Wednesday, December 23, 2015

सम्राट मिहिर भोज प्रतिहार के वंशज हैं नागौद राज्य के प्रतिहार

मित्रों आज की इस पोस्ट के द्वारा हम आपको प्रतिहार वंश के महान प्रतापी सम्राट मिहिर भोज के वंशज नागौद राज्य के प्रतिहारों के बारे में जानकारी देंगे। जो कन्नौज से उचेहरा आये फिर नागौद को अपनी
राजधानी बनाकर एक शक्तिशाली परिहार राज्य की नींव डाली। आइए जानते हैं।



नागौद राजघराने के वर्तमान युवराज श्रीमंत शिवेन्द्र प्रताप सिंह जूदेव से बातचीत करने के मुताबिक पता चला कि कैसे उनके पूर्वज कन्नौज से आकर यहां एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की एवं यहां से पाए गए पुरातत्व विभाग को ताम्रपत्रों, शिलालेखों में मिहिर भोज एवं वाराहवतार भगवान विष्णु जी का वर्णन मिलना पाया गया है। जिससे साफ साफ पता चलता है कि नागौद के प्रतिहार मिहिर भोज के वंशज है। जिसकी पुष्टि सभी लेख व ताम्रपत्र कर रहे हैं। और आप सभी इस पोस्ट की पिक्चर मे नागौद राज्य के चिन्ह (सिंबल) पर वाराह पशु (जंगली सुअर) एवं कन्नौज के प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज के शासन काल में चलाए गए चांदी के सिक्कों पर साफ साफ वाराहवतार विष्णु जी की प्रतिमा बनी देख सकते हैं। जिससे यह पूर्णतः सिद्ध हो चुका है कि नागौद के प्रतिहार मिहिर भोज के वंशज है। युवराज साहब से बात करके मालूम पडा कि कैसे उनके पूर्वजों ने अरबों एवं मुगलों से हाथों हाथ युद्ध किए जिससे यह भारत देश अरबियों से बचा है। अगर भारत में अरबी लोग नहीं उसका कारण केवल प्रतिहार राजपूत ही है जिनसे उनके पूर्वज 300 वर्षो तक लडे और सफल हुए। इसीलिए प्रतिहारों को ईसलाम का सबसे बड़ा शत्रु बताया गया है। उन्होंने बताया कि कैसे 1947 आजादी के पहले उनके राज्य के समय किसी मुगली समुदाय के व्यक्ति को किले के अंदर प्रवेश करने का अधिकार न था। और न ही उनके पिताजी महाराज साहब के सामने आने का था। युवराज साहब ने कहा कि हम क्षत्रिय शिरोमणि रघुकुल नंदन सूर्यवंशी राजा रामचन्द्र जी के वंशज है। और हम प्रतिहारों का निकास भी रामचन्द्र जी के अनुज लक्ष्मण जी से हुआ है जिसकी पुष्टि मण्डौर, जालौर, कन्नौज, उज्जैन,ग्वालियर नागौद के शिलालेखों से हो चुकी है। उन्होंने बताया कि लक्ष्मण जी तो ईश्वर रुपी थे पर प्रतिहार वंश में राजा हरिश्चन्द्र, नागभट्ट, मिहिर भोज, वत्सराज, महेन्द्रपाल, वीरराजदेव ये बहुत ही पराक्रमी महान वीर योद्धा शासक हुये। जो हमेशा सनातन धर्म की रक्षा, संस्कृति, परंपरा एवं अपनी प्रजा के लिए लडे। उन्होंने कहा कि जितना सोध इतिहासकारों ने प्रतिहार राजपूत वंश पर किया है शायद ही उतना अन्य राजपूत वंशो का किया हो। उन्होंने फिर दुखित होकर यह भी कहा कि कुछ इतिहासकारों