पुत्र अपनी महत्वाकांक्षा को रोक न सके चारो क्षत्रिय कुमारो ने मण्डौर का दुर्ग जीतकर उसकी प्राचीरों को ऊँचा किया इस प्रतिहार सत्ता का प्रारम्भ " मेढ़ता " से हुआ । मण्डौर मेढ़ता राज्य के नाम से स्थापित घटियाला अभिलेख से प्राप्त होता है की प्रथम परिहार राज्य का संस्थापक रज्जिल परिहार था। उसने मेढ़ता और मरूडाम में नवीन दुर्गो की रचना करवाई और अपने तीनो भाइयों की सहायता से सैन्य संगठन किया - समीपवर्ती 6 राज्यों को को विजित कर लिया । शासन व्यवस्था सुदृण हो जाने पर अपने जीवनकाल में ही अपने पुत्र नरभट परिहार का राज्य तिलक बड़े समारोह के साथ करवाया |

कर्नल टाड ने अपने राजस्थान के इतिहास में उल्लेख किया है की प्रतिहारों का प्रादुर्भाव आदि में मण्डौर से हुआ है । किन्तु बात तब की है जब मण्डौर का राजा मुकुल परिहार था । उसकी सिंसोंध में बाड़ के राजा से प्रतिदंद्विता थी, उस समय शक्ति परीक्षण का युग था ।" जिसकी लाठी उसी की भैंस " राहुप ने मण्डौर पे चढ़ाई कर मुकुल परिहार को बंदी बना सिंसोंध ले आया था । मुकुल से राणा की उपाधि तथा एक नगर जोहबाढ़ लेकर उसे मुक्त कर दिया । स्वयं राहुप राणा की उपाधि धारण करने लगा । राहुप सिंसोंध के जागीरदार माहप का अनुज था |

राणा की उपाधि की पुष्टि गौरीशंकर हरिचंद्र ओझा लिखित राजपूत का इतिहास के इस अंश से भी होती है की बाउक प्रतिहार को राणा की उपाधि से विभूषित किया गया था । मण्डौर के प्रतिहारों से ली हुई राणा की पदवी के कारण ही कालांतर में चितौड़ के सिंसोंदिया शासक महाराणा कहलाने लगे । अंतिम मण्डौर शासक हम्मीर जिसे चारडो ने राणा लिखा है , राठौर चूड़ा ने 1394 ई. में दुर्ग छीना था । अतः उपर्युक्त पंक्तियों में हम स्पस्ट कर चुके है की प्रतिहार सत्ता का प्रादुर्भाव मण्डौर से हुआ । मण्डौर के प्रतिहारों की ज्येष्ठ शाखा गुजरत्रा क्षेत्र का जालौर था । भिनमाल में राजधानी स्थापित कर शासन करने की पुष्टि इतिहासकारों के मतानुसार होती है

डा. के. सी. जैन ने अपनी पुस्तक राजपूतों के इतिहास में मत सहमत किया है की इस शाखा की स्थापना राजा हरिचंद्र के द्वारा की गयी है । इसने अपना राज्य राजपूताना में जोधपुर के आस पास 550 ई. के लगभग स्थापित किया था इससे लगभग 850 ई. के राजाओं का अल्प सक्षिप्त इतिहास प्राप्त होता है |

भगवान श्रीराम के अनुज लक्ष्मण ने ही प्रतिहार का कार्य किया था । इसीलिए यह वंश परिहार वंश के नाम से विख्यात हुआ । यही तथ्य कुकुक्क के घटियाला अभिलेख में भी दोहराया गया है । " उपर्युक्त दोनों अभिलेखों से प्रतिहार वंश के आद्य पुरुष हरिचंद्र को विप्र कहा गया । क्षत्रिय राजा हरिचंद्र के लिए 'विप्र' शब्द का उपयोग उल्लेखनीय है । वृह दोरण्य कोपनिषद् के अनुसार सबसे पहले क्षत्रिय हुए और उनके बाद अन्य वर्णों का जनम हुआ । इसी प्रकार ब्रजसूचिकोपनिषद् में निम्नांकित श्लोक मिलता है |

जन्मना जायते शूद्र संस्काराद्विज ऊचयते ।।
वेदपाठ वदेः विप्रः ब्रम्हा जानाति ब्राहाडाः ।।

मंडौर राज्य।।
परिहार राजपूत।।
नागौद रियासत।।

History of chanderi fort



""जब प्रतिहार राजपूतों की वीरता और नारियों का अपूर्व बलिदान देखकर बाबर और उसकी सेना हतप्रभ रह गई""

मित्रों आज के इस पोस्ट के द्वारा हम आपको चंदेरी राज्य के प्रतिहार राजपूतों के वीरता और नारियों के बलिदान की जानकारी देंगे।।

चंदेरी वर्तमान में मध्यप्रदेश के जिला ग्वालियर में मौजूद है। पूर्व में इसका जिला मुख्यालय गुना था। किंतु 18 वीं शताब्दी के अंतिम चरण में मुगल साम्राज्य की अनुमति और मराठो के उत्कर्ष के समय सिंधिया का ग्वालियर में अधिपत्य स्थापित होने पर चंदेरी भी ग्वालियर रियासत का हिस्सा बन गया। मध्यकाल में चंदेरी व्यापार एवं राजनीति दोनों दृष्टि से महत्वपूर्ण बन गया था। वह मालवा और बुंदेलखण्ड की सीमा पर स्थित था। मालवा और उत्तर भारत की मुख्य सडकें वहां से गुजरती थी। चंदेरी जाने का दूसरा रास्ता - बीना - कोटा रेलमार्ग के मुगावली स्टेशन से लगभग 38 कि. मी. की दूरी पर चंदेरी स्थित है। अतः दोनो मार्गो द्वारा चंदेरी पहुंचा जा सकता है।

चंदेरी का यह सुंदर मनोरम किला एक बडे खंड पर पहाड़ी पर बना है सामरिक दृष्टि से इसकी स्थति अत्यंत महत्वपूर्ण है। चंदेरी दुर्ग बेतवा नदी की घाटी को जोडता है। बेतवा नदी के किनारे स्थित इस ऐतिहासिक दुर्ग को 11 वीं शताब्दी के क्षत्रिय प्रतिहार नरेश कीर्तिपाल ने बनवाया था। इस तक पहुंचने के लिए रास्ता अत्यंत दुर्गम और संकीर्ण है। मध्य भारत के दुर्लभ पहाड़ी दुर्ग तीन ही है। - नरबर दुर्ग, ग्वालियर दुर्ग, चंदेरी दुर्ग। बुंदेले राजपूतों और मांडू के सुल्तानों के समय के बनवाये भवनो के अवशेष वर्तमान में भी विद्यमान है। प्रतिहार युगीन अवशेष जीर्ण - शीर्ण अवस्था में विद्यमान हैं।

चंदेरी में प्रतिहारों के राज्यकाल के समय सर्वप्रथम 13 वीं शताब्दी में दिल्ली के शासक नासिरुद्दीन महमूद ने बुंदेलखण्ड पर चढ़ाई की साथ ही गयासुद्दीन बलबन ने भी चंदेरी पर हमला किया परंतु यह युद्ध सफल न हुआ। दूसरा युद्ध 15 वीं 16 वीं शताब्दी के मध्य हुआ। बाबर ने 28 जनवरी 1528 ईस्वीं को चंदेरी पर आक्रमण किया, आक्रमण उत्तर की ओर से हुआ। उसने अपनी सेना का पडाव, उत्तर पश्चिमी में " बत्तीसी बावडी " पर डाला था। जिस समय चंदेरी पर आक्रमण हुआ उस समय चंदेरी का शासक राजा मेदिनीराय प्रतिहार था। मेदिनीराय ने चंदेरी पर लगभग 8 वर्ष (1520 - 1528) ईस्वीं तक शासन किया था। मेदिनीराय प्रतिहार द्वारा 8 वर्ष के अल्पकाल में राज्य की उन्नति के लिए जो कुछ किया जा सकता था उसने किया।

मेदिनीराय प्रतिहार राणा सांगा के अभिन्न मित्र थे, सन् 1526 ईस्वीं में खानवा के युद्ध में राणा सांगा की ओर से 5000 सैनिकों के साथ बाबर का सामना करने के लिए पहुंचे किंतु बाबर इब्राहिम लोदी को पराजित किया। फिर राणा सांगा के साथ खानवा के मैदान में जाकर डटकर मुकाबला किया। खानवा का युद्ध भारतीय इतिहास का निर्णायक युद्ध था । इस युद्ध को बाबर ने सैन्य शक्ति के बल पर नहीं बल्कि अपने आत्मविश्वास और तोपखानो की वजह से जीता था। राणा सांगा की पराजय के पश्चात भी मेदिनीराय प्रतिहार शक्तिशाली राजपूत नरेश बाबर का प्रतिदंद्वी था।

खानवा के युद्ध में पराजित होने पर क्षत्रिय राजपूतों ने चंदेरी को अपना शक्ति केंद्र बनाया। देश भर के समस्त राजपूतों ने इस युद्ध मे किसी न किसी रुप में सहयोग दिया था। चंदेरी का युद्ध मुगलिया सल्तनत को भारत से उखाड़ फेंकने के लिए क्षत्रिय राजपूतों की ओर से अंतिम प्रयास था। स्वयं राणा सांगा इस युद्ध में शामिल होने आ रहे थे परंतु अचानक कालपी के निकट उनकी मृत्यु हो गई। प्रतिहार राजपूतों की शक्ति को बहुत बडा आघात पहुंचा। उधर बाबर को भी युद्ध करने की लालसा न थी। वह खानवा के युद्ध में क्षत्रिय राजपूत वीरों का अदम्य साहस और शौर्य को निकट से देख चुका था। इसीलिए बाबर ने युद्ध टालने का प्रयत्न किया, लेकिन मेदिनीराय के देश प्रेम व राणा सांगा की मित्रता तथा क्षत्रियों द्वारा कभी किसी की अधीनता स्वीकार न करने के सिद्धांत के कारण उन्होंने शहीद होना श्रेयस्कर समझा। बाबर के आंगे घुटने टेकने से इंकार कर दिया। इससे युद्ध होना आवश्यक हो गया था। मुगल सेना ने कीर्ती दुर्ग किला को चारो ओर से घेर लिया अगले दिन प्रतिहार राजपूतों ने कीर्ती दुर्ग और अपनी आन - बान - सान चंदेरी की रक्षार्थ अंतिम समय तक युद्ध किया परंतु तोपखानो की अग्निवर्षा के परिणाम स्वरूप शीघ्रता से
धराशायी होते गये। सहस्त्रों प्रतिहार क्षत्रिय वीरों ने किले के बाहर प्रमुख द्वार पर रक्षात्मक युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। यह दरवाजा आज भी खूनी दरवाजा के नाम से प्रसिद्ध है।

प्रतिहार सेना की मुगलो से हो रही पराजय से ही लग रहा था कि वीर अब युद्ध को पक्ष में करने में सक्षम नहीं है। और हार अवश्यंभावी है। जब प्रतिहार राजा मेदिनीराय व उनके वीर सैनिक जिस समय हताश होकर बाबर की फौज से अपना अंतिम युद्ध करने को निकले, उस समय जौहर ताल के किनारे वि. सं. 1584 माघ सुदी बुधवार को राजा मेदिनीराय की पत्नी रानी मणिमाला एवं प्रतिहार राजपूत वीरांगनाएँ और नागरिक महिलाओं ने राजपूतों की पराजय निश्चित मानकर अपने कौमार्य, धर्म एवं सतीत्व की रक्षार्थ जौहर रचा और स्वयं को अग्निकुंड मे जय मां चामुण्डा देवी (प्रतिहार वंश की कुलदेवी) के नारे लगाते हुए अपने को समर्पित कर दिया। " उनकी ही स्मृति में यह स्मारक (जौहर) ग्वालियर राज्य के समय में श्री सदाशिव राय सिंह पंवार के द्वारा सन् 1932 में बनवाया गया। कहा जाता है कि जौहर के पूर्व माताओं ने अपने पुत्रों एवं बहनों ने अपने भाइओं का तलवारों से बध कर दिया। इसका उद्देश्य यह था कि कहीं राजपूत माँ के प्यारे लाल एवं बहिनों के भाई मुसलमान न बना दिये जायें। इस अनोखी घटना के संबंध में श्री आनंद जी मिश्र लिखते हैं। ----

बहनों ने काटे प्राणों के प्यारे भाई , माताओं ने पुत्रों के शीष उतार दिए।।
बलिहारी भारत। और कौन सा देश जहाँ ऐसी माता बहनों ने अवतार लिये।।

विजयोन्मत बाबर ने सेना सहित जब कीर्ती दुर्ग में प्रवेश किया था तो दुर्ग के अंदर खंडित मंदिर, भग्र महल और चिता की राख ही उसे प्राप्त हो सकी थी। प्रतिहार/परिहार राजपूतों की वीरता और नारियों का अपूर्व बलिदान देखकर बाबर और उसकी सेना हतप्रभ रह गई थी। बाबर ने आत्म बलिदान के ऐसे भयावह नजारा "अनुपम" आदर्श के ऐसे दृश्य को कभी नहीं देखा था। बाबर ने फतह के स्थान को "चांदे - देहरी" लिखा है। जो वर्तमान में चंदेरी है। चंदेरी प्रतिहार वंश के शासकों की वंशावली शिलालेख पर आधारित है। चंदेरी शासको का वंश वृक्ष इस प्रकार है --

(1) नीलकंठ प्रतिहार
(2) हरिराज प्रतिहार
(3) भीमदेव प्रतिहार
(4) रणपालदेव प्रतिहार
(5) वत्सराज प्रतिहार
(6) सवर्णपाल प्रतिहार
(7) कीर्तीराज प्रतिहार
(8) अभयपाल प्रतिहार
(9) गोविंदराय प्रतिहार
(10) राजराम प्रतिहार
(11) वीरराज प्रतिहार
(12) जैत्रवर्मा प्रतिहार
(13) मेदिनीराय प्रतिहार

इस प्रकार चंदेरी में 13 राजाओं ने 11 वीं शताब्दी से लेकर 15 वीं शताब्दी तक शासन करने उपरांत बुंदेलखण्ड की ओर पलायन कर गये।।।

Refrence : -
(1) प्रतिहार राजपूतों का इतिहास लेखक - देवी सिंह मंडावा
(2) मेमायर्ष आफ बाबर - अनुवाद एसकाइन पृष्ठ
(3) ग्वालियर गजेटियर पृष्ठ संख्या 39
(4) गुना गजेटियर / मध्य प्रदेश मार्गदर्शिका प्र. 31,38
(5) चंदेरी मार्गदर्शिका प्रपत्र - 13

Pratihara / Pratihar / Parihar Rulers of india

जय माँ चामुण्डा।।
जय क्षात्र धर्म।।
नागौद रियासत।।

History of Pushkar teerh Rajasthan India


* प्रतिहार कालीन पुष्कर तीर्थ का इतिहास *

मित्रों आज की इस पोस्ट के माध्यम से हम आपको प्रतिहार कालीन राजस्थान के पुष्कर तीर्थ एवं भारत में एक मात्र ब्रम्हा जी के मंदिर के इतिहास की जानकारी देंगे।।

अजोरगढ महेश्वर (नर्मदा तट) मे प्रतिहार राजा अजराणा ने दुर्ग का निर्माण करवाया था। उसके पुत्र को एक बालयोगी अमर करना चाहता था, बालयोगी ने प्रतिहार राजा के पुत्र नाहड़राव को अमरतेल के कडाहे पर कूदने को कहा जिससे राजा यह सुनकर बहुत ही क्रोधित हो गए। पुत्र मोह के कारण राजा ने योगी को कपटी समझा और उसकी हत्या कर दी। जिसके फलस्वरूप उन्हें कुष्ठ रोग हो गया। इस कुष्ठ रोग के दिन प्रतिदिन बढने से राजा बहुत ही दुखित था।

उस कुष्ठ रोग का निवारण करने के लिए एक किवंदती प्रचलित है कि --

एक दिन प्रतिहार राजा शिकार करने के लिए जंगल की ओर गये और काफी देर जंगल में शिकार की तलास में भटकते रहे काफी देर बाद उन्हें एक जंगली सुअर (वाराह) दिखा। उस जंगली सुअर का पीछा करते हुए राजा अपने सैनिकों से पिछड गये और जंगल में भटक गये।

आंगे चलकर अजमेर नदी के तीन कोस उत्तर में वह जंगली सुअर अचानक से गायब हो गया। राजा काफी देर से पीछा करने से थक चुके थे और उन्हें बहुत प्यास भी लगी थी, थके हारे राजा परेशान हो गये प्यास से व्याकुल राजा नदी की ओर बढ चले कुछ दूरी पर उन्हे एक गड्ढा मिला जिसमे जंगली सुअर के खुर के निशान थे। उस गड्ढे को राजा ने अपनी तलवार से और गहरा किया और प्यास बुझाई। पानी पीते ही राजा वहीं पर बेहोश हो गये।।

अचेतावस्था में पुष्कर तीर्थ ने राजा को दर्शन दिये और बताया कि मैने वाराह के रुप में तुम्हारे प्राणों की रक्षा की, साथ ही तुम्हारे कुष्ठ रोग का निवारण भी किया।।

होश आने पर प्रतिहार राजा ने देखा की वह कुष्ठ रोग से मुक्त हो गया। इससे खुश होकर राजा ने अपने राजधानी आकर " ऐरा " के वन में एक सरोवर का निर्माण एवं धातु की सीढियाँ भी बनवाई जिसे हम आज पुष्कर तीर्थ एवं पुष्कर ताल के नाम से जानते है तथा भारत में एक मात्र चतुर्मुखी ब्रम्हा जी के मंदिर का निर्माण करवाया जो अपने आप में अद्धितीय मंदिर है। राजा ने जंगली सुअर (वाराह)का शिकार करने पर कडा प्रतिबंध लगा दिया तथा उसके मांस भक्षण पर भी रोक लगा दिया।

इसी घटना के बाद से प्रतिहारों ने वाराह का मांस खाना बंद कर दिया और वाराह को पूजने लगे। और वाराह जयंती भी मनाने लगे। इस विशेष दिन
का और महत्व प्रतिहारों मे जब बढा जब इस क्षत्रिय प्रतिहार वंश मे वाराह जयंती के ही दिन कुल दीपक सम्राट मिहिर भोज का जन्म हुआ जो बचपन से ही अदम्य साहसी और शस्त्र/शास्त्र में निपुण थे।

प्रतिहार राजपूत युद्ध के लिए प्रस्थान करने के पहले यहां चतुर्मुखी ब्रम्हा जी के मंदिर में पूजा अर्चना के लिए जरुर आते थे।

इन सब घटनाओं की जानकारी पुष्कर तालाब की सीढियों पर अंकित कुछ प्रतिहार राजाओं के नाम से हुई जिनमे अजराणा प्रतिहार एवं नाहड़राव प्रतिहार मुख्य रुप से है और यहां के कई शिलालेखों एवं ताम्रपत्रों में भी इसका प्रतिहार राजाओं से जिक्र किया गया है ।

कालीदास ने भी कई जगह पुष्कर तीर्थ का वर्णन किया है --

वह लिखते है - " प्रतिहार नाहड़राव मण्डौरगढ़ करवायों पुष्कर बधायो "

सम्राट पृथ्वीराज चौहान एवं नाहड़राव प्रतिहार समकालीन थे। पृथ्वीराज रासौ, नैणसी विख्यात बांकी दास कई ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है।

प्रतिहार राजा अजराणा का पुत्र नाहड़राव बहुत ही वीर था कुछ समय के लिए परमारो ने 11वीं शताब्दी में प्रतिहारों से उनका प्राचीन राज्य मण्डौर छीन लिया था। जिससे नाहड़राव प्रतिहार ने अपनी वीरता एवं योग्यता से परमारो पर हमला कर पुनः छीन लिया था।

Pratihara / Pratihar / Parihar Rulers of india

Refrence : -
(1) विंध्य क्षेत्र के प्रतिहार वंश का ऐतिहासिक अनुशीलन - लेखक डाॅ अनुपम सिंह
( 2) प्रतिहारों का मूल इतिहास लेखक - देवी सिंह मंडावा
(3) भारत के प्रहरी - प्रतिहार लेखक - डॉ विंध्यराज सिंह चौहान
(4) पृथ्वीराज रासौ ग्रन्थ
(5)कालीदास - रघुवंश 151-154
(6) राजपूतो का इतिहास - लेखक गौरीशंकर हरिचंद्र ओझा
(7) परिहार वंश का प्रकाश लेखक - मुंशी प्रेमचंद देवी
(8) वीरभानुदय काव्य - राजकवि
(9) प्राचीन भारत का इतिहास लेखक - बी.एल. शर्मा
(10) राजशेखर - काव्यभीमांस और मजूमदार एनसीयंट इंडिया पेज 225/ क्षत्रिय वंश वैभव

जय माँ चामुण्डा।।
जय क्षात्र धर्म।।
नागौद रियासत।।

history of Pratihar kaleen Jalore fort


# जालौर किले का इतिहास #

मित्रों आज की इस पोस्ट के द्वारा हम आपको प्रतिहार कालीन सवर्णगिरी पर्वत पर बना जालौर किले के इतिहास के बारे में जानकारी देंगे।।

जालौर राजस्थान के दक्षिणी - पश्चिम में स्थित पूर्व मध्यकाल का एक महत्वपूर्ण स्थल रहा है। जालौर का किला मारवाड़ के महत्वपूर्ण सुदृढ़ किलों में से एक है। 8 वीं शताब्दी अर्थात प्रतिहार काल में इसका निर्माण किया गया था। यह किला हिन्दू पद्धति से बना है।

जबालिपुर या जालहुर सूकडी नदी के किनारे बना हुआ गिरी दुर्ग है। सोहनगढ एवं सवर्णगिरी कनकाचल के नाम से जाना जाता है। इस दुर्ग का निर्माण 8 वीं शताब्दी में प्रतिहार क्षत्रिय वंश के सम्राट नागभट्ट प्रथम (730 से 760) द्वारा जालौर को देश की राजधानी बनाकर किया गया था। आज तक किसी भी आक्रमणकारी ने आक्रमण के द्वारा इस दुर्ग के द्वार को खोल नहीं पाया। प्रतिहार राजपूतों के जालौर से पलायन पश्चात इस दुर्ग पर बारी बारी से कई शासकों ने राज किया जिसमें परमार, सोनगरा चौहान, खिलजी आदि। पर मूलतः यह किले प्रतिहार वंश का ही है।

# सम्राट नागभट्ट प्रतिहार #

इतिहासकार के.एम.पन्निकर ने अपनी पुस्तक "सर्वे ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री "में लिखा है -"जो शक्ति मोहम्मद साहिब की मृत्यु के सौ साल के अंदर एक तरफ चीन की दिवार तक पंहुच गयी थी ,तथा दूसरीऔर मिश्र को पराजित करते हुए उतरी अफ्रिका को पार कर के स्पेन को पद दलित करते हुए दक्षिणी फ़्रांस तक पंहुच गयी थी ,जिस ताकत के पास अनगिनित सेना थी तथा जिसकी सम्पति का कोई अनुमान नही था ,जिसने रेगिस्तानी प्रदेशों को जीता तथा पहाड़ी व् दुर्लभ प्रांतों को भी फतह किया था।

इन अरब सेनाओं ने जिन जिन देशों व् साम्राज्यों को विजय किया ,वंहा कितनी भी सम्पन्न संस्कृति थी उसे समाप्त किया तथा वंहा के निवासियों को अपना धर्म छोड़ कर इस्लाम स्वीकार करना पड़ा। ईरान , मिश्र आदि मुल्कों की संस्कृति जो बड़ी प्राचीन व विकसित थी ,वह इतिहास की वस्तु बन कर रह गयी। अगर अरब हिंदुस्तान को भी विजय कर लेते तो यहां की वैदिक संस्कृति व धर्म भी उन्ही देशों की तरह एक भूतकालीन संस्कृति के रूप में ही शेष रहता। इस सबसे बचाने का भारत में कार्य नागभट्ट प्रतिहार ने किया। उसने खलीफाओं की महान आंधी को देश में घुसने से रोका और इस प्रकार इस देश की प्राचीन संस्कृति व धर्म को अक्षुण रखा। देश के लिए यह उसकी महान देन है। प्रतिहार/परिहार वंश में वैसे तो कई महान राजा हुए पर सबसे ज्यादा शक्तिशाली नागभट्ट प्रथम एवं मिहिर भोज जी थे जिन्होने अपने जीवन मे कभी भी मुगल और अरबों को भारत पर पैर जमाने का मौका नहीं दिया । इसीलिए आप सभी मित्रों ने कई प्रसिद्ध ऐतिहासिक किताबो पर भी पढा होगा की प्रतिहारों को इस्लाम का सबसे बड़ा दुश्मन बताया गया है।।

इस किले में प्रतिहार कालीन वास्तु शैली, परमार कालीन कीर्ती स्तंभ, कान्हणदेव की बावणी, वीरमदेव की चौकी, जैन मंदिर एवं मल्लिकाशाह की दरगाह आदि वास्तु शिल्प के मुख्य नमूने है।

1311 वीं शताब्दी में अलाउद्दीन खिलजी ने यहां के शासक कान्हणदेव चौहान से बडा ही भयावह युद्ध किया और बडे ही मुश्किल से उन्हें परास्त किया और इस दुर्ग को अपने अधिकार में ले सका।

दुर्ग में प्रवेश के लिए दो द्वार है मुख्य द्वार को सूरज पोल एवं द्वितीय पिछले द्वार को ध्रुव पोल के नाम से जाना जाता है।



प्रतिहारों का मूल प्रदेश आबू पर्वत अर्थात माउंट आबू था। किवदंती अनुसार इस स्थान से रिषी जी के यज्ञोपवीत संस्कार हुआ तभी प्रतिहार सूर्यवंशी से अग्निवंशी कहलाने लगे। और आंगे के इतिहासकारों ने भी बिना किसी शोध के आंख मूदकर प्रतिहार राजपूतों को हर जगह अग्निवंशी ही बता डाला जिससे समाज में प्रतिहारों के अग्निवंशी होने पर हास्य हुआ। कहा जाता है कि भारत भ्रमण करने से पहले ही यह क्षेत्र गुजरात्रा नाम से जाना जाता था। प्रतिहार सत्ता का विस्तार मण्डौर मेढ़ता से हुआ, जो उन दिनों "मारुमण्ड" कहलाता था जब प्रतिहारों की एक शाखा अर्थात ज्येष्ठ शाखा मण्डौर से जालौर आई तब प्रतिहारों को उनके समकालीन लोग गुर्जर कहने लगे और यही लोग जब स्थांनातरित होकर कन्नौज आये तब गुर्जर - प्रतिहार नाम से विख्यात हुए।

गुर्जर शब्द गुजरात्रा क्षेत्र से आये हुए लोगो के लिए है न कि किसी जाति से संबंधित है। और न ही प्रतिहार गुज्जर/गुर्जर मूल के है। गुर्जर जाति आजकल प्रतिहारों को शोसल मीडिया पर गुज्जर जाति का बता रही है। प्रतिहार सूर्यवंशी क्षत्रिय है। प्रतिहारों ने अपने नाम के साथ कभी भी गुर्जर शब्द प्रयोग नहीं किया यह केवल कुछ मूर्ख इतिहासकारों की ही उपज है। जिससे यह शुद्ध क्षत्रिय वंश बार बार अपमानित हुआ।

प्रतिहारों के पतन के पश्चात गुजरात्रा क्षेत्र मे जब चालुक्य शक्तिमान हुए तब यही गुर्जर शब्द उनके लिए अगली तीन शताब्दियों तक प्रयुक्त होता रहा। गुर्जरात्रा की सीमा पर स्थित "अणहिल पाटक" गुर्जरपुर और गुर्जर नगर कहा गया है। शनैः शनैः गुर्जर शब्द चालुक्यों द्वारा शासित समूचे भू - भाग के लिए प्रयुक्त होने लगा। प्राकृत में उसी को गुजरात कहा जाने लगा। जालौर में विभिन्न राजाओं का शासनकाल इस प्रकार रहा --

सम्राट नागभट्ट प्रतिहार (730 से 760)
सम्राट ककुक्क प्रतिहार
सम्राट देवराज प्रतिहार
सम्राट वत्सराज प्रतिहार

इस तरह जालौर पर प्रतिहार वंश के चार सम्राटों ने शासन किया एवं संपूर्ण भारत वर्ष पर खलीफाओं (अरब) की आंधी को घुसने से रोका। यही से निकलकर कुछ प्रतिहार शाखा कन्नौज, उज्जैन, ग्वालियर, नागौद के लिए प्रस्थान कर गई और यहाँ कई सौ वर्षों तक शासन किया । जिसमें नागौद प्रतिहार बरमै राज्य मुख्य है जिसने 800 सौ वर्षों तक शासन किया है।

Pratihara / Pratihar / Parihar Rulers of india

Refrence : -
(1) प्रतिहार राजपूतो का इतिहास - लेखक रामलखन सिंह
(2) विंध्य क्षेत्र के प्रतिहार वंश का ऐतिहासिक अनुशीलन - लेखक डॉ अनुपम सिंह
(3) प्रतिहारों का मूल इतिहास - लेखक देवी सिंह मंडावा
(4) ग्वालियर प्रशस्ति - मिहिर भोज
(5) राजपूताने का इतिहास पृष्ठ संख्या 161
(6) राजस्थान का इतिहास पृष्ठ संख्या 954
(7) प्राचीन भारत का इतिहास 1 - 8
(8) राजस्थान थ्रू एजेज पृष्ठ संख्या 339/440 - 441
(9) राजोरगढ़ प्रस्तर अभिलेख वि. स. 1016/959 ई. , एपि इंडिया 111, पृष्ठ 263
(10) ग्वालियर प्रशस्ति - आकयॆलाजी इन ग्वालियर, 1934 ग्वालियर

जय माँ चामुण्डा।।
जय क्षात्र धर्म।।
नागौद रियासत।।

Parihar Kshatrya Rajputs of india


history of Pratihar / Parihar Kshatriya Rajputs Kuldevi chamunda devi


 
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~~~ परिहार राजपूतों की कुलदेवी ~~~

जय अनन्त आध्य शक्ति।।
जय चामुण्डा देवी माँ।।
नवरात्र की सभी को शुभ कामनाये।।

नवरात्रि व विजयदशमी राजपुतो के मुख्य त्यौहार है....हम क्षत्रिय मा शक्ति के उपासक है जैसे जाट,पुरोहित,अहीर,गुर्जर,ब्राह्मण, बगरी, कुर्मी, काछी आदि देवो कि उपासना करते है वैसे ही क्षत्रिय राजपूत,भोमिया,काठी,चारण,राव,मराठा, रावणा राजपूत,रावत आदि माँ भवानी या माँ आद्य शक्ति (समस्त देवियो का एक रूप ) के परम भक्त होते है

आज के दिन व होमाष्ठमी के दिन मा भवानी के नाम कि पुजा,जोत व व्रत अवश्य करना चाहिए..... हिन्दुओ मे कुलदेवी कि परम्परा क्षत्रियो ने कायम कि राजपूतो के गोत्र ज्यादातर दूसरी जातियों में मिलेंगे और हमेशा गोत्र के अनुसार ही कुलदेवियो की पूजा होती है न की जातियो के अनुसार। .
जैसे गणेश जी को लङ्ङु कृष्ण को माखन व देवो को छप्पन भोग लगाए जाते है वैसे मा शक्ति जो मा दुर्गा मा अँबे मा भवानी व समस्त देवीयो का ही एक रूप है आप सभी को ध्यान होगा कि मा काली के हाथो मे रक्त का प्याला होता व देवी हमेशा ही खुन का भोग या बली लेती है तभी से नवरात्र मे बली प्रथा प्रारम्भ हुईँ...

राजपूतो के यहा अष्टमी के दिन उनकी कुलदेवी की पूजा की जाती है।

नवरात्र और दशहरा क्षत्रियों का यह सबसे बड़ा पर्व है। राजा राम के लंका विजय के तौर पर क्षत्रिय राजपूत इसे बड़ी धूम धाम से मानते है क्षत्रिय/राजपूतों इस दिन प्रातः स्नानादि नित्य कर्म से निवृत्त होकर संकल्प मंत्र लेते हैं।इसके पश्चात देवताओं, गुरुजन, अस्त्र-शस्त्र, अश्व आदि के यथाविधि पूजन की परंपरा है।नवरात्रि के दौरान कुछ भक्तों उपवास और प्रार्थना, स्वास्थ्य और समृद्धि के संरक्षण के लिए रखते हैं।

👉राजस्थान के एक बड़े भाग पर नवरात्र के दिनों में विशेषकर दुर्गा अष्टमी को बलि दी जाती और मदिरा को ज्योति में चढ़ा कर भोग के रूप में लिया जाता है ये कोई नयी परम्परा नही है हजारो सालो से यही चलता आ रहा है जहा दूसरी जगह / जातियो में नवरात्र में दारू मीट लगभग बंद सा हो जाता है वही राजस्थान के राजपूतो में इनदिनों में इसका प्रचलन बढ़ जाता है
(रियासत काल में किलो और बड़े ठाकुरो के यहाँ एक विशेष प्रकार की गोट(समुहिक भोंज) होता था जहा देवी माँ की जोत करके सभी सिरदार अपने धर्म प्रजा राज्य और स्वाभिमान की रक्षा का प्रण लेते थे)

👉जो चित्र दिया गया है वो राजपूतो के लगभग सभी किलो हवेलियों गढ़ो घरो में मिलेगा क्यों की सभी देवी एक ही माँ का रूप है

👉ज्यादातर जगह त्रिशूल नुमा देवी शक्ति की पूजा होती है क्यों की देवी के हाथ में त्रिशूल होता है और सभी देवी का एक रूप ही है सिर्फ नाम अलग अलग है चित्र देखे

👉मुस्लिम नमाज के बाद अपना हाथ देखते है जिसमे वो चाँद का दीदार करते है ठीक वैसे ही संध्या काल और प्रातः काल या पूजा के बाद में राजपूत भी अपना हाथ देखते है जहा वो अर्धचन्र्दकार आकृति को बीच में काटते हुए देवी दर्शन करते है त्रिशूल के रूप में - दोनों हाथो को मिलाने पर एक आधा चाँद बनता है और हाथो के किनारे उसे जोड़ते /काटते हुए एक त्रिशूल बनाते है

पत्थर को कर दे पानी पानी
जय भवानी जय भवानी

~~~~ जय माँ चामुण्डा देवी ~~~~
~~~ प्रतिहार राजपूतों की कुलदेवी ~~~

परिहार,पडिहार,पढ़ियार,इंदा,राघव राजपूत ये
श्री चामुण्डा देवी जी को अपनी कुलदेवी के रूप में पूजते है तथा वरदेवी के रूप में गाजन माता को भी पूजते है ,तथा देवल शाखा प्रतिहार ( पडिहार ,परिहार राजपूत ) ये सुंधा माता को अपनी कुलदेवी के रूप में पूजते है , पुराणो से ग्यात होता है कि भगवती दुर्गा का सातवा अवतार कालिका है , इसने दैत्य शुम्भ , निशुम्भ , और सेनापती चण्ड
, मुण्ड का नाश किया था , तब से श्री कालिका जी
चामुण्डा देवी जी के नाम से प्रसिद्द हुई ,इसी लिये माँ श्री चामुण्डा देवी जी को आरण्यवासिनी ,गाजन माता तथा अम्बरोहिया , भी कहा जाता है परिहार
नाहडराव गाजन माता के परम भक्त थे , वही इनके वंशज पडिहार खाखू कुलदेवी के रूप में श्री चामुण्डा देवी जी की आराधना करते थे ,प्रतिहार ,पडिहार , परिहार राजपूत वंशजो का श्री चामुण्डा देवी जी के साथ सम्बंधो का सर्वप्रथम सटीक पडिहार खाखू से मिलता है , पडिहार खाखू
श्री चामुण्डा देवी जी की पूजा अर्चना करने चामुण्डा गॉव आते जाते थे , जो कि जोधपुर से ३० कि. मी. की दूरी पर स्थित है , घटियाला जहॉ पडिहार खाखू का निवास स्थान था , जो चामुण्डा गॉव से
४ कि. मी. की दूरी पर है ,श्री चामुण्डा देवी का मंदिर चामुण्डा गॉव में ऊँची पहाडी पर स्थित है , जिसका मुख घटियाला की ओर है , ऐसी मान्यता है कि देवी जी पडिहार खाखू जी के शरीर पर आती थी ।।।।।