के फर्जी और बनावटी शोध करने के कारण ही है कि किसी इतिहासकार ने प्रतिहारों को गुर्जर माना और किसी ने विदेशी और किसी ने यहां तक कह दिया कि ये प्रतिहार राजपूत हूणों, शकों के साथ भारत आये जिसकी वजह से दिल्ली, ग्वालियर, राजस्थान के गुज्जर जाति के लोग हमे और हमारे पूर्वज मिहिर भोज जी को गुज्जर विदेशी घोषित करने मे लगे हैं। जो सरासर गलत है। रेफरेंस के तौर पर उन्होंने गल्लका अभिलेख की चर्चा की जिसमें कैसे प्रतिहार राजपूतों के शौर्य का वर्णन किया गया है। जिसमें कैसे प्रतिहारों ने गुर्जरात्रा प्रदेष से गुज्जरों को खदेडा था। एवं प्रसिद्ध इतिहासकार और जाने माने लेखक बी. एन. मुंशी पहले ही साबित कर चुके है कि गुर्जरात्रा प्रदेश से आकर राजौरगढ़ बसी हुई प्रतिहार शाखा गुर्जरात्रा के नागरिक होने के कारण ही गुर्जर प्रतिहार कहलाये और जो भी व्यक्ति गुर्जरात्रा क्षेत्र से अन्य जगह जाता वह गुर्जर ही कहलाता था। गुर्जरात्रा देश में प्रतिहार राजपूतों के अलावा अन्य क्षत्रिय राजपूत वंशो ने भी शासन किया जैसे चावड़ा, चालुक्य, राठौड़ और इतिहास में उनके साथ भी इतिहासकारों ने गुर्जर शब्द प्रयोग किया है पर वह शुद्ध क्षत्रिय राजपूत वंश है तभी आज भी गुर्जरात्रा के पास गुर्जर ब्राह्मण, गुर्जर वैश्य, गुर्जर कुर्मी, खाटी, लोहार, नाई, धोबी आदि पाये जाते हैं जिन्हें गुर्जर ही कहा जाता है। जिससे साबित होता है कि यह केवल स्थान सूचक शब्द है जिसे जोड तंगोड कर जाति सूचक बताया जा रहा है।
आइए अब हम सब जानते हैं कैसे सम्राट मिहिर भोज के वंशज प्रतिहार राजपूतों का आगमन हुआ इस विंध्य क्षेत्र में। उचेहरा में प्रतिहार सत्ता की स्थापना 14 वीं शताब्दी में हुई थी 13 वीं शताब्दी में यहाँ तैलव तेली (शूद्र) राजाओं का राज्य था, वे प्रजा को आतंकित कर त्रस्त कर रखा था, रानियों के साथ भी अत्याचार किया जाता था उन्हें सही सलामत नहीं बक्सा गया था इनका सामना करने के लिए मण्डौर राजा ककुक्क परिहार की सातवीं पीढ़ी में राजकुमार वीरराजदेव हुआ, वह बड़ा तेजस्वी एवं महत्वाकांक्षी था उसे कन्नौज साम्राज्य के अधीन एक सामंत बनकर रहना पसंद नहीं था वह साम्राज्य से विद्रोह तो नहीं करना चाहता था पर एक स्वतंत्र राजा बनकर राज करने की प्रबल आकांक्षा रही, उसने अपने इस निश्चय को साकार रूप देने का निश्चय किया और अपने साथ चुने हुए राजपूतों को लेकर सन 1320 में मण्डौर को छोड़ दिया और कैमोर की ओर एक नये राज्य की स्थापना के लिए चल पड़ा |