--------- प्रतिहार राजवंश ---------

** श्री चामुण्डा देवी जी ( गढ जोधपुर ) **
जोधपुर राज्य के संस्थापक राव जोधा के पितामाह राव चुण्डा जी का सम्बंध भी माता चामुण्डा देवी जी से रहा था , सलोडी से महज 5 कि. मी. की दूरी पर चामुण्डा गॉव है , वहा पर राव
चुण्डा जी देवी के दर्शनार्थ आते रहते थे ,वह भी देवी के परम भक्त थे ,ऐसी मान्यता है कि एक बार राव चुण्डा जी गहरी नींद में सो रहे थे तभी रात में देवी जी ने स्वप्न में कहा कि सुबह घोडो का काफिला वाडी से होकर निकलेगा ,घोडो की पीठ पर सोने की ईंटे लदी होगीं वह तेरे भाग्य में ही है ,
सुबह ऐसा ही हुआ खजाना एवं घोडे मिल जाने के
कारण उनकी शक्ति में बढोत्तरी हुई , आगे चलकर इन्दा उगमसी की पौत्री का विवाह राव चुण्डा जी के साथ हो जाने पर उसे मण्डौर का किला दहेज के रूप में मिला था , इसके पश्चात राव चुण्डा जी ने
अपनी ईष्टदेवी श्री चामुण्डा देवी जी का मंदिर भी बनवाया था , यहा यह तथ्य उल्लेखनीय है कि देवी कि प्रतिष्ठा तो पडिहारो के समय हो चुकी थी
, अनंतर राव चुण्डा जी ने उस स्थान पर मंदिर निर्माण करवाया था मंदिर के पास वि. सं. १४५१ का लेख भी मिलता है ।अत: राव जोधा के समय पडिहारों की कुलदेवी श्री माँ चामुण्डा देवी जी
की मूर्ति जो कि मंडौर के किले में भी स्थित
थी , उसे जोधपुर के किले में स्थापित करबाई थी ,
राव जोधा जी तो जोधपुर बसाकर और मेहरानगढ जैसा दुर्ग बनाकर अमर हो गये परंतु मारवाड की रक्षा करने वाली परिहारों की कुलदेवी
श्री चामुण्डा देवी जी को अपनी ईष्टदेवी के रूप में स्वीकार कर संपूर्ण सुरक्षा का भार माँ चामुण्डा देवी जी को सौप गये , राव जोधा ने वि. सं. १५१७ ( ई. १४६० ) में मण्डौर से श्री चामुण्डा देवी जी
की मूर्ति को मंगवा कर जोधपुर के किले में स्थापित किया , श्री चामुण्डा महारानी जी मूलत: प्रतिहारों की कुलदेवी थी राठौरों की कुलदेवी श्री नागणेच्या माता जी है , और राव जोधा जी ने श्री चामुण्डा देवी जी को अपनी ईष्टदेवी के रूप में स्वीकार करके जोधपुर के किले में स्थापित किया था , ।।

** देवल ( प्रतिहार , परिहार ) वंश **
सुंधा माता जी का प्राचीन पावन तीर्थ राजस्थान प्रदेश के जालौर जिले की भीनमाल तहसील की जसवंतपुरा पंचायत समिती में आये हुये सुंधा पर्वत पर है , वह भी भीनमाल से २४ मील रानीवाडा से १४ मील और जसवंतपुरा से ८ मील दूर है । सुंधा पर्वत की रमणीक एवं सुरम्य घाटी में सांगी
नदी से लगभग ४०-४५ फीट ऊँची एक प्राचीन सुरंग से जुडी गुफा में अषटेश्वरी माँ चामुण्डा देवी जी का पुनीत धाम युगो युगो से सुसोभित है , इस सुगंध गिरी अथवा सौगंधिक पर्वत के नाम से लोक में " सुंधा माता " के नाम से विख्यात है , जिनको देवल प्रतिहार अपनी कुलदेवी के रूप में पूजा अर्चना करते है ।।

वंश - सूर्यवंशी
गोत्र - कौशिक ( कश्यप )
कुलदेवी - चामुण्डा देवी ( सुंधा माता)
वरदेवी - गाजन माता
कुलदेव - विष्णुभगवान
जय माँ भवानी।।
जय माँ चामुण्डा देवी जी।।
परिहार राजवंश।।
नागौद रियासत।।

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क्षत्रिय प्रतिहार वंश के वाराहवतार
महाराजधिराज परम्भटारक सम्राट
आज हम आप सभी भाइयों को महान क्षत्रिय
(राजपूत) सम्राट मिहिर भोज की जीवनी के
बारे में इस पोस्ट के द्वारा बताएँगे ।
प्रतिहार एक ऐसा वंश है जिसकी उत्पत्ति पर कई
महान इतिहासकारों ने शोध किए जिनमे से कुछ
अंग्रेज भी थे और वे अपनी सीमित मानसिक
क्षमताओं तथा भारतीय समाज के ढांचे को न
समझने के कारण इस वंश की उतपत्ति पर कई तरह के
विरोधाभास उतपन्न कर गए।
प्रतिहार एक शुद्ध क्षत्रिय वंश है जिसने गुर्जरा
देश से गुज्जरों को खदेड़ने व राज करने के कारण
गुर्जरा सम्राट की भी उपाधि पाई। आये
जानिए प्रतिहार वंश और सम्राट मिहिर भोज
को।
===========सम्राट मिहिर भोज
==============
सम्राट मिहिर भोज प्रतिहार अथवा परिहार
वंश के क्षत्रिय थे। मनुस्मृति में प्रतिहार,
प्रतीहार, परिहार तीनों शब्दों का प्रयोग
हुआ हैं। परिहार एक तरह से क्षत्रिय शब्द का
पर्यायवाची है। क्षत्रिय वंश की इस शाखा के
मूल पुरूष भगवान राम के भाई लक्ष्मण माने जाते
हैं। लक्ष्मण का उपनाम, प्रतिहार, होने के कारण
उनके वंशज प्रतिहार, कालांतर में परिहार
कहलाएं। कुछ जगहों पर इन्हें अग्निवंशी बताया
गया है, पर ये मूलतः सूर्यवंशी हैं। पृथ्वीराज
विजय, हरकेलि नाटक, ललित विग्रह नाटक,
हम्मीर महाकाव्य पर्व (एक) मिहिर भोज की
ग्वालियर प्रशस्ति में परिहार वंश को सूर्यवंशी
ही लिखा गया है। लक्ष्मण के पुत्र अंगद जो कि
कारापथ (राजस्थान एवं पंजाब) के शासक थे,
उन्ही के वंशज परिहार है। इस वंश की 126वीं
पीढ़ी में हरिश्चन्द्र का उल्लेख मिलता है। इनकी
दूसरी क्षत्रिय पत्नी भद्रा से चार पुत्र थे।
जिन्होंने कुछ धनसंचय और एक सेना का संगठन कर
अपने पूर्वजों का राज्य माडव्यपुर को जीत
लिया और मंडोर राज्य का निर्माण किया,
जिसका राजा रज्जिल बना।इसी का पौत्र
नागभट्ट था, जो अदम्य साहसी,
महात्वाकांक्षी और असाधारण योद्धा था।
इस वंश में आगे चलकर कक्कुक राजा हुआ, जिसका
राज्य पश्चिम भारत में सबल रूप से उभरकर सामने
आया। पर इस वंश में प्रथम उल्लेखनीय राजा
नागभट्ट प्रथम है, जिसका राज्यकाल 730 से 756
माना जाता है। उसने जालौर को अपनी
राजधानी बनाकर एक शक्तिशाली परिहार
राज्य की नींव डाली। इसी समय अरबों ने सिंध
प्रांत जीत लिया और मालवा और गुर्जर
राज्यों पर आक्रमण कर दिया। नागभट्ट ने इन्हे
सिर्फ रोका ही नहीं, इनके हाथ से सैंनधन,
सुराष्ट्र, उज्जैन, मालवा भड़ौच आदि राज्यों
को मुक्त करा लिया। 750 में अरबों ने पुनः
संगठित होकर भारत पर हमला किया और भारत
की पश्चिमी सीमा पर त्राहि-त्राहि मचा
दी। लेकिन नागभट्ट कुद्ध्र होकर गया और तीन
हजार से ऊपर डाकुओं को मौत के घाट उतार
दिया जिससे देश ने राहत की सांस ली। इसके
बाद इसका पौत्र वत्सराज (775 से 800)
उल्लेखनीय है, जिसने परिहार साम्राज्य का
विस्तार किया। उज्जैन के शासन भण्डि को
पराजित कर उसे परिहार साम्राज्य की
राजधानी बनाया।उस समय भारत में तीन
महाशक्तियां अस्तित्व में थी। परिहार
साम्राज्य-उज्जैन राजा वत्सराज, 2 पाल
साम्राज्य-गौड़ बंगाल राजा धर्मपाल, 3
राष्ट्रकूट साम्राज्य-दक्षिण भारत राजा
धु्रव। अंततः वत्सराज ने पाल धर्मपाल पर आक्रमण
कर दिया और भयानक युद्ध में उसे पराजित कर
अपनी अधीनता स्वीकार करने को विवश
किया। लेकिन ई. 800 में धु्रव और धर्मपाल की
संयुक्त सेना ने वत्सराज को पराजित कर दिया
और उज्जैन एवं उसकी उपराजधानी कन्नौज पर
पालों का अधिकार हो गया। लेकिन उसके पुत्र
नागभट्ट द्वितीय ने उज्जैन को फिर बसाया।
उसने कन्नौज पर आक्रमण उसे पालों से छीन
लिया और कन्नौज को अपनी प्रमुख राजधानी
बनाया। उसने 820 से 825-826 तक दस भयावाह
युद्ध किए और संपूर्ण उत्तरी भारत पर अधिकार
कर लिया। इसने यवनों, तुर्कों को भारत में पैर
नहीं जमाने दिया। नागभट्ट का समय उत्तम
शासन के लिए प्रसिद्ध है। इसने 120 जलाशयों
का निर्माण कराया-लंबी सड़के बनवाई। अजमेर
का सरोवर उसी की कृति है, जो आज पुष्कर
तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है। यहां तक कि पूर्व
काल में राजपूत योद्धा पुष्पक सरोवर पर वीर
पूजा के रूप में नाहड़ राय नागभट्ट की पूजा कर
युद्ध के लिए प्रस्थान करते थे। उसकी उपाधि
‘‘परम भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर थी।
नागभट्ट के पुत्र रामभद्र ने साम्राज्य सुरक्षित
रखा। इनके पश्चात् इनका पुत्र इतिहास प्रसिद्ध
मिहिर भोज साम्राट बना, जिसका
शासनकाल 836 से 885 माना जाता है।
सिंहासन पर बैठते ही भोज ने सर्वप्रथम कन्नौज
राज्य की व्यवस्था को चुस्त-दुरूस्त किया,
प्रजा पर अत्याचार करने वाले सामंतों और
रिश्वत खाने वाले कामचोर कर्मचारियों को
कठोर रूप से दण्डित किया। व्यापार और कृषि
कार्य को इतनी सुविधाएं प्रदान की गई कि
सारा साम्राज्य धनधान्य से लहलहा उठा।
भोज ने प्रतिहार साम्राज्य को धन, वैभव से
चरमोत्कर्ष पर पहुंचाया। अपने उत्कर्ष काल में उसे
सम्राट मिहिर भोज की उपाधि मिली थी।
अनेक काव्यों एवं इतिहास में उसे सम्राट भोज,
भोजराज, वाराहवतार, परम भट्टारक,
महाराजाधिराज आदि विशेषणों से वर्णित
किया गया है।
इतने विशाल और विस्तृत साम्राज्य का प्रबंध
अकेले सुदूर कन्नौज से कठिन हो रहा था। अस्तु
भोज ने साम्राज्य को चार भागो में बांटकर
चार उप राजधानियां बनाई। कन्नौज- मुख्य
राजधानी, उज्जैन और मंडोर को उप
राजधानियां तथा ग्वालियर को सह
राजधानी बनाया। प्रतिहारों का नागभट्ट
के समय से ही एक राज्यकुल संघ था, जिसमें कई
राजपूत राजें शामिल थे। पर मिहिर भोज के समय
बुदेलखण्ड और कांलिजर मण्डल पर चंदलों ने
अधिकार जमा रखा था। भोज का प्रस्ताव
था कि चंदेल भी राज्य संघ के सदस्य बने, जिससे
सम्पूर्ण उत्तरी पश्चिमी भारत एक विशाल
शिला के रूप में खड़ा हो जाए और यवन, तुर्क, हूण
आदि शत्रुओं को भारत प्रवेश से पूरी तरह रोका
जा सके। पर चंदेल इसके लिए तैयार नहीं हुए। अंततः
मिहिर भोज ने कालिंजर पर आक्रमण कर दिया
और इस क्षेत्र के चंदेलों को हरा दिया।
मिहिर भोज परम देश भक्त था-उसने प्रण किया
था कि उसके जीते जी कोई विदेशी शत्रु भारत
भूमि को अपावन न कर पायेगा। इसके लिए उसने
सबसे पहले आक्रमण कर उन राजाओं को ठीक
किया जो कायरतावश यवनों को अपने राज्य में
शरण लेने देते थे। इस प्रकार राजपूताना से कन्नौज
तक एक शक्तिशाली राज्य के निर्माण का श्रेय
मिहिर भोज को जाता है। मिहिर भोज के
शासन काल में कन्नौज साम्राज्य की सीमा
रमाशंकर त्रिपाठी की पुस्तक हिस्ट्री ऑफ
कन्नौज, पेज 246 में, उत्तर पश्चिम् में सतलज नदी
तक, उत्तर में हिमालय की तराई, पूर्व में बंगाल
तक, दक्षिण पूर्व में बुंदेलखण्ड और वत्स राज्य तक,
दक्षिण पश्चिम में सौराष्ट्र और राजपूतानें के
अधिक भाग तक विस्तृत थी। सुलेमान तवारीखे
अरब में लिखा है, कि भोज अरब लोगों का सभी
अन्य राजाओं की अपेक्षा अधिक घोर शत्रु है।
सुलेमान आगे यह भी लिखता है कि हिन्दोस्ता
की सुगठित और विशालतम सेना भोज की थी-
इसमें हजारों हाथी, हजारों घोड़े और हजारों
रथ थे। भोज के राज्य में सोना और चांदी सड़कों
पर विखरा था-किन्तु चोरी-डकैती का भय
किसी को नहीं था।
भोज का तृतीय अभियान पाल राजाओ के
विरूद्ध हुआ। इस समय बंगाल में पाल वंश का
शासक देवपाल था। वह वीर और यशस्वी था-
उसने अचानक कालिंजर पर आक्रमण कर दिया और
कालिंजर में तैनात भोज की सेना को परास्त कर
किले पर कब्जा कर लिया। भोज ने खबर पाते ही
देवपाल को सबक सिखाने का निश्चय किया।
कन्नौज और ग्वालियर दोनों सेनाओं को
इकट्ठा होने का आदेश दिया और चैत्र मास सन्
850 ई. में देवपाल पर आक्रमण कर दिया। इससे
देवपाल की सेना न केवल पराजित होकर बुरी
तरह भागी, बल्कि वह मारा भी गया। मिहिर
भोज ने बिहार समेत सारा क्षेत्र कन्नौज में
मिला लिया। भोज को पूर्व में उलझा देख
पश्चिम भारत में पुनः उपद्रव और षड्यंत्र शुरू हो
गये। इस अव्यवस्था का लाभ अरब डकैतों ने
उठाया और वे सिंध पार पंजाब तक लूट पाट करने
लगे। भोज ने अब इस ओर प्रयाण किया। उसने सबसे
पहले पंजाब के उत्तरी भाग पर राज कर रहे
थक्कियक को पराजित किया, उसका राज्य
और 2000 घोड़े छीन लिए। इसके बाद
गूजरावाला के विश्वासघाती सुल्तान अलखान
को बंदी बनाया- उसके संरक्षण में पल रहे 3000
तुर्की और हूण डाकुओं को बंदी बनाकर खूंखार
और हत्या के लिए अपराधी पाये गए पिशाचों
को मृत्यु दण्ड दे दिया। तदनन्तर टक्क देश के शंकर
वर्मा को हराकर सम्पूर्ण पश्चिमी भारत को
कन्नौज साम्राज्य का अंग बना लिया। चतुर्थ
अभियान में भोज ने परिहार राज्य के मूल राज्य
मण्डोर की ओर ध्यान दिया। त्रर्वाण,बल्ल और
माण्ड के राजाओं के सम्मिलित ससैन्य बल ने
मण्डोर पर आक्रमण कर दिया। मण्डोर का
राजा बाउक पराजित ही होने वाला था कि
भोज ससैन्य सहायता के लिए पहुंच गया। उसने
तीनों राजाओं को बंदी बना लिया और
उनका राज्य कन्नौज में मिला लिया। इसी
अभियान में उसने गुर्जरता, लाट, पर्वत आदि
राज्यों को भी समाप्त कर साम्राज्य का अंग
बना लिया।
भोज के शासन ग्रहण करने के पूर्व राष्ट्रकूटों ने
मध्य भारत और राजस्थान को बहुत सा भाग
दबा लिया था। राष्ट्रकूट सम्राट अमोघवर्ष,
भोज को परास्त करने के लिए कटिबद्ध था। 778
में नर्मदा नदी के किनारे अवन्ति में राष्ट्रकूट
सम्राट अमोधवर्ष और मान्यरखेट के राजा कृष्ण
द्वितीय दोनो की सम्मिलित सेना ने भोज
का सामना किया। यह अत्यन्त भयंकर युद्ध था।
22 दिनों के घोर संग्राम के बाद अमोघवर्ष पीछे
हट गया। इतिहासकारों का मानना है कि
छठी सदी में हर्षवर्धन के बाद उसके स्तर का पूरे
राजपूत युग में कोई राजा नहीं हुआ। लेकिन यह
सभी को पता है कि हर्षवर्धन का जब एक तरह से
दक्षिण भारत के सम्राट पुलकेशिन द्वितीय से
मुकाबला हुआ था तो हर्षवर्धन को पीछे हटना
पड़ा था। भोज के समय में राष्ट्रकूट भी दक्षिण
भारत के एक तरह से एकछत्र शासक थे। परन्तु यहां
पर राष्ट्रकूट सम्राट अमोधवर्ष को पीछे हटना
पड़ा।
स्कंद पुराण के वस्त्रापथ महात्म्य में लिखा है
जिस प्रकार भगवान विष्णु ने वाराह रूप धारण
कर हिरण्याक्ष आदि दुष्ट राक्षसों से पृथ्वी
का उद्धार किया था, उसी प्रकार विष्णु के
वंशज मिहिर भोज ने देशी आतताइयों, यवन
तथा तुर्क राक्षसों को मार भगाया और भारत
भूमि का संरक्षण किया- उसे इसीलिए युग ने
आदि वाराह महाराजाधिराज की उपाधि से
विभूषित किया था। वस्तुतः मिहिर भोज
सिर्फ प्रतिहार वंश का ही नहीं वरन हर्षवर्धन के
बाद और भारत में मुस्लिम साम्राज्य की
स्थापना के पूर्व पूरे राजपूत काल का सर्वाधिक
प्रतिभाशाली सम्राट और चमकदार सितारा
था। सुलेमान ने लिखा है-इस राजा के पास बहुत
बडी सेना है और किसी दूसरे राजा के पास
वैसी घुड़सवार सेना नहीं है। भारतवर्ष के
राजाओं में उससे बढ़कर अरबों का कोई शत्रु नहीं
है। उसके आदिवाराह विरूद् से ही प्रतीत होता
है कि वाराहवतार की मातृभूमि को अरबों से
मुक्त कराना अपना कर्तव्य समझता था। उसके
साम्राज्य में वर्तमान उत्तर प्रदेश, मध्य भारत,
ग्वालियर, मालवा, सौराष्ट्र राजस्थान
बिहार, कलिंग शामिल था। यह हिमालय की
तराई से लेकर बुदेलखण्ड तक तथा पूर्व में पाल राज्य
से लेकर पश्चिम में गुजरात तक फैला था। अपनी
महान राजनीतिक तथा सैनिक योजनाओं से
उसने सदैव इस साम्राज्य की रक्षा की।
भोज का शासनकाल पूरे मध्य युग में अद्धितीय
माना जाता है। इस अवधि में देश का चतुर्मुखी
विकास हुआ। साहित्य सृजन, शांति व्यवस्था
स्थापत्य, शिल्प, व्यापार और शासन प्रबंध की
दृष्टि से यह श्रेष्ठतम माना गया है। भयानक
युद्धों के बीच किसान मस्ती से अपना खेत
जोतता था, और वणिक अपनी विपणन मात्रा
पर निश्चिंत चला जाता था।
मिहिर भोज को गणतंत्र शासन पद्धति का जनक
भी माना जाता है, उसने अपने साम्राज्य को
आठ गणराज्यों में विभक्त कर दिया था। प्रत्येक
राज्य का अधिपति राजा कहलाता था, जिसे
आज के मुख्यमंत्री की तरह आंतरिक शासन
व्यवस्था में पूरा अधिकार था। परिषद का
प्रधान सम्राट होता था और शेष राजा मंत्री
के रूप में कार्य करते थे। वह जितना वीर था,
उतना ही दयाल भी था, घोर अपराध करने
वालों को भी उसने कभी मृत्यदण्ड नहीं दिया,
किन्तु दस्युओं, डकैतों, हूणो, तुर्कों अरबों, का
देश का शत्रु मानने की उसकी धारणा स्पष्ट थी
और इन्हे क्षमा करने की भूल कभी नहीं की और न
ही इन्हें देश में घुसने ही दिया। उसने मध्य भारत
को जहां चंबल के डाकुओं से मुक्त कराया, वही
उत्तर, पश्चिमी भारत को विदेशियों से मुक्त
कराया। सच्चाई यही है कि जब तक परिहार
साम्राज्य मजबूत रहा, देश की स्वतंत्रता पर आंँच
नहीं आई।
मिहिरभोज की यह दूरदर्शिता ही थी कि
उसने राज्यकुल संघ बना रखा था। जिसका
परिणाम था मिहीरभोज का राज्य अत्यधिक
विशाल था और यह महेन्द्रपाल और महिपाल के
शासनकाल ई. सन् 931 तक कायम रहा। इस दौर में
प्रतिहार राज्य की सीमाएं गुप्त साम्राज्य से
भी ज्यादा बड़ी थी। इस साम्राज्य की
तुलना पूर्व में मात्र मौर्य साम्राज्य और
परवर्ती काल में मुगल साम्राज्य से ही की जा
सकती है। वस्तुतः इतिहास का पुर्नमूल्यांकन कर
यह बताने की जरूरत है कि उस पूर्व मध्यकाल दौर
के हमारे महानायक सम्राट मिहिर भोज ही थे।
ऐसे महान सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार को
हमारा शत शत नमन_/\_
---प्रतिहार राजपूतो की वर्तमान
स्थिति---
भले ही यह विशाल प्रतिहार राजपूत
साम्राज्य बाद में खण्डित हो गया हो लेकिन
इस वंश के वंशज राजपूत आज भी इसी साम्राज्य
की परिधि में मिलते हैँ।
उत्तरी गुजरात और दक्षिणी राजस्थान में
भीनमाल के पास जहाँ प्रतिहार वंश की शुरुआत
हुई, आज भी वहॉ प्रतिहार राजपूत पड़िहार
आदि नामो से अच्छी संख्या में मिलते हैँ।
प्रतिहारों की द्वितीय राजधानी मारवाड़
में मंडोर रही। जहाँ आज भी प्रतिहार राजपूतो
की इन्दा शाखा बड़ी संख्या में मिलती है।
राठोड़ो के मारवाड़ आगमन से पहले इस क्षेत्र पर
प्रतिहारों की इसी शाखा का शासन था
जिनसे राठोड़ो ने जीत कर जोधपुर को अपनी
राजधानी बनाया। 17वीं सदी में भी जब कुछ
समय के लिये मुगलो से लड़ते हुए राठोड़ो को
जोधपुर छोड़ना पड़ गया था तो स्थानीय
इन्दा प्रतिहार राजपूतो ने अपनी पुरातन
राजधानी मंडोर पर कब्जा कर लिया था।
इसके अलावा प्रतिहारों की अन्य राजधानी
ग्वालियर और कन्नौज के बीच में प्रतिहार
राजपूत परिहार के नाम से बड़ी संख्या में मिलते
हैँ।
मध्यप्रदेश में भी परिहारों की अच्छी संख्या है।
यहाँ परिहारों की एक राजशाही रियासत नागौद आज
भी है जो मिहिरभोज के सीधे वंशज हैँ और उनके
पास इसके प्रमाण भी हैँ।
प्रतिहारों की एक शाखा राघवो का राज्य
वर्तमान में उत्तर राजस्थान के अलवर, सीकर,
दौसा में था जिन्हें कछवाहों ने हराया। आज
भी इस क्षेत्र में राघवो की खडाड शाखा के
राजपूत अच्छी संख्या में हैँ। इन्ही की एक शाखा
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर, अलीगढ़,
रोहिलखण्ड और दक्षिणी हरयाणा के गुडगाँव
आदि क्षेत्र में बहुसंख्या में है। एक और शाखा
मढाढ के नाम से उत्तर हरयाणा में मिलती है।
राजस्थान के सीकर से ही राघवो की एक
शाखा सिकरवार निकली है जिसका फतेहपुर
सिकरी पर राज था और जो आज उत्तर प्रदेश,
बिहार और मध्यप्रदेश में विशाल संख्या में मिलते
हैँ। विश्व का सबसे बड़ा गाँव उत्तर प्रदेश के
गाजीपुर जिले का गहमर सिकरवार राजपूतो
का ही है।
उत्तर प्रदेश में सरयूपारीण क्षेत्र में भी प्रतिहार
राजपूतो की विशाल कलहंस शाखा मिलती है।
इनके अलावा संपूर्ण मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश,
बिहार और उत्तरी महाराष्ट्र आदि में(जहाँ
जहाँ प्रतिहार साम्राज्य फैला था) अच्छी
संख्या में ।।

जय मिहिर भोज परिहार ।।
जय माँ भवानी ।।
जय माँ चामुण्डा देवी।।

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मित्रों यह उपर के तीन चित्रों में पहला परिहारों की शाखा इंदा परिहारों का सिंबल जो आपको मंडौर जोधपुर राजस्थान में ज्यादा संख्या में मिलेंगे। दूसरा अलीपुरा राज्य का सिंबल है यह राज्य आपको मध्य प्रदेश के ग्वालियर में मौजूद है। तीसरा खनेती राज्य जो वर्तमान में हिमाचल प्रदेश में है। बीच में परिहारों का सबसे बड़ा राज्य नागौद रियासत जो मध्य प्रदेश के सतना जिला मे वर्तमान में है।जिसमें बीच में राज्य का सिंबल ओर दोनों साइड रियासत के आखिरी महाराजा महेन्द्र सिंह जू देव जी है। फिर चौथा सिंबल बेलासर के पडिहार राजपूत शासक का है जो उन्हें बीकानेर रियासत द्वारा मिला है। पांचवे में सूर्य का चित्र है क्योंकि हम सूर्यवंशी क्षत्रिय है।छठे मे हमारे वंश के कुल भूषण महान वीर शासक आदिवाराह परमेश्वर सम्राट मिहिर भोज प्रतिहार जी का चित्र है। इन सब की जानकारी आपको इंटरनेट पर भी उपलब्ध मिलेगी। यह अफवाह जो है कि हम अग्निवंशी क्षत्रिय है। यह सरासर कपोकाल्पनिक है। परिहार वंश का निकास श्रीराम जी के अनुज लक्ष्मण जी से है जो वह प्रतिहार(प्रहरी) के रूप मे थे इसलिए आंगे चलकर इसे प्रतिहार वंश के नाम से जाना जाता है जो शिलालेखों ओर इतिहास में पूर्णतः माना गया है परिहार वंश का हद से ज्यादा शोध होने पर ही आज यह दुर्गति है। कहीं अग्निवंशी तो कहीं गुर्जर जाति से जोडा गया है। मित्रों आज मैं आपको बताना चाहता हूं कि प्रतिहार राजपूतों के साथ गुर्जारा शब्द क्यों जुड गया है। प्राचीन गुर्जररात्र के बाहर निवास करने वाली अनेक जातिया गुर्जर नाम से जानी जाती हैँ। इनमे सौराष्ट्र और कच्छ में मिलने वाली गुर्जर ब्राह्मण, गुर्जर मिस्त्री, गुर्जर लोहार, गुर्जर बढ़ई आदि अनेक जाती हैँ जिन्हें सिर्फ प्राचीन गुर्जरात्र से आने की वजह से गुर्जर कहा जाता है। बाकी इनमे कोई racial similarity नही हैँ। इसी तरह उत्तर महाराष्ट्र में एक ही जगह डोरे गुर्जर, लेवा गुर्जर और कडवा गुर्जर नाम की अलग अलग जातिया मिलती हैँ। इनमे से डोरे गुर्जर अपने को राजपूत कहते हैँ और प्राचीन गुर्जरात्र से आया बताते हैँ। इनमे प्राचीन गुजरात में मिलने वाले राजपूत वंश ही मिलते हैँ। हालांकि नॉन राजपूतो में शादी करने से इनका स्टेटस low हो गया है, इसीलिए local राजपूत इनको हेय दृष्टि से देखते हैँ। लेवा गुर्जर अपने को गुजरात से आए लेवा कुनबी बताते हैँ जो अब वहा पाटीदार या पटेल के नाम से भी जाने जाते हैँ। कडवा गुर्जर गुजरात से आए कडवा कुनबी हैँ। इन तीनो जातियो में कोई racial similarity नही हैँ।
इसी तरह नार्थ वेस्ट इंडिया में मिलने वाली एक गुर्जर चरवाहा जाती जो अपने को तथाकथित प्राचीन गुर्जर जाती का वंशज बताती है, वो भी गुजरात से आने के कारण ही गुर्जर कहलाई है। इसके कोई प्रमाण नही है की अगर कोई गुर्जर जाती थी भी तो यह जाती उसकी वंशज है। गौरतलब है की इस जाती में तथाकथित गुर्जर बताए जाने वाले प्रतिहार, सोलंकी आदि वंश बिलकुल नही मिलते। गौरतलब है की जहाँ प्राचीन गुर्जरात्र की सीमाए थी वहॉ कोई गुर्जर नाम की जाती नही मिलती। सभी गुर्जर नाम की जातिया इस क्षेत्र के बाहर ही मिलती हैँ इससे यह साबित होता है कि गुर्जर शब्द एक geographical expression को denote करता है। गुर्जर शब्द भी एक शिलालेख पर अब तक मिला ओर परिहारों के अब तक के किसी भी ताम्रपत्र ओर शिलालेख मे इस शब्द ओर जाति का वर्णन नहीं मिला जिससे यह प्रमाणित है कि प्रतिहार परिहार ओर उनकी अन्य शाखाऐं शुद्ध क्षत्रिय राजपूत वंश है। इतिहास हमारे साथ है यह केवल कुछ नीच जातियाँ खुद को क्षत्रिय साबित होने का पड़यंत्र कर रही है। खासकर जाट ओर गुज्जर इनमें प्रमुख है।ओर आजकल तो दिल्ली के कुछ इलाकों का नामकरण भी इन गुज्जरो ने गुर्जर सम्राट मिहिर भोज जी के नाम से रखा है।ओर तो दिल्ली का ही बहुत ही फेमस मंदिर अक्षरधाम आप सभी ने देखा ओर सुना होगा वहां भी मिहिर भोज परिहार जी की मूर्ति स्थापित कर उस पर गुर्जर सम्राट बताया ओर प्रदर्शित किया जा रहा है। मित्रों आप सभी हमारा साथ दीजिए इस भ्रम को दूर करने में इसे ज्यादा से ज्यादा शेयर करके।।।

वंश - सूर्यवंशी परिहार क्षत्रिय।।
कुलदेवी - चामुण्डा देवी।।
गोत्र - कौशिक।।
जय माँ भवानी।

History of King Pratihar / parihar Mihir bhoj


~~ प्रतिहार राजपूत ~~~
~~~ पढकर शेयर जरुर करें ~~~
~~ सम्राट मिहिर भोज प्रतिहार का जीवन परिचय ~~

मिहिर भोज परिहार जी का जन्म सम्राट रामभद्र परिहार की महारानी अप्पा देवी के द्वारा सूर्यदेव
की उपासना के प्रतिफल के रूप में हुआ माना जाता है। सम्राट मिहिर भोज के बारे में इतिहास की पुस्तकों के अलावा बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। मिहिर भोज ने 836 ईस्वीं से 885 ईस्वीं तक
49 साल तक राज किया। मिहिर भोज के
साम्राज्य का विस्तार आज के मुलतान से पश्चिम बंगाल तक ओर कश्मीर से कर्नाटक तक था।
सम्राट मिहिर भोज बलवान, न्यायप्रिय और
धर्म रक्षक थे। मिहिर भोज शिव शक्ति के उपासक थे। स्कंध पुराण के प्रभास खंड में भगवान शिव के प्रभास क्षेत्र में स्थित शिवालयों व पीठों का उल्लेख है। प्रतिहार साम्राज्य के काल में सोमनाथ को भारतवर्ष के प्रमुख तीर्थ स्थानों में माना जाता था। प्रभास क्षेत्र की प्रतिष्ठा काशी विश्वनाथ के समान थी। स्कंध पुराण के प्रभास खंड में सम्राट मिहिर भोज के जीवन के बारे में विवरण मिलता है। मिहिर भोज के संबंध में कहा जाता है कि वे सोमनाथ के परम भक्त थे उनका विवाह भी सौराष्ट्र में ही हुआ
था। उन्होंने मलेच्छों से पृथ्वी की रक्षा की। 50
वर्ष तक राज्य करने के पश्चात वे अपने बेटे महेंद्रपाल को राज सिंहासन सौंपकर सन्यासवृति के लिए वन में चले गए थे।सम्राट मिहिर भोज का सिक्का जो की मुद्रा थी उसको सम्राट मिहिर भोज ने 836 ईस्वीं में कन्नौज को देश की राजधानी बनाने पर चलाया था। सम्राट मिहिर भोज महान के सिक्के पर वाराह भगवान जिन्हें कि भगवान विष्णू के अवतार के तौर पर जाना जाता है। वाराह
भगवान ने हिरण्याक्ष राक्षस को मारकर पृथ्वी को पाताल से निकालकर उसकी रक्षा की थी।सम्राट मिहिर भोज का नाम आदिवाराह भी है। ऐसा होने के पीछे दो कारण हैं पहला जिस प्रकार वाराह भगवान ने पृथ्वी की रक्षा की थी और हिरण्याक्ष का वध किया था ठीक उसी प्रकार सम्राट भोज ने
मलेच्छों(मुगलो,अरबों)को मारकर अपनी मातृभूमि की रक्षा की। दूसरा कारण सम्राट का जन्म वाराह जयंती को हुआ था जो कि भादों महीने की शुक्ल पक्ष के द्वितीय दोज को होती है। सनातन धर्म के अनुसार इस दिन चंद्रमा का दर्शन करना बहुत शुभ फलदायक माना जाता है। इस दिन के 2 दिन बाद
महाराष्ट्र में गणेश चतुर्थी का उत्सव प्रारंभ
हो जाता है। जिन स्थानों पर प्रतिहारों, परिहारों, पडिहारों, इंदा, राघव, अन्य शाखाओं को सम्राट भोज के जन्मदिवस का पता है वे इस वाराह जयंती को बड़े धूमधाम से मनाते हैं। जिन भाईयों को इसकी जानकारी नहीं है आप उन लोगों के
इसकी जानकारी दें और सम्राट मिहिर भोज का जन्मदिन बड़े धूमधाम से मनाने की प्रथा चालू करें।
अरब यात्रियों ने किया सम्राट मिहिर भोज का यशोगान अरब यात्री सुलेमान ने अपनी पुस्तक
सिलसिलीउत तुआरीख 851 ईस्वीं में लिखी जब वह भारत भ्रमण पर आया था। सुलेमान सम्राट मिहिर भोज के बारे में लिखता है कि परिहार सम्राट
की बड़ी भारी सेना है। उसके समान किसी राजा के पास उतनी बड़ी सेना नहीं है। सुलेमान ने यह
भी लिखा है कि भारत में सम्राट मिहिर भोज से बड़ा इस्लाम का कोई शत्रू नहीं है। मिहिर भोज के पास ऊंटों, हाथियों और घुडसवारों की सर्वश्रेष्ठ सेना है। इसके राज्य में व्यापार, सोना चांदी के सिक्कों से होता है। यह भी कहा जाता है कि उसके राज्य में सोने और चांदी की खाने
भी हैं।यह राज्य भारतवर्ष का सबसे सुरक्षित क्षेत्र है। इसमें डाकू और चोरों का भय नहीं है। मिहिर भोज राज्य की सीमाएं दक्षिण में राष्ट्रकूटों के राज्य,पूर्व में बंगाल के पाल शासक और पश्चिम में
मुलतान के शासकों की सीमाओं को छूती है। शत्रू
उनकी क्रोध अग्नि में आने के उपरांत ठहर नहीं पाते थे। धर्मात्मा, साहित्यकार व विद्वान उनकी सभा में सम्मान पाते थे। उनके दरबार में राजशेखर
कवि ने कई प्रसिद्ध ग्रंथों की रचना की। कश्मीर
के राज्य कवि कल्हण ने अपनी पुस्तक राज तरंगणी में सम्राट मिहिर भोज का उल्लेख किया है। उनका विशाल साम्राज्य बहुत से राज्य मंडलों आदि में विभक्त था। उन पर अंकुश रखने के लिए
दंडनायक स्वयं सम्राट द्वारा नियुक्त किए जाते
थे। योग्य सामंतों के सुशासन के कारण समस्त साम्राज्य में पूर्ण शांति व्याप्त थी। सामंतों पर सम्राट का दंडनायकों द्वारा पूर्ण नियंत्रण था।
किसी की आज्ञा का उल्लंघन करने व सिर उठाने
की हिम्मत नहीं होती थी। उनके पूर्वज सम्राट नागभट्ट परिहार ने स्थाई सेना संगठित कर उसको नगद वेतन देने की जो प्रथा चलाई वह इस
समय में और भी पक्की हो गई और प्रतिहार परिहार राजपूत साम्राज्य की महान सेना खड़ी हो गई। यह भारतीय इतिहास का पहला उदाहरण है,
जब किसी सेना को नगद वेतन दिया जाता हो।

परिहार क्षत्रिय राजपूत राजवंश।।
जय मिहिर भोज जी।।
जय माँ भवानी।।
जय क्षात्र धर्म।।
नागौद स्टेट।।

Pratihar / Parihar Vansh and king Mihir Bhoj Not Gujjar or Gurjar. they are Pratihar/ Parihar Kshatriya Rajputs


#TheColonialMythof GurjaraPratihara
== Must share after read this ==

भाइयों आज से हम एक ऐसे क्षत्रिय राजपूत राजवंश के ऊपर अपनी पोस्ट्स की शृंखला शुरू करने जा रहें है जिसके इतिहास को कई विदेशी व उनके देसी वाम्पन्ति इतिहासकारों ने अपने तरह तरह के ख्याली पुलाव व तर्कहीन वादों से दूषित करने की कोशिश की और वे इस कार्य में कुछ हद तक सफल भी रहे। परंतु आज के समय में जब साधन व संसाधन बढ़ गएँ है और सभी प्रकार के ऐतिहासिक साक्ष्य जन साधारण व विशेषज्ञ शोधकर्ताओं के पहुच के भीतर उपलब्ध ही चुके है तो नए विश्लेषण पुराने बेतुके तर्कों के साथ तोड़ मरोड़ कर पेश किये गए इतिहास की कलई खोल रहें हैं।

दरहसल पुरातन काल से ये माना जाता रहा है के इतिहास उसी का होता है जिसका शाशन होता है और शाशक आदिकाल से इतिहास को तोड़ मरोड़ के अपने अनुसार जन साधारण के सामने प्रस्तुत कर उनकी भावनाओं का फायदा उठातें आएं हैं।

भारत में पढ़ाये जा रहे जिस इतिहास को आज हम पढ़तें है व दरहसल 18 वीं सदी में अंग्रेजों द्वारा दी व सिखाई पदत्ति पर आधारित है। और यही नहीं भारत के इतिहास में पढाई जाने वाली ज्यादातर विषय और मान्यताएँ आज आजादी के 68 सालों बाद भी इन्हीं अंग्रेजों की देन है। अब आप अनुमान लगा ही सकते हैं के जो विदेशी भारतीय परम्पराओं व मान्यताओं और उसकी समझ से कोसों दूर थे बिलकुल अलग सभ्यता और संस्कृति से थे वे क्या तो भारत की संस्कृति को समझें होंगे और क्या ही इतिहास बांच के गए होंगे।
दरहसल अंग्रेज भारतीय इतिहास को अपनी सियासत का हिस्सा समझ इससे खेलते रहे और भारतीय समाज की संस्कृति नष्ट करने के लिए व इसका बखूबी इस्तेमाल कर गए। दरहसल आज पढ़ाये जाने वाला भारतीय इतिहास की नींव लगभग उसी समय शुरू हुई जब भारत के लोगों ने अंग्रेजों के शाशन के खिलाफ बिगुल बजाया और सन 1857 की क्रांति का उद्घोष हुआ। ऐसे में ज्यादातर अंग्रेज इतिहासकार भारत पर अपने कमजोर होते शाशन को देख इतिहास को सियासी बिसात पर एक हथियार के भांति इस्तेमाल कर के चले गए। जैसे की हम सभी इस कथन से अनिभिज्ञ नहीं है के यदि आप किसी जाती समुदाय के संस्कृति नष्ट करदे तो उस पर अपनी संस्कृति थोप गुलाम बनाने में देर नहीं लगती। अंग्रेज इस कथन का महत्व जान इतिहास की तोड़ मरोड़ भारत की पर प्रहार संस्कृति व् उसके विनाश के लिए कर गए। इस तोर मरोड़ की चपेट में आकर सबसे ज्यादा जिस जाती को नुकसान झेलना पड़ा वो है भारत का अपना आर्य क्षत्रिय वर्ग जिसका विशेषण शब्द है "राजपूत"।

ये उन अंग्रेजों से कम कहाँ जिन्होंने भारत में रहने वाले आर्य व वेदिक संस्कृति में उतपन्न क्षत्रिय वर्ग जिसका विशेषण राजपूत शब्द था उन्हें 6वीं शताब्दी तक सीमित करने की कोशिश की और निराधार तरीके से राजपूतों के प्रति रंजिश निकालते हुए उन्हें निराधार रूप से शक हूण सींथ साबित करने की कोशिश की। वहीं आज के नव सामंतवादी जातियाँ निराधार इतिहास लिख कर उस सोशल मीडिया व इंटरनेट द्वारा फैला कर हमें राजपूत प्रयायवाची या विशेषण शब्द के आधारपर 11वीं सदी तक सीमित करने की फ़िराक में हैं।

दरहसल कई अंग्रेज और वामपंथी (भगवान व भारतीय संस्कृति को न मानाने वाले) इतिहासकारों के इतिहास को धूमिल करने के तर्क इतने बेवकूफी भरे है के कई बार उन्हें पढ़ कर भारतवर्ष इसके अस्तित्व और यहाँ की शोध् पदत्ति पर बहोत हँसी आती है। कोई हिंदुओं को कायर मान और राजपूतों को बहादुर जान के आधार पर विदेशी लिख गया । कोई 36 राजवंशों में मजूद हूल को हूण समझ राजपूतों को आर्य क्षत्रियों और हूनो की मिलीजुली संतान लिख गया। किसी ने तो राजपूतों के लडाके स्वाभाव को देख श्री राम और कृष्ण को ही सींथ और शक लिख दिया। किसी ने द्विज शब्द का अर्थ ब्राह्मण बना दिया किसी गुर्जरा देस पर राज करने वाले सभी वंशों को बेतुका गुर्जर लिख दिया। हद तो तब हो गयी जब किसी ने राजपूतों के अंतर पाये जाने वाली सती प्रथा, विधवा विवाह न होना व मांसाहार के प्रचलन के करण इन्हें विदेशी होने का संदेह जाता कर इतिहास परोस दिया और लिख दिया 6ठी शताब्दी के बाद ही राजपूत क्षत्रियों का उद्भव हुआ।
जबकि C V Vaid, G S ojha , K N Munshi or Dashrath Sharma जैसे महान इतिहासकार इन मतों को सिरे से ख़ारिज कर चुकें हैं और राजपूतों को आर्य क्षत्रिय ही मानते हैं जो की पूर्ण रूप से सत्य भी है।

शुद्ध रघुवंशी क्षत्रिय प्रतिहारों का इतिहास जानने से पहले आइये नजर डालते हैं उस जाती की उतपत्ति के मतों पर जो इस वंश पर झूठा दावा पेश करती है (जिसे NCERT ही नहीं मानता)।

गुज्जर ( गौ + चर ) जाती की उतपत्ति के मत:

डा भगवानलाल इन्द्राजी का गुजर इतिहास :

इनके अनुसार गुजर जाती भारतवर्ष के पश्चिमोत्तर मार्ग द्वारा आई गयी विदेशी जाती है जो प्रथम पंजाब में आबाद होकर धीरे धीरे गुजरात खानदेश की और फैली हालाँकि इसका कोई प्रमाण नहीं है। ये और लिखते है की गुजर कुषाण वंशी राजा कनिष्क के राज्यकाल 078 - 108 ईस्वी के समय भारत आये हालांकि इसका भी कोई प्रमाण नहीं है। ये अपने लेख में आगे और तर्क हीन तथा प्रमानरहित बात करते हुए गुजरात चौथी से आठवी शताब्दी के बीच में राज कर रहे मैत्रक वंश को भी गुर्जर होने का संदेह जाता गए जिसे हवेनत्सांग क्षत्रिय बता कर गया है। इन्होंने अपनी थ्योरी सिद्ध करने के लिए आगे सारी हदें ही पार करदी। ये लिखतें की हालांकि गुजरात में गुज्जरों की कई जातियाँ हैं जैसे गुजर बनिये , गुजर सुथार , गुजर सोनी , गुजर सुनार , गुजर कुंभार , गुजर ब्राह्मण , गुजर सिलावट और सबसे ज्यादा गुजर कुर्मी जो सभी गौचर जाती से बने। निष्चित रूप से इतिहासकार सनकी होते थे और अपना उल्लू सीधा करने के लिए किसी भी हद्द तक ख्याली पुलाव पका पका कर परोस देते थे। जिस कुर्मी जाती के ये बात कर रहें है दरहसल गुजरात का पटेल समुदाय है जो शुद्ध रूप से भारतीय जाती है।

सर काम्बैल की गुजर थ्योरी

सर काम्बैल ने भी अपने ख्याली पुलाव पकाये और गुजर को खजर जाती का ही बता डाला जो 6ठी शतब्दी में यूरोप और एशिया की सीमा पर स्थित के ताकतवर जाती थी। जिसका भी शब्द से शब्द जोड़ कर बनाना और तुक्के बाजी के अलावा कोई प्रमाण नहीं है।

बेडेन पॉवेल के अनुसार गुजर :

"इसमें कोई संदेह नहीं है के पंजाब में भारी संख्या में बसने वाली जातियाँ ये सिद्ध करती है की वेदिशी आक्रमणकरी यथा बाल इंडो सींथियन ,गुजर और हूणों ने अपनों बस्ती बसाई होगी। पर इस कथन का भी इनके पास कोई प्रमाण नहीं।
ए ऍम टी जैकसन और भंडारकर द्वारा अविश्वसनीय गुज्जरों की खोज :

ए ऍम टी जैकसन तो आज के गुज्जरों के जन्मदाता माने जाने चाहिए| सन् 941 में कन्नड़ के सुप्रसिद्ध कवि पम्प जे विक्रमार्जुन विजय (पम्प भारत ) नाम का काव्य रचा| इस काव्य में चोल देश के चालुक्य (सोलंकी) राजा अरिकेसरी द्वितीय और उसके पूर्वजो की शौर्य गाथा लिखी हुई थी। उसमें पम्प यह वर्णन करता है कि अरिकेसरी के पिता नरसिंह द्वितीय (यह राष्ट्रकूटों का सामंत था )ने गुर्जरराज महिपाल को प्रारस्त कर उससे राजश्री छीन और उसका पीछा कर अपने घोड़ो को गंगा के संगम पर स्नान कराया। इस बात की पुष्टि राष्ट्रकूटों के अभिलेख भी करते हैं परंतु इन अभिलेखों में न तो प्रतिहार और ना ही गुजर शब्द का जिक्र मिलता है।
पम्प भारत में गुर्जरराज महिपाल लिखा देख अककल के अंधे जैक्सन ने यह मान लिया की यह महिपालगुर्जर अर्थात गूजर वंश का है। अगर हम किसी महामूर्ख या पागल आदमी से पूछें की गुर्जराराज का क्या अर्थ है ? तो वह भी यही बताएगा की इसका अर्थ तो सीधा साधा गुर्जर देस का राजा हुआ। गुर्जरराज का वास्तविक अर्थ गुर्जरदेस पर राज करने वाला है,गुजर जाती नहीं | यह भी ज्ञात होना बहोत जरूरी है के ऍम टी जैक्सन डिस्ट्रिक कलेक्टर थे इतिहासकार नहीं।
जैक्सन और डा डी आर भंडारकर के पारिवारिक तालुकात थे फिर भी वह इनके द्वारा दिए गए कुछ इतिहासिक विवरणों से इत्तेफाक रखते थे। डा डी आर भंडारकर सन 1907 में पुरातात्विक सर्वेक्षण के दौरान भीनमाल पहुचे तो उन्होंने पाया के जैक्सन ने वहां के जिन मंदिरो के शिलालेखों के अध्यन कर बॉम्बे गजेटियर प्रकाशित किया उनके मूल वचन बहोत भ्रष्ट थे अतः भंडारकर ने दुबारा इनकी छाप ली।
राजस्थान दौरे से लौट कर भंडारकर ने इस बात का स्पष्टीकरण भी जैक्सन से माँगा परंतु उसने देने से इंकार कर दिया। जैकसन और भंडारकर में मतभेद काफी समय तक रहे और पत्र व्यव्हार भी होते रहे |
कुछ समय बाद नासिक में कुम्भ का मेला हुआ जिसमे जैक्सन की हत्या कर दी गई। जैक्सन जाते जाते भंडारकर के कान में क्या मन्त्र फूक गया पता नहीं की वो एक दम से जैकसन की हाँ में हाँ मिलाने लग गया।

जैकसन की मृत्यु के बाद उसको श्रधांजलि देते हुए आर जी भंडारकर और स्वयं डी आर भंडारकर ने अपनी संवेदना के पत्र इंडियन antiquery जान 1911 की भाग 40 में प्रकाशित करवाये और उसकी विचारधारा पर आधारित इतिहास का सबसे विवादस्पक लेख "फॉरेन एलिमेंट इन दी हिन्दू पापुलेशन" छापा।
गुरु तो निराधार रूप से प्रतिहार और चावड़ा वंश को ही गुजर बता कर नर्क चला गया परन्तु चेले ने तो और भी कमाल कर दिखाया। संस्कृत श्लोकों के मनमाने अर्थ और मुद्राओं की मनमानी व्याख्या और शिलालेखों की त्रुटिपूर्ण अर्थ निष्पत्ति से आधे गुजरात और तजस्थान को गुजर बतला दिया गया। जैसे भारत के इस हिस्से दूसरी कोई और जाती हो ही नहीं।

यह तो ऐसा पागलपण था जो बीसवीं सदी के बंगाली इतिहासकारों और विद्वानों को अपनी चपेट में ले लिया था । ये प्राचीन भारत के महाकवियों , मूर्धन्य विद्वानों को बंगाली बनाने या सिद्ध करने के जोड़ तोड़ में लगे रहते थे यहां तक की महाकवि कालिदास को भीं इन्होंने नहीं छोड़ा|

भंडारकर का यह पक्षपात उनके समय और बाद के कई इतिहासकारों जैसे डा बिन्दिराज ने दर्ज की। और मनगढ़ंत लिखने के कारण भंडारकर इतिहास के विषय में अपनी क्रेडिबिलिटी खो गए जिसे आज भी साजिश के तहत विकिपीडिया पर दिखाया जाता है।

स्मिथ और उसकी गूजर अवधारणा

गुलाम भारत के आंग्ल इतिहासकार विन्सेंट ए स्मिथ ने ई स की 20 वीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में अपने ग्रन्थ ' अर्ली हिस्ट्री ऑफ़ इण्डिया फ्रॉम 600 बी सी टू मोहम्मडन कॉन्क़ुएस्ट' प्रस्तुत किया।

इनके अनुसार प्राचीन लेखों में हूणों के साथ गूजरों का भी उल्लेख मिलता है जो आजकल को गुज्जर जाती है जो उत्तर पश्चिम भारत में निवास करती है। इनके 'अनुमान' से गुज्जर श्वेत हूणों के साथ आये थे और इनके संबंधी थे। इन्होंने राजपूताने में राज्य स्थापित किया और भीनमाल को अपनी राजधानी बनाया। इनके अनुसार भरूच का छोटा सा गुजर सम्राज्य भी राजस्थान के प्रतिहारों की शाखा थी और गुर्जरा की प्रतिहारों ने ही समय पाकर कन्नोज को कब्ज़ा लिया।
अपने से पूर्व आने वाले शक और यु ची ( कुषाण ) लोगों के समान यह विदेशी जाती भी शीघ्र ही हिन्दू धर्म में मिल गई। इनके जिन कुटुम्बों या शाखाओं ने कुछ भूमि पर अधिकार कर लिया वे तत्काल क्षत्रिय (प्रतिहार) और उत्तर भारत के कई दुसरे प्रसिद्ध राजवंश इन्हीं जंगली गुजर समुदाय से निकले हैं जो ई स 5 वीं या 6ठी शताब्दी में हिंदुस्तान आये थे। इन विदेशी सैनिकों और साथियों से गूजर और दूसरी जातियां बनी जो पद और प्रतिष्ठा में राजपूतों से कम थे।

इसी ग्रन्थ के अन्य उल्लेख में स्मिथ कहता है '' इतिहासिक प्रमाणों से भारत में तीन बाहरी जातियाँ सिद्ध हैं जिसमें से शक , कुषाण और का वर्णन कर चूका है। निःसंदेह शक और कुषाण राजाओं ने हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया तब वे हिन्दू जाती प्रथा के अनुसार क्षत्रियों में मिला लिए गए, किन्तु इस कथन के पीछे हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है।"( पेज 407, उसी किताब में)।

हा हा हा। तो स्मिथ भईया ने भी कल्पना के घोड़े सांतवे आसमान तक दौड़ा कर भारतीय इतिहास लिख डाला जिसका कोई प्रमाण उनके पास नहीं था। निश्चित ही आर्यों की महान सभ्यता को लांछित कर के वह नर्क ही गए होंगे।

और अंत में स्मिथ हूणों के बारे में कहता है," शक कुशान के बाद भारत में प्रवेश करने वाली तीसरी जाती हूण या श्वेत हूण थी जो पांचवी या छठी शताब्दी के प्रारंभ में यहाँ आई। इन तीनों के साथ कई जातियों ने भारत में प्रवेश किया|

मनुष्यों की जातियाँ निर्णय करने वाली विद्या पुरातत्व और सिक्कों ने विद्वानों के चित्त पर अंकित कर दिया है कि हूणों ने ही हिन्दू संथाओं और हिन्दू राजनीती को हिला कर रख दिया ... हूण जाती ही विशेशकर राजपुताना और पंजाब में स्थाई हुई जैसे भारत में आर्य तो लुप्त ही हो गए।
स्मिथ के कथनानुसार गुर्जर हूणों का एक विभाग है परंतु जनरल cunnigham ' उन्हें यू ची या टोचरि लुटेरी जातियों के वंशज बतातें हैं।"(Cunningham Archeological survey of India,1963-64, भाग 2, पृ 70.)

समीक्षा

निश्चित रूप से इतिहास उत्थान और पतन की कुंजी है | इस रहस्य को समझ क्र अंग्रेजों ने भारतीय इतिहास को विकृत करने की कोशिश करने में अपने पूर्ण सामर्थ्य के साथ योजनाबढ़ काम किया। इस कार्य के लिये मध्यकाल की भारतीय समाज की अज्ञानता और धार्मिक जड़ता के साथ कूप मंडकुता और पराधीनता ने उन्हें मनवांछित फल प्रदान किया है।
यह सत्य है की इतिहासिक शोध की नई प्राणाली के जन्म दाता वही रहे हैं, परंतु यह भी उतना ही सत्य है कि शोध के नाम पर किये गए विश्लेषण में उनके जातीय और राजनीतिक हितों ने जबरदस्त हस्तक्षेप किया है और यह सिलसिला आजादी के बाद उभरी जातियों ने आज भी अपने लाभ के लिए जारी रखा है।
विन्सेंट स्मिथ अर्ली हिस्ट्री और इण्डिया में भारत का प्राचीनतम इतिहास लिख रहा था, तोता मैना की कहानी नहीं। जब वह स्वयं स्वीकार कर रहा है ' इस कथन के पीछे कोई प्रमाण नहीं है। जब प्रमाण ही शून्य है तब उठा कल्पना को इतिहास के कलेवर में रखने की कोनसी विवशता या आवश्यकता थी??

धुनिया रुई घुनंने के लिए रुई पर नहीं तांत पर प्रहार करता है, ठीक यही नीती अंग्रेज लेखकों ने अपनाइ। स्मिथ और उसकी चोकड़ी का निशाना कितना सही था? स्मिथ के निराधार लेख प्रकाशित होते ही राजपूतों को गुजर मानने का प्रवाह इतने वेग से चला कि कई विद्वानों ने चावड़ा , प्रतिहार , परमार , चौहान , तंवर , सोलंकी , राठौड़ , गहरवार आदि आदि को गुजर वंशी बतलाने के लिए कई लेख लिख डाले।
इतिहास की सीमा से परे इस कल्पना ने गूजरों के साथ निम्न जातियों में दूषित भावना भरने की कोशिश की गई जिससे जातीय एकता भंग होने के साथ भारतीय वर्ण व्यवस्था में संदेह और कटुता पैदा हुआ जिससे बंधुत्व भावना गला घोट दिया गया और यही अंग्रेज चाहते थे।

इसी समय अंतराल में भारत वर्ष के तमाम राजवंशों से संभंधित अनेकों तथ्यपूर्ण शिलालेख , ताम्र शाशनपत्र , प्राचीन मुद्राएं और प्राचीन महाकाव्य प्रकाश में आते रहे परन्तु इन साम्राज्य वादी लेखकों ने इस सामग्री की निरंतर अवहेलना की और उनकी परिपाटी पर चलने वाले भारतीय प्रतिग्रही विद्वानों की जड़ता भंग नहीं हुई और वे भी भारतीय इतिहासिक सामग्री से मूहँ मोड़ते हुए अंग्रेजी आकाओं द्वारा शोध के नाम पर प्रस्तुत कूड़ा करकट से अपनी सम्बद्धता प्रदर्शित करते रहे।
यह कितने दुर्भाग्य की बात है बॉम्बे गजट के लिए गुजरात का प्राचीन इतिहास लिखने वाला देशी विद्वान पंडत डॉक्टर भगवानलाल इंद्रजी की धारणा है की गुजर कुषाणों के साथ आये परंतु सिद्ध करने के लिए उसके पास कोई प्रमाण नहीं है। इनका यह कहना है की गुप्तवंशियों के समय इन्हें राजपुताना, गुजरात और मालवा में जागीर मिली हो परंतु इसके लिए भी उन्होंने कोई प्रमाण नहीं दिया। अगर कोई प्रमाण होता तो ढेरों गुप्त अभिलेखों और भड़ौच के गूजरों के अभिलेख प्राप्त हो चुके हैं।

समीक्षा

निश्चित रूप से इतिहास उत्थान और पतन की कुंजी है | इस रहस्य को समझ क्र अंग्रेजों ने भारतीय इतिहास को विकृत करने की कोशिश करने में अपने पूर्ण सामर्थ्य के साथ योजनाबढ़ काम किया। इस कार्य के लिये मध्यकाल की भारतीय समाज की अज्ञानता और धार्मिक जड़ता के साथ कूप मंडकुता और पराधीनता ने उन्हें मनवांछित फल प्रदान किया है।
यह सत्य है की इतिहासिक शोध की नई प्राणाली के जन्म दाता वही रहे हैं, परंतु यह भी उतना ही सत्य है कि शोध के नाम पर किये गए विश्लेषण में उनके जातीय और राजनीतिक हितों ने जबरदस्त हस्तक्षेप किया है और यह सिलसिला आजादी के बाद उभरी जातियों ने आज भी अपने लाभ के लिए जारी रखा है।
विन्सेंट स्मिथ अर्ली हिस्ट्री और इण्डिया में भारत का प्राचीनतम इतिहास लिख रहा था, तोता मैना की कहानी नहीं। जब वह स्वयं स्वीकार कर रहा है ' इस कथन के पीछे कोई प्रमाण नहीं है। जब प्रमाण ही शून्य है तब उठा कल्पना को इतिहास के कलेवर में रखने की कोनसी विवशता या आवश्यकता थी??

धुनिया रुई घुनंने के लिए रुई पर नहीं तांत पर प्रहार करता है, ठीक यही नीती अंग्रेज लेखकों ने अपनाइ। स्मिथ और उसकी चोकड़ी का निशाना कितना सही था? स्मिथ के निराधार लेख प्रकाशित होते ही राजपूतों को गुजर मानने का प्रवाह इतने वेग से चला कि कई विद्वानों ने चावड़ा , प्रतिहार , परमार , चौहान , तंवर , सोलंकी , राठौड़ , गहरवार आदि आदि को गुजर वंशी बतलाने के लिए कई लेख लिख डाले।
इतिहास की सीमा से परे इस कल्पना ने गूजरों के साथ निम्न जातियों में दूषित भावना भरने की कोशिश की गई जिससे जातीय एकता भंग होने के साथ भारतीय वर्ण व्यवस्था में संदेह और कटुता पैदा हुआ जिससे बंधुत्व भावना गला घोट दिया गया और यही अंग्रेज चाहते थे।

इसी समय अंतराल में भारत वर्ष के तमाम राजवंशों से संभंधित अनेकों तथ्यपूर्ण शिलालेख , ताम्र शाशनपत्र , प्राचीन मुद्राएं और प्राचीन महाकाव्य प्रकाश में आते रहे परन्तु इन साम्राज्य वादी लेखकों ने इस सामग्री की निरंतर अवहेलना की और उनकी परिपाटी पर चलने वाले भारतीय प्रतिग्रही विद्वानों की जड़ता भंग नहीं हुई और वे भी भारतीय इतिहासिक सामग्री से मूहँ मोड़ते हुए अंग्रेजी आकाओं द्वारा शोध के नाम पर प्रस्तुत कूड़ा करकट से अपनी सम्बद्धता प्रदर्शित करते रहे।
यह कितने दुर्भाग्य की बात है बॉम्बे गजट के लिए गुजरात का प्राचीन इतिहास लिखने वाला देशी विद्वान पंडत डॉक्टर भगवानलाल इंद्रजी की धारणा है की गुजर कुषाणों के साथ आये परंतु सिद्ध करने के लिए उसके पास कोई प्रमाण नहीं है। इनका यह कहना है की गुप्तवंशियों के समय इन्हें राजपुताना, गुजरात और मालवा में जागीर मिली हो परंतु इसके लिए भी उन्होंने कोई प्रमाण नहीं दिया। अगर कोई प्रमाण होता तो ढेरों गुप्त अभिलेखों और भड़ौच के गूजरों के अभिलेख प्राप्त हो चुके हैं।

गुज्जरों की हस्याप्तक जॉर्जियन उतपत्ति

जॉर्जियन गणितज्ञ डा जी चोगोसोविलि और भारतीय भू विज्ञानिक प्रॉ खटाना ने तो 80 के दशक में फेकने की सारी हदें फेंक डाली और गुर्जरों को जॉर्जिया से मिलते जुलते जाती नाम के बेस पर जॉर्जियन ही बता डाला ( भाई शक्ल और सूरत तो देख ली होती कम से कम)। गौर तलब बात यह है की दोनों ही महाशय इतिहासकार नहीं थे परंतु शब्द से शब्द जोड़ कर नई बखर रच डाली। इनके अनुसार गुर्जर जॉर्जिया के जॉर्जत्ति नदी के पास से भारत में सदियों विस्थापित हो सकते है। इन्होने हर उस चीज जिसके नाम के साथ गू शब्द जुड़ा या सम्बन्ध रखता हो को गूजरों से जोड़ कर इतिहास रचने की कोशिश की। हा हा हा परंतु ये दोनों भी अंत में खुद ही लिखते है गूजरों का जॉर्जिया से संभंद प्रमाणित नहीं किया जा सकता पर ये संभावित हो सकता है। जूठ फैलने की हद्द तो हम उसी दिन मान गए जब कई गुज्जरों को अपनी गाड़ियों के पीछे जॉर्जियन लिखवाते देखा। हा हा हा हद्द है।

तो मित्रों प्रतिहारों उतपत्ति के सारे भ्रमों को तोड़ते हुए इस लेख के पहले भाग में हमने यह बताने की कोशिश की कैसे अंग्रेजो ने इतिहास के जरिये भारतीय समाज के अभिन्न अंग क्षत्रियों को विदेशी बता कर उनके और दूसरी जातियों के बीच अविश्वास पैदा करने और दरार पैदा करने की कोशिश की जिससे यह समाज बंटे। बड़े दुर्भाग्य की बात है की अपने जिस इतिहास को वो खुद ही अप्रमाणित कह कर गए है उसका प्रचलन भारतीय समाज को तोड़ने के लिए आज भी किया जा रहा है और राजपूतों को बदनाम किया जा रहा है।
इन्ही कुछ मूर्ख इतिहासकारों का फायदा आज की गुजर जाती के कुछ मूर्ख लोग उठा रहे है और अपने ही समाज को भ्रमित कर रहें है जबकि इनके खुद का इतिहास ही इतना विरोधभासी है और अप्रमाणित है। अपने पूर्वजों का ज्ञान नहीं तो देश के क्षत्रियों को ही अपने बाप दादा साबित करने की कोशिश कर रहें है ताकि पैसे के साथ साथ सम्मान भी मिले।

जबकि डा सी वि वैद्य , दशरथ शर्मा , गौरी शंकर ओझा , बी न मिश्रा बिन्दयराज अदि जैसे न कितने भारतीय इतिहासकार राजपूतों को भारतीय क्षत्रिय साबित कर चुके है सभी प्रमाणों के साथ और विदेशी उत्पीति की बखर को सरा सर नकार चुकें हैं।

इस श्रृंख्ला के अगले भाग में हम आपको वे सारे प्रमाण देंगे जिनसे साफ़ साफ़ पता चलता है प्रतिहारों के शिलालेखों में लिखे गुर्जरा शब्द का अर्थ स्थान सूचक था जिसे जबरदस्ती गुजर जाती बनाने की कोशिश की गयी।
साथ ही साथ डा शांता रानी शर्मा के नए शोध MYTH OF GUJJAR ORIGIN OF PRATIHAR और डॉ ऐरावत सिंह के भी नए शोध THE COLONIAL MYTH OF GURJARA ORIGIN OF PRATIHARAS के बारे में भी बताएँगे जिसमे साफ साफ़ प्रतिहारों की गुज्जर उतपत्ति कि सभी थेओरी का तर्क पूर्ण खण्डन किया गया है। सभी नए शोध उन सभी के मूह पर तमाचा है जो प्रतिहारों को गुज्जर बनाने की कोशिशों में जूटे हुए है और विकिपीडिया जैसी तुच्छ साईट का हवाला देते हैं।

जय माता जी
जय राजपूताना

Pratihar / Parihar Kshatriya Rajputsand their State Symbol of india

मित्रों इस चित्र में परिहारों के राज्य सिंबल है।

1 - नागौद राज्य , वर्तमान मध्य प्रदेश में
2 - अलीपुरा राज्य , वर्तमान मध्य प्रदेश में
3 - खनेती राज्य , वर्तमान हिमांचल प्रदेश में
4 - मण्डौर राज्य ,वर्तमान राजस्थान में

जय माँ चामुण्डा देवी ।।
जय नागभट्ट परिहार।।
जय क्षात्र धर्म ।।

king Mihir bhoj Parihar and their state time silver coin who Ruled From kannauj 836 AD to 885 AD

प्रतिहार राजपूत वंश के परम प्रतापी सम्राट मिहिर भोज जी के शासन के समय राज्य की आर्थिक व्यवस्था को अच्छा बनाये रखने के लिए चांदी के सिक्के चलवाये गये थे जिनमे विष्णु भगवान के अवतार आदिवाराह जी का चित्र भी बनवाया गया था।। आप सभी देखकर जरुर शेयर करें।।

जय माँ भवानी।।
जय प्रतिहार वंश।।
जय माँ चामुण्डा देवी।।

The battle Of rajasthan between Parihar rajpus and Arabs


.......सम्राट नागभट्ट प्रतिहार .........

प्रतिहार(परिहार)राजपूतो की वीरता पर शानदार पोस्ट जरूर पढ़ें और शेयर करें।

के.एम.पन्निकर ने अपनी पुस्तक "सर्वे ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री "में लिखा है -"जो शक्ति मोहम्मद साहिब की मृत्यु के सौ साल के अंदर एक तरफ चीन की दिवार तक पंहुच गयी थी ,तथा दूसरीऔर मिश्र को पराजित करते हुए उतरी अफ्रिका को पार कर के स्पेन को पद दलित करते हुए दक्षिणी फ़्रांस तक पंहुच गयी थी ,जिस ताकत के पास अनगिनित सेना थी तथा जिसकी सम्पति का कोई अनुमान नही था ,जिसने रेगिस्तानी प्रदेशों को जीता तथा पहाड़ी व् दुर्लभ प्रांतों को भी फतह किया था।

इन अरब सेनाओं ने जिन जिन देशों व् साम्राज्यों को विजय किया ,वंहा कितनी भी सम्पन्न संस्कृति थी उसे समाप्त किया तथा वंहा के निवासियों को अपना धर्म छोड़ कर इस्लाम स्वीकार करना पड़ा। ईरान , मिश्र आदि मुल्कों की संस्कृति जो बड़ी प्राचीन व विकसित थी ,वह इतिहास की वस्तु बन कर रह गयी। अगर अरब हिंदुस्तान को भी विजय कर लेते तो यहां की वैदिक संस्कृति व धर्म भी उन्ही देशों की तरह एक भूतकालीन संस्कृति के रूप में ही शेष रहता। इस सबसे बचाने का भारत में कार्य नागभट्ट प्रतिहार ने किया। उसने खलीफाओं की महान आंधी को देश में घुसने से रोका और इस प्रकार इस देश की प्राचीन संस्कृति व धर्म को अक्षुण रखा। देश के लिए यह उसकी महान देन है। परिहार वंश में वैसे तो कई महान राजा हुए पर सबसे ज्यादा शक्तिशाली नागभट्ट प्रथम एवं मिहिर भोज जी थे जिन्होने अपने जीवन मे कभी भी मुगल और अरबों को भारत पर पैर जमाने का मौका नहीं दिया । इसीलिए आप सभी मित्रों ने कई प्रसिद्ध ऐतिहासिक किताबो पर भी पढा होगा की प्रतिहारों को ईसलाम का सबसे बड़ा दुश्मन बताया गया है।।

ब्रिटिश इतिहासकार कहते थे कि भारत कभी एक " राष्ट्र " था ही नहीं वामी इतिहासकार कहते हैं कि भारत राष्ट्रीयता की भावना से " एक " हुआ ही नहीं --- धर्मनिरपेक्ष इतिहासकार कहते हैं कि " हिंदुत्व और इस्लाम " में कोई संघर्ष था ही नहीं
--- मुस्लिम कहते है कि इस्लाम के शेरों के सामाने निर्वीर्य हिंदू कभी टिके ही नहीं ...--- हमें तो यही बताया गया है , यही पढाया गया है कि हिंदू सदैव हारते आये हैं .. They are born looser , और आप भी शायद ऐसा ही मानते हों ,पर क्या ये सच है ?

...................नहीं ....................

तो फिर सच क्या है ? क्या हमारे पूर्वजों के भी कुछ कारनामे हैं ? कुछ एसे कारनामे जिनपर हम गर्व कर सकें ? जवाब है ..... हाँ ...हैं .....एसे ढेर सारे कारनामे जिन्होंने इस देश ही नहीं विश्व इतिहास को भी प्रभावित किया और जिनके कारण आज हम हमारी संस्कृति जीवित है और हम अपना सिर ऊंचा करके खडे हो सकते हैं .क्या थे वे कारनामे ? कौन थे वे जिन्होंने इन्हें अंजाम दिया और हम उनसे अंजान हैं ??

------->

समय - 730 ई.

मुहम्मद बिन कासिम की पराजय के बाद खलीफा हाशिम के आदेश पर जुनैद इब्न अब्द ने मुहम्मद बिन कासिम के अधूरे काम को पूरा करने का बीडा उठाया . बेहद शातिर दिमाग जुनैद समझ गया था कि कश्मीर के महान योद्धा शासक ललितादित्य मुक्तापीड और कन्नौज के यशोवर्मन से वह नहीं जीत सकता , इसीलिये उसने दक्षिण में गुजरात के रास्ते से राजस्थान और फिर मध्यभारत को जीतकर ( और शायद फिर कन्नौज की ओर) आगे बढने की योजना बनाई . और अपनी सेना के दो भाग किये -
१- अल रहमान अल मुर्री के नेतृत्व में गुजरात की ओर
२- स्वयं जुनैद के नेतृत्व में मालवा की ओर

-- अरब तूफान की तरह आगे बढे . नांदीपुरी में दद्द द्वारा स्थापित प्राचीन राज्य , राजस्थान में मंडोर का हरिश्चंद्र द्वारा स्थापित प्राचीन राज्य , चित्तौड का मोरी राज्य इस तूफान में उखड गये और यहाँ तक कि अरब उज्जैन तक आ पहुँचे और अरबों को लगने लगा कि वे स्पेन ,ईरान और सिंध की कहानी भी यहाँ बस दुहराने ही वाले हैं ..स्थित सचमुच भयावनी हो चुकी थी ..और ....तब ....तब भारत के गौरव को बचाने के लिये अपने यशस्वी पूर्वजों के नाम पर वे अपने सुयोग्य नेता नागभट्ट प्रथम के नेतृत्व में उठ खडे हुए . वे थे ---

..........." प्रतिहार " .............

--- प्रतिहार रघुवंशी क्षत्रिय है
--- प्रतिहार श्रीराम के भाई लक्ष्मण जी के वंशज है
--- प्रतिहार धर्मरक्षा के लिये अग्निकुंड से जन्म के मिथक के कारण अग्निवंशी भी कहलाते है .
वे शायद गुप्त और वर्धन साम्राज्य के सबसे विश्वसनीय और प्रतिष्ठापूर्ण सैनिक सेवा " प्रतिहार " बटालियन के पीढीगत योद्धा थे , इसीलिये वे अपनी सैनिक पदवी " प्रतिहार " नाम से भी पहचाने जाते थे .

वे भारतीय इतिहास के रंगमंच पर एसे समय प्रकट हुए जब भारत अब तक के ज्ञात सबसे भयंकर खतरे का सामना कर रहा था . भारत संस्कृति और धर्म , उसकी ' हिंद ' के रूप में पहचान खतरे में थी अरबों के रूप में " इस्लाम " हिंदुत्व " को निगलने के लिये बेचैन था .

नागभट्ट प्रतिहार के नेतृत्व में दक्षिण के चालुक्य राजा विक्रमादित्य द्वितीय और नागदा के गुहिलौत वंश के राणा खुम्माण जिन्हें इतिहास " बप्पा रावल " के नाम से जानता है , के साथ एक संघ बनाया गया . संभवतः यशोवर्मन और ललितादित्य भी अपने राष्ट्रीय कर्तव्य से पीछे नहीं हटे और उन्होंने भी इस संघ को सैन्य सहायता भेजी . मुकाबला फिर भी गैरबराबरी का था ----

--- 100000 मुस्लिम योद्धा v/s 40000 हिंदू योद्धा .

और फिर शुरू हुयी कई युद्धों की श्रंखला जिसे मुस्लिम और वामिये इतिहासकार छुपाते आये हैं -

........... " The Battle of Rajsthaan " .............

विक्रमादित्य चालुक्य के सेनापति अवनिजनाश्रय पुलिकेशिन ने अल मुर्री को बुरी तरह पराजय दी ,
- नागभट्ट ने जुनैद को पीछे खदेड दिया
- और अंत में नागभट्ट और बप्पा रावल ने जुनैद को घेर लिया और फिर राजस्थान की सीमा पर हुआ संयुक्त राजपूत सैन्य और अरबों का निर्णायक युद्ध जो भारत में अरबों की किस्मत का फैसला करने वाला था . सैन्य रूप से अरब अभी भी भारी बढत में थे उनके 30000 घुड्सवार , ऊँटसवार और पैदल सेना के मुकाबले में हिंदूसैन्य केवल 6000 घुडसवार और पैदल सेना का था .पर अरबों की संख्या पर राजपूतों का दुधारी खांडा बहुत भारी पडा . नागभट्ट और बप्पा रावल की बेहतरीन रणनीति और हिंदू योद्धाओं की वीरता ने मुस्लिम सेना को ना केवल बुरी तरह मात दी बल्कि भारत में अरबों का सबसे महान जनरल जुनैद युद्ध में मारा भी गया .

-भागती मुस्लिम सेना का क्रूरतापूर्वक सिंधु तक पीछा किया गया और उनका सफाया किया गया जुनैद के बाद तमिन ने एक कोशिश और की परंतु इसका परिणाम मात्र इतना हुआ कि अरब सदैव के लिये सिंधु के उस पार धकेल दिये गये और मात्र टापूनुमा शहर " मनसुरा " तक सीमित होकर रह गये . इस तरह ना केवल विश्व को यह बताया गया कि हिंदुत्व के योद्धा , शारीरिक बल में श्रेष्ठ हैं बल्कि यह भी कि उनके हथियार , उनकी युद्ध तकनीक और रणनीति विश्व में सर्वश्रेष्ठ है .

इस तरह भारत की सीमाओं को सुरक्षित रखते हुए उन्होंने अपना नाम सार्थक किया --

---"" प्रतिहार राजवंश "" ---
--- ' The door keepers of India ' ---

जय नागभट्ट परिहार।।
जय मिहिर भोज परिहार।।
जय माँ भवानी।।
जय क्षात्र धर्म।।

700 Hundred years old Pratihar Architecture


मित्रों यह मंदिर लगभग 700 साल पुराना है इसका निर्माण परिहार राजपूत राजाओं द्वारा किया गया था।।

जय माँ भवानी।।
जय माँ चामुण्डा।।
जय क्षात्र धर्म।।

The two Pratihar / parihar Kshatriya Rajputs Brave warriors of india naagbhatt and mihir bhoj


-- परिहार क्षत्रिय राजवंश के दो महानायक --
....सम्राट नागभट्ट प्रतिहार ...
(730- 760) A.D.

प्रतिहार(परिहार)राजपूतो की वीरता पर शानदार पोस्ट जरूर पढ़ें और शेयर करें।

के.एम.पन्निकर ने अपनी पुस्तक "सर्वे ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री "में लिखा है -"जो शक्ति मोहम्मद साहिब की मृत्यु के सौ साल के अंदर एक तरफ चीन की दिवार तक पंहुच गयी थी ,तथा दूसरीऔर मिश्र को पराजित करते हुए उतरी अफ्रिका को पार कर के स्पेन को पद दलित करते हुए दक्षिणी फ़्रांस तक पंहुच गयी थी ,जिस ताकत के पास अनगिनित सेना थी तथा जिसकी सम्पति का कोई अनुमान नही था ,जिसने रेगिस्तानी प्रदेशों को जीता तथा पहाड़ी व् दुर्लभ प्रांतों को भी फतह किया था।

इन अरब सेनाओं ने जिन जिन देशों व् साम्राज्यों को विजय किया ,वंहा कितनी भी सम्पन्न संस्कृति थी उसे समाप्त किया तथा वंहा के निवासियों को अपना धर्म छोड़ कर इस्लाम स्वीकार करना पड़ा। ईरान , मिश्र आदि मुल्कों की संस्कृति जो बड़ी प्राचीन व विकसित थी ,वह इतिहास की वस्तु बन कर रह गयी। अगर अरब हिंदुस्तान को भी विजय कर लेते तो यहां की वैदिक संस्कृति व धर्म भी उन्ही देशों की तरह एक भूतकालीन संस्कृति के रूप में ही शेष रहता। इस सबसे बचाने का भारत में कार्य नागभट्ट प्रतिहार ने किया। उसने खलीफाओं की महान आंधी को देश में घुसने से रोका और इस प्रकार इस देश की प्राचीन संस्कृति व धर्म को अक्षुण रखा। देश के लिए यह उसकी महान देन है। परिहार वंश में वैसे तो कई महान राजा हुए पर सबसे ज्यादा शक्तिशाली नागभट्ट प्रथम एवं मिहिर भोज जी थे जिन्होने अपने जीवन मे कभी भी मुगल और अरबों को भारत पर पैर जमाने का मौका नहीं दिया । इसीलिए आप सभी मित्रों ने कई प्रसिद्ध ऐतिहासिक किताबो पर भी पढा होगा की प्रतिहारों को ईसलाम का सबसे बड़ा दुश्मन बताया गया है।।

ब्रिटिश इतिहासकार कहते थे कि भारत कभी एक " राष्ट्र " था ही नहीं वामी इतिहासकार कहते हैं कि भारत राष्ट्रीयता की भावना से " एक " हुआ ही नहीं --- धर्मनिरपेक्ष इतिहासकार कहते हैं कि " हिंदुत्व और इस्लाम " में कोई संघर्ष था ही नहीं
--- मुस्लिम कहते है कि इस्लाम के शेरों के सामाने निर्वीर्य हिंदू कभी टिके ही नहीं ...--- हमें तो यही बताया गया है , यही पढाया गया है कि हिंदू सदैव हारते आये हैं .. They are born looser , और आप भी शायद ऐसा ही मानते हों ,पर क्या ये सच है ?

...................नहीं ....................

तो फिर सच क्या है ? क्या हमारे पूर्वजों के भी कुछ कारनामे हैं ? कुछ एसे कारनामे जिनपर हम गर्व कर सकें ? जवाब है ..... हाँ ...हैं .....एसे ढेर सारे कारनामे जिन्होंने इस देश ही नहीं विश्व इतिहास को भी प्रभावित किया और जिनके कारण आज हम हमारी संस्कृति जीवित है और हम अपना सिर ऊंचा करके खडे हो सकते हैं .क्या थे वे कारनामे ? कौन थे वे जिन्होंने इन्हें अंजाम दिया और हम उनसे अंजान हैं ??

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समय - 730 ई.

मुहम्मद बिन कासिम की पराजय के बाद खलीफा हाशिम के आदेश पर जुनैद इब्न अब्द ने मुहम्मद बिन कासिम के अधूरे काम को पूरा करने का बीडा उठाया . बेहद शातिर दिमाग जुनैद समझ गया था कि कश्मीर के महान योद्धा शासक ललितादित्य मुक्तापीड और कन्नौज के यशोवर्मन से वह नहीं जीत सकता , इसीलिये उसने दक्षिण में गुजरात के रास्ते से राजस्थान और फिर मध्यभारत को जीतकर ( और शायद फिर कन्नौज की ओर) आगे बढने की योजना बनाई . और अपनी सेना के दो भाग किये -
१- अल रहमान अल मुर्री के नेतृत्व में गुजरात की ओर
२- स्वयं जुनैद के नेतृत्व में मालवा की ओर

-- अरब तूफान की तरह आगे बढे . नांदीपुरी में दद्द द्वारा स्थापित प्राचीन राज्य , राजस्थान में मंडोर का हरिश्चंद्र द्वारा स्थापित प्राचीन राज्य , चित्तौड का मोरी राज्य इस तूफान में उखड गये और यहाँ तक कि अरब उज्जैन तक आ पहुँचे और अरबों को लगने लगा कि वे स्पेन ,ईरान और सिंध की कहानी भी यहाँ बस दुहराने ही वाले हैं ..स्थित सचमुच भयावनी हो चुकी थी ..और ....तब ....तब भारत के गौरव को बचाने के लिये अपने यशस्वी पूर्वजों के नाम पर वे अपने सुयोग्य नेता नागभट्ट प्रथम के नेतृत्व में उठ खडे हुए . वे थे ---

..........." प्रतिहार " .............

--- प्रतिहार रघुवंशी क्षत्रिय है
--- प्रतिहार श्रीराम के भाई लक्ष्मण जी के वंशज है
--- प्रतिहार धर्मरक्षा के लिये अग्निकुंड से जन्म के मिथक के कारण अग्निवंशी भी कहलाते है .
वे शायद गुप्त और वर्धन साम्राज्य के सबसे विश्वसनीय और प्रतिष्ठापूर्ण सैनिक सेवा " प्रतिहार " बटालियन के पीढीगत योद्धा थे , इसीलिये वे अपनी सैनिक पदवी " प्रतिहार " नाम से भी पहचाने जाते थे .

वे भारतीय इतिहास के रंगमंच पर एसे समय प्रकट हुए जब भारत अब तक के ज्ञात सबसे भयंकर खतरे का सामना कर रहा था . भारत संस्कृति और धर्म , उसकी ' हिंद ' के रूप में पहचान खतरे में थी अरबों के रूप में " इस्लाम " हिंदुत्व " को निगलने के लिये बेचैन था .

नागभट्ट प्रतिहार के नेतृत्व में दक्षिण के चालुक्य राजा विक्रमादित्य द्वितीय और नागदा के गुहिलौत वंश के राणा खुम्माण जिन्हें इतिहास " बप्पा रावल " के नाम से जानता है , के साथ एक संघ बनाया गया . संभवतः यशोवर्मन और ललितादित्य भी अपने राष्ट्रीय कर्तव्य से पीछे नहीं हटे और उन्होंने भी इस संघ को सैन्य सहायता भेजी . मुकाबला फिर भी गैरबराबरी का था ----

--- 100000 मुस्लिम योद्धा v/s 40000 हिंदू योद्धा .

और फिर शुरू हुयी कई युद्धों की श्रंखला जिसे मुस्लिम और वामिये इतिहासकार छुपाते आये हैं -

........... " The Battle of Rajsthaan " .............

विक्रमादित्य चालुक्य के सेनापति अवनिजनाश्रय पुलिकेशिन ने अल मुर्री को बुरी तरह पराजय दी ,
- नागभट्ट ने जुनैद को पीछे खदेड दिया
- और अंत में नागभट्ट और बप्पा रावल ने जुनैद को घेर लिया और फिर राजस्थान की सीमा पर हुआ संयुक्त राजपूत सैन्य और अरबों का निर्णायक युद्ध जो भारत में अरबों की किस्मत का फैसला करने वाला था . सैन्य रूप से अरब अभी भी भारी बढत में थे उनके 30000 घुड्सवार , ऊँटसवार और पैदल सेना के मुकाबले में हिंदूसैन्य केवल 6000 घुडसवार और पैदल सेना का था .पर अरबों की संख्या पर राजपूतों का दुधारी खांडा बहुत भारी पडा . नागभट्ट और बप्पा रावल की बेहतरीन रणनीति और हिंदू योद्धाओं की वीरता ने मुस्लिम सेना को ना केवल बुरी तरह मात दी बल्कि भारत में अरबों का सबसे महान जनरल जुनैद युद्ध में मारा भी गया .

-भागती मुस्लिम सेना का क्रूरतापूर्वक सिंधु तक पीछा किया गया और उनका सफाया किया गया जुनैद के बाद तमिन ने एक कोशिश और की परंतु इसका परिणाम मात्र इतना हुआ कि अरब सदैव के लिये सिंधु के उस पार धकेल दिये गये और मात्र टापूनुमा शहर " मनसुरा " तक सीमित होकर रह गये . इस तरह ना केवल विश्व को यह बताया गया कि हिंदुत्व के योद्धा , शारीरिक बल में श्रेष्ठ हैं बल्कि यह भी कि उनके हथियार , उनकी युद्ध तकनीक और रणनीति विश्व में सर्वश्रेष्ठ है .

इस तरह भारत की सीमाओं को सुरक्षित रखते हुए उन्होंने अपना नाम सार्थक किया --

---"" प्रतिहार राजवंश "" ---
-- The door keepers of India --

-- सम्राट मिहिर भोज प्रतिहार --
(836-885) A.D.

क्षत्रिय प्रतिहार वंश के वाराहवतार
महाराजधिराज परम्भटारक सम्राट
आज हम आप सभी भाइयों को महान क्षत्रिय
(राजपूत) सम्राट मिहिर भोज की जीवनी के
बारे में इस पोस्ट के द्वारा बताएँगे ।
प्रतिहार एक ऐसा वंश है जिसकी उत्पत्ति पर कई
महान इतिहासकारों ने शोध किए जिनमे से कुछ
अंग्रेज भी थे और वे अपनी सीमित मानसिक
क्षमताओं तथा भारतीय समाज के ढांचे को न
समझने के कारण इस वंश की उतपत्ति पर कई तरह के
विरोधाभास उतपन्न कर गए।
प्रतिहार एक शुद्ध क्षत्रिय वंश है जिसने गुर्जरा
देश से गुज्जरों को खदेड़ने व राज करने के कारण
गुर्जरा सम्राट की भी उपाधि पाई। आये
जानिए प्रतिहार वंश और सम्राट मिहिर भोज
को।
===========सम्राट मिहिर भोज
==============
सम्राट मिहिर भोज प्रतिहार अथवा परिहार
वंश के क्षत्रिय थे। मनुस्मृति में प्रतिहार,
प्रतीहार, परिहार तीनों शब्दों का प्रयोग
हुआ हैं। परिहार एक तरह से क्षत्रिय शब्द का
पर्यायवाची है। क्षत्रिय वंश की इस शाखा के
मूल पुरूष भगवान राम के भाई लक्ष्मण माने जाते
हैं। लक्ष्मण का उपनाम, प्रतिहार, होने के कारण
उनके वंशज प्रतिहार, कालांतर में परिहार
कहलाएं। कुछ जगहों पर इन्हें अग्निवंशी बताया
गया है, पर ये मूलतः सूर्यवंशी हैं। पृथ्वीराज
विजय, हरकेलि नाटक, ललित विग्रह नाटक,
हम्मीर महाकाव्य पर्व (एक) मिहिर भोज की
ग्वालियर प्रशस्ति में परिहार वंश को सूर्यवंशी
ही लिखा गया है। लक्ष्मण के पुत्र अंगद जो कि
कारापथ (राजस्थान एवं पंजाब) के शासक थे,
उन्ही के वंशज परिहार है। इस वंश की 126वीं
पीढ़ी में हरिश्चन्द्र का उल्लेख मिलता है। इनकी
दूसरी क्षत्रिय पत्नी भद्रा से चार पुत्र थे।
जिन्होंने कुछ धनसंचय और एक सेना का संगठन कर
अपने पूर्वजों का राज्य माडव्यपुर को जीत
लिया और मंडोर राज्य का निर्माण किया,
जिसका राजा रज्जिल बना।इसी का पौत्र
नागभट्ट था, जो अदम्य साहसी,
महात्वाकांक्षी और असाधारण योद्धा था।
इस वंश में आगे चलकर कक्कुक राजा हुआ, जिसका
राज्य पश्चिम भारत में सबल रूप से उभरकर सामने
आया। पर इस वंश में प्रथम उल्लेखनीय राजा
नागभट्ट प्रथम है, जिसका राज्यकाल 730 से 756
माना जाता है। उसने जालौर को अपनी
राजधानी बनाकर एक शक्तिशाली परिहार
राज्य की नींव डाली। इसी समय अरबों ने सिंध
प्रांत जीत लिया और मालवा और गुर्जर
राज्यों पर आक्रमण कर दिया। नागभट्ट ने इन्हे
सिर्फ रोका ही नहीं, इनके हाथ से सैंनधन,
सुराष्ट्र, उज्जैन, मालवा भड़ौच आदि राज्यों
को मुक्त करा लिया। 750 में अरबों ने पुनः
संगठित होकर भारत पर हमला किया और भारत
की पश्चिमी सीमा पर त्राहि-त्राहि मचा
दी। लेकिन नागभट्ट कुद्ध्र होकर गया और तीन
हजार से ऊपर डाकुओं को मौत के घाट उतार
दिया जिससे देश ने राहत की सांस ली। इसके
बाद इसका पौत्र वत्सराज (775 से 800)
उल्लेखनीय है, जिसने परिहार साम्राज्य का
विस्तार किया। उज्जैन के शासन भण्डि को
पराजित कर उसे परिहार साम्राज्य की
राजधानी बनाया।उस समय भारत में तीन
महाशक्तियां अस्तित्व में थी। परिहार
साम्राज्य-उज्जैन राजा वत्सराज, 2 पाल
साम्राज्य-गौड़ बंगाल राजा धर्मपाल, 3
राष्ट्रकूट साम्राज्य-दक्षिण भारत राजा
धु्रव। अंततः वत्सराज ने पाल धर्मपाल पर आक्रमण
कर दिया और भयानक युद्ध में उसे पराजित कर
अपनी अधीनता स्वीकार करने को विवश
किया। लेकिन ई. 800 में धु्रव और धर्मपाल की
संयुक्त सेना ने वत्सराज को पराजित कर दिया
और उज्जैन एवं उसकी उपराजधानी कन्नौज पर
पालों का अधिकार हो गया। लेकिन उसके पुत्र
नागभट्ट द्वितीय ने उज्जैन को फिर बसाया।
उसने कन्नौज पर आक्रमण उसे पालों से छीन
लिया और कन्नौज को अपनी प्रमुख राजधानी
बनाया। उसने 820 से 825-826 तक दस भयावाह
युद्ध किए और संपूर्ण उत्तरी भारत पर अधिकार
कर लिया। इसने यवनों, तुर्कों को भारत में पैर
नहीं जमाने दिया। नागभट्ट का समय उत्तम
शासन के लिए प्रसिद्ध है। इसने 120 जलाशयों
का निर्माण कराया-लंबी सड़के बनवाई। अजमेर
का सरोवर उसी की कृति है, जो आज पुष्कर
तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है। यहां तक कि पूर्व
काल में राजपूत योद्धा पुष्पक सरोवर पर वीर
पूजा के रूप में नाहड़ राय नागभट्ट की पूजा कर
युद्ध के लिए प्रस्थान करते थे। उसकी उपाधि
‘‘परम भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर थी।
नागभट्ट के पुत्र रामभद्र ने साम्राज्य सुरक्षित
रखा। इनके पश्चात् इनका पुत्र इतिहास प्रसिद्ध
मिहिर भोज साम्राट बना, जिसका
शासनकाल 836 से 885 माना जाता है।
सिंहासन पर बैठते ही भोज ने सर्वप्रथम कन्नौज
राज्य की व्यवस्था को चुस्त-दुरूस्त किया,
प्रजा पर अत्याचार करने वाले सामंतों और
रिश्वत खाने वाले कामचोर कर्मचारियों को
कठोर रूप से दण्डित किया। व्यापार और कृषि
कार्य को इतनी सुविधाएं प्रदान की गई कि
सारा साम्राज्य धनधान्य से लहलहा उठा।
भोज ने प्रतिहार साम्राज्य को धन, वैभव से
चरमोत्कर्ष पर पहुंचाया। अपने उत्कर्ष काल में उसे
सम्राट मिहिर भोज की उपाधि मिली थी।
अनेक काव्यों एवं इतिहास में उसे सम्राट भोज,
भोजराज, वाराहवतार, परम भट्टारक,
महाराजाधिराज आदि विशेषणों से वर्णित
किया गया है।
इतने विशाल और विस्तृत साम्राज्य का प्रबंध
अकेले सुदूर कन्नौज से कठिन हो रहा था। अस्तु
भोज ने साम्राज्य को चार भागो में बांटकर
चार उप राजधानियां बनाई। कन्नौज- मुख्य
राजधानी, उज्जैन और मंडोर को उप
राजधानियां तथा ग्वालियर को सह
राजधानी बनाया। प्रतिहारों का नागभट्ट
के समय से ही एक राज्यकुल संघ था, जिसमें कई
राजपूत राजें शामिल थे। पर मिहिर भोज के समय
बुदेलखण्ड और कांलिजर मण्डल पर चंदलों ने
अधिकार जमा रखा था। भोज का प्रस्ताव
था कि चंदेल भी राज्य संघ के सदस्य बने, जिससे
सम्पूर्ण उत्तरी पश्चिमी भारत एक विशाल
शिला के रूप में खड़ा हो जाए और यवन, तुर्क, हूण
आदि शत्रुओं को भारत प्रवेश से पूरी तरह रोका
जा सके। पर चंदेल इसके लिए तैयार नहीं हुए। अंततः
मिहिर भोज ने कालिंजर पर आक्रमण कर दिया
और इस क्षेत्र के चंदेलों को हरा दिया।
मिहिर भोज परम देश भक्त था-उसने प्रण किया
था कि उसके जीते जी कोई विदेशी शत्रु भारत
भूमि को अपावन न कर पायेगा। इसके लिए उसने
सबसे पहले आक्रमण कर उन राजाओं को ठीक
किया जो कायरतावश यवनों को अपने राज्य में
शरण लेने देते थे। इस प्रकार राजपूताना से कन्नौज
तक एक शक्तिशाली राज्य के निर्माण का श्रेय
मिहिर भोज को जाता है। मिहिर भोज के
शासन काल में कन्नौज साम्राज्य की सीमा
रमाशंकर त्रिपाठी की पुस्तक हिस्ट्री ऑफ
कन्नौज, पेज 246 में, उत्तर पश्चिम् में सतलज नदी
तक, उत्तर में हिमालय की तराई, पूर्व में बंगाल
तक, दक्षिण पूर्व में बुंदेलखण्ड और वत्स राज्य तक,
दक्षिण पश्चिम में सौराष्ट्र और राजपूतानें के
अधिक भाग तक विस्तृत थी। सुलेमान तवारीखे
अरब में लिखा है, कि भोज अरब लोगों का सभी
अन्य राजाओं की अपेक्षा अधिक घोर शत्रु है।
सुलेमान आगे यह भी लिखता है कि हिन्दोस्ता
की सुगठित और विशालतम सेना भोज की थी-
इसमें हजारों हाथी, हजारों घोड़े और हजारों
रथ थे। भोज के राज्य में सोना और चांदी सड़कों
पर विखरा था-किन्तु चोरी-डकैती का भय
किसी को नहीं था।
भोज का तृतीय अभियान पाल राजाओ के
विरूद्ध हुआ। इस समय बंगाल में पाल वंश का
शासक देवपाल था। वह वीर और यशस्वी था-
उसने अचानक कालिंजर पर आक्रमण कर दिया और
कालिंजर में तैनात भोज की सेना को परास्त कर
किले पर कब्जा कर लिया। भोज ने खबर पाते ही
देवपाल को सबक सिखाने का निश्चय किया।
कन्नौज और ग्वालियर दोनों सेनाओं को
इकट्ठा होने का आदेश दिया और चैत्र मास सन्
850 ई. में देवपाल पर आक्रमण कर दिया। इससे
देवपाल की सेना न केवल पराजित होकर बुरी
तरह भागी, बल्कि वह मारा भी गया। मिहिर
भोज ने बिहार समेत सारा क्षेत्र कन्नौज में
मिला लिया। भोज को पूर्व में उलझा देख
पश्चिम भारत में पुनः उपद्रव और षड्यंत्र शुरू हो
गये। इस अव्यवस्था का लाभ अरब डकैतों ने
उठाया और वे सिंध पार पंजाब तक लूट पाट करने
लगे। भोज ने अब इस ओर प्रयाण किया। उसने सबसे
पहले पंजाब के उत्तरी भाग पर राज कर रहे
थक्कियक को पराजित किया, उसका राज्य
और 2000 घोड़े छीन लिए। इसके बाद
गूजरावाला के विश्वासघाती सुल्तान अलखान
को बंदी बनाया- उसके संरक्षण में पल रहे 3000
तुर्की और हूण डाकुओं को बंदी बनाकर खूंखार
और हत्या के लिए अपराधी पाये गए पिशाचों
को मृत्यु दण्ड दे दिया। तदनन्तर टक्क देश के शंकर
वर्मा को हराकर सम्पूर्ण पश्चिमी भारत को
कन्नौज साम्राज्य का अंग बना लिया। चतुर्थ
अभियान में भोज ने परिहार राज्य के मूल राज्य
मण्डोर की ओर ध्यान दिया। त्रर्वाण,बल्ल और
माण्ड के राजाओं के सम्मिलित ससैन्य बल ने
मण्डोर पर आक्रमण कर दिया। मण्डोर का
राजा बाउक पराजित ही होने वाला था कि
भोज ससैन्य सहायता के लिए पहुंच गया। उसने
तीनों राजाओं को बंदी बना लिया और
उनका राज्य कन्नौज में मिला लिया। इसी
अभियान में उसने गुर्जरता, लाट, पर्वत आदि
राज्यों को भी समाप्त कर साम्राज्य का अंग
बना लिया।
भोज के शासन ग्रहण करने के पूर्व राष्ट्रकूटों ने
मध्य भारत और राजस्थान को बहुत सा भाग
दबा लिया था। राष्ट्रकूट सम्राट अमोघवर्ष,
भोज को परास्त करने के लिए कटिबद्ध था। 778
में नर्मदा नदी के किनारे अवन्ति में राष्ट्रकूट
सम्राट अमोधवर्ष और मान्यरखेट के राजा कृष्ण
द्वितीय दोनो की सम्मिलित सेना ने भोज
का सामना किया। यह अत्यन्त भयंकर युद्ध था।
22 दिनों के घोर संग्राम के बाद अमोघवर्ष पीछे
हट गया। इतिहासकारों का मानना है कि
छठी सदी में हर्षवर्धन के बाद उसके स्तर का पूरे
राजपूत युग में कोई राजा नहीं हुआ। लेकिन यह
सभी को पता है कि हर्षवर्धन का जब एक तरह से
दक्षिण भारत के सम्राट पुलकेशिन द्वितीय से
मुकाबला हुआ था तो हर्षवर्धन को पीछे हटना
पड़ा था। भोज के समय में राष्ट्रकूट भी दक्षिण
भारत के एक तरह से एकछत्र शासक थे। परन्तु यहां
पर राष्ट्रकूट सम्राट अमोधवर्ष को पीछे हटना
पड़ा।
स्कंद पुराण के वस्त्रापथ महात्म्य में लिखा है
जिस प्रकार भगवान विष्णु ने वाराह रूप धारण
कर हिरण्याक्ष आदि दुष्ट राक्षसों से पृथ्वी
का उद्धार किया था, उसी प्रकार विष्णु के
वंशज मिहिर भोज ने देशी आतताइयों, यवन
तथा तुर्क राक्षसों को मार भगाया और भारत
भूमि का संरक्षण किया- उसे इसीलिए युग ने
आदि वाराह महाराजाधिराज की उपाधि से
विभूषित किया था। वस्तुतः मिहिर भोज
सिर्फ प्रतिहार वंश का ही नहीं वरन हर्षवर्धन के
बाद और भारत में मुस्लिम साम्राज्य की
स्थापना के पूर्व पूरे राजपूत काल का सर्वाधिक
प्रतिभाशाली सम्राट और चमकदार सितारा
था। सुलेमान ने लिखा है-इस राजा के पास बहुत
बडी सेना है और किसी दूसरे राजा के पास
वैसी घुड़सवार सेना नहीं है। भारतवर्ष के
राजाओं में उससे बढ़कर अरबों का कोई शत्रु नहीं
है। उसके आदिवाराह विरूद् से ही प्रतीत होता
है कि वाराहवतार की मातृभूमि को अरबों से
मुक्त कराना अपना कर्तव्य समझता था। उसके
साम्राज्य में वर्तमान उत्तर प्रदेश, मध्य भारत,
ग्वालियर, मालवा, सौराष्ट्र राजस्थान
बिहार, कलिंग शामिल था। यह हिमालय की
तराई से लेकर बुदेलखण्ड तक तथा पूर्व में पाल राज्य
से लेकर पश्चिम में गुजरात तक फैला था। अपनी
महान राजनीतिक तथा सैनिक योजनाओं से
उसने सदैव इस साम्राज्य की रक्षा की।
भोज का शासनकाल पूरे मध्य युग में अद्धितीय
माना जाता है। इस अवधि में देश का चतुर्मुखी
विकास हुआ। साहित्य सृजन, शांति व्यवस्था
स्थापत्य, शिल्प, व्यापार और शासन प्रबंध की
दृष्टि से यह श्रेष्ठतम माना गया है। भयानक
युद्धों के बीच किसान मस्ती से अपना खेत
जोतता था, और वणिक अपनी विपणन मात्रा
पर निश्चिंत चला जाता था।
मिहिर भोज को गणतंत्र शासन पद्धति का जनक
भी माना जाता है, उसने अपने साम्राज्य को
आठ गणराज्यों में विभक्त कर दिया था। प्रत्येक
राज्य का अधिपति राजा कहलाता था, जिसे
आज के मुख्यमंत्री की तरह आंतरिक शासन
व्यवस्था में पूरा अधिकार था। परिषद का
प्रधान सम्राट होता था और शेष राजा मंत्री
के रूप में कार्य करते थे। वह जितना वीर था,
उतना ही दयाल भी था, घोर अपराध करने
वालों को भी उसने कभी मृत्यदण्ड नहीं दिया,
किन्तु दस्युओं, डकैतों, हूणो, तुर्कों अरबों, का
देश का शत्रु मानने की उसकी धारणा स्पष्ट थी
और इन्हे क्षमा करने की भूल कभी नहीं की और न
ही इन्हें देश में घुसने ही दिया। उसने मध्य भारत
को जहां चंबल के डाकुओं से मुक्त कराया, वही
उत्तर, पश्चिमी भारत को विदेशियों से मुक्त
कराया। सच्चाई यही है कि जब तक परिहार
साम्राज्य मजबूत रहा, देश की स्वतंत्रता पर आंँच
नहीं आई।
मिहिरभोज की यह दूरदर्शिता ही थी कि
उसने राज्यकुल संघ बना रखा था। जिसका
परिणाम था मिहीरभोज का राज्य अत्यधिक
विशाल था और यह महेन्द्रपाल और महिपाल के
शासनकाल ई. सन् 931 तक कायम रहा। इस दौर में
प्रतिहार राज्य की सीमाएं गुप्त साम्राज्य से
भी ज्यादा बड़ी थी। इस साम्राज्य की
तुलना पूर्व में मात्र मौर्य साम्राज्य और
परवर्ती काल में मुगल साम्राज्य से ही की जा
सकती है। वस्तुतः इतिहास का पुर्नमूल्यांकन कर
यह बताने की जरूरत है कि उस पूर्व मध्यकाल दौर
के हमारे महानायक सम्राट मिहिर भोज ही थे।
ऐसे महान सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार को
हमारा शत शत नमन_/\_
---प्रतिहार राजपूतो की वर्तमान
स्थिति---
भले ही यह विशाल प्रतिहार राजपूत
साम्राज्य बाद में खण्डित हो गया हो लेकिन
इस वंश के वंशज राजपूत आज भी इसी साम्राज्य
की परिधि में मिलते हैँ।
उत्तरी गुजरात और दक्षिणी राजस्थान में
भीनमाल के पास जहाँ प्रतिहार वंश की शुरुआत
हुई, आज भी वहॉ प्रतिहार राजपूत पड़िहार
आदि नामो से अच्छी संख्या में मिलते हैँ।
प्रतिहारों की द्वितीय राजधानी मारवाड़
में मंडोर रही। जहाँ आज भी प्रतिहार राजपूतो
की इन्दा शाखा बड़ी संख्या में मिलती है।
राठोड़ो के मारवाड़ आगमन से पहले इस क्षेत्र पर
प्रतिहारों की इसी शाखा का शासन था
जिनसे राठोड़ो ने जीत कर जोधपुर को अपनी
राजधानी बनाया। 17वीं सदी में भी जब कुछ
समय के लिये मुगलो से लड़ते हुए राठोड़ो को
जोधपुर छोड़ना पड़ गया था तो स्थानीय
इन्दा प्रतिहार राजपूतो ने अपनी पुरातन
राजधानी मंडोर पर कब्जा कर लिया था।
इसके अलावा प्रतिहारों की अन्य राजधानी
ग्वालियर और कन्नौज के बीच में प्रतिहार
राजपूत परिहार के नाम से बड़ी संख्या में मिलते
हैँ।
मध्यप्रदेश में भी परिहारों की अच्छी संख्या है।
यहाँ परिहारों की एक राजशाही रियासत नागौद आज
भी है जो मिहिरभोज के सीधे वंशज हैँ और उनके
पास इसके प्रमाण भी हैँ।
प्रतिहारों की एक शाखा राघवो का राज्य
वर्तमान में उत्तर राजस्थान के अलवर, सीकर,
दौसा में था जिन्हें कछवाहों ने हराया। आज
भी इस क्षेत्र में राघवो की खडाड शाखा के
राजपूत अच्छी संख्या में हैँ। इन्ही की एक शाखा
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर, अलीगढ़,
रोहिलखण्ड और दक्षिणी हरयाणा के गुडगाँव
आदि क्षेत्र में बहुसंख्या में है। एक और शाखा
मढाढ के नाम से उत्तर हरयाणा में मिलती है।
राजस्थान के सीकर से ही राघवो की एक
शाखा सिकरवार निकली है जिसका फतेहपुर
सिकरी पर राज था और जो आज उत्तर प्रदेश,
बिहार और मध्यप्रदेश में विशाल संख्या में मिलते
हैँ। विश्व का सबसे बड़ा गाँव उत्तर प्रदेश के
गाजीपुर जिले का गहमर सिकरवार राजपूतो
का ही है।
उत्तर प्रदेश में सरयूपारीण क्षेत्र में भी प्रतिहार
राजपूतो की विशाल कलहंस शाखा मिलती है।
इनके अलावा संपूर्ण मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश,
बिहार और उत्तरी महाराष्ट्र आदि में(जहाँ
जहाँ प्रतिहार साम्राज्य फैला था) अच्छी
संख्या में ।।

जय नागभट्ट परिहार ।।
जय मिहिर भोज परिहार ।।
जय माँ भवानी ।।