इस समय चन्देलों का प्रभाव छीड़ हो रहा था, केन नदी के किनारे दायें तट पर मऊ आदि गाँवों में इधर - उधर से आकर अनेक प्रतिहार राजपूत परिवार दल बस गए थे इन्ही के संपर्क में आकर वीरराजदेव प्रतिहार और उनके साथियों के साथ कोट गांव में ठहर गए, सिंगोरगढ़ एक छोटा सा राज्य था, जिसका निर्माण राजा गज सिंह ने करवाया था। वहीँ के प्रतिहार राजा कोतपाल देव ने वीरराजदेव को बुलवाया उसकी तेजस्विता और बुद्धि से कोतपाल ने पहले तो उसे आमात्य का पद दिया और उसके सभी साथियों को सेना में रख लिया, कोतपाल देव निःसंतान था, अस्तु वीरराजदेव प्रतिहार को अपना वारिस भी बना दिया, सत्ता हाँथ में पाते ही मौका देखकर वीरराजदेव प्रतिहार और उसके साथियों ने नरो दुर्ग को अपने अधिकार में ले लिया और वही अपना आवास बनाया वीरराजदेव प्रतिहार ने (1330- 1340) दस साल के अंतराल में सिंगोरगढ़ राज्य को व्यवस्थित किया और नरो दुर्ग की मरमत्त करा ली, इधर उत्तरी भारत में तुर्कों का उत्पात अपनी चरम सीमा पर था, वे सारे देश में लूट - पाट, मार काट मचा रहे थे सन 1340 में मुहम्मद बिन तुगलक ने सिंगोरगढ़ पर आक्रमण कर दिया - सारा राज्य लूट लिया नगर जला दिया और नरो दुर्ग को तुर्कों ने अपने हवाले कर लिया |
वीरराजदेव प्रतिहार और उसकी छोटी सी राजपूती सेना, तुर्कों की विशाल सेना का सामना न कर कैमोर तराई की ओर चली आई इस समय लूक के राजा हम्मीरदेव और कडौली के राजा देवक के बीच लुका छिपी लड़ाई चल रही थी, कैमोर क्षेत्र की न तो किसी की दृस्टि थी और न ध्यान दिया गया इसका लाभ उठाकर प्रतिहार दल उचेहरा की ओर बढ़ चला और अक्षय तृतीया संवत 1381 दिन सोमवार को प्रतापी राजा वीरराजदेव प्रतिहार पुत्र विशालदेव प्रतिहार ने मान्थ पिलासी राजा धार सिंह का वध कर प्रतिहार राज्य स्थापित किया, वे उचेहरा (उच्चकल्प) राज्य के प्रथम शासक थे उचेहरा राज्य की स्थापना का काल वीरता का युद्ध था, वीर पुरुष शासन के अधिकारी थे वे बरछी, तीर, तलवार, कटारे और गदाएँ ऐसे ही अनेक अस्त्र शस्त्र प्रसिद्द थे हांथी, घोडा, पालकियाँ उस समय सवारी हुआ करती थी, आमने सामने की लड़ाई में बाहुबल ही काम आता था, वीरता राजाओं का आभूषण हुआ करती थी उचेहरा के प्रतिहार शासकों में महाराजाधिराज वीरराजदेव प्रतिहार सर्वाधिक शक्तिशाली राजा थे जिन्होंने एक विस्तृत भू - भाग पर प्रतिहार सत्ता स्थपित की |
वीरराजदेव प्रतिहार जब खोह राज्य अर्थात उचेहरा में आये तब उचेहरा के पास एक गढ़ में तेली लोग जमे थे - उसे तेलिया गढ़ नाम देकर स्वयं को राजा बना लिए थे एक रात जब तेली लोग मदांध होकर नाच गा रहे थे - वीरराजदेव प्रतिहार ने अपने साथियों को लेकर उन पर आक्रमण कर दिया प्रतिहार राजपूतों के डर से तेली लोग ऐसे भागे की गढ़ से अपना डेरा - सामना भी नहीं ले सके प्रातः काल तेलिया गढ़ पर प्रतिहार राजपूतों के सरदार वीरराजदेव प्रतिहार का झंडा लहरा उठा यह राज्य बहुत छोटा था किन्तु गढ़ में धन सम्पदा पर्याप्त थी जिससे वीरराजदेव प्रतिहार ने एक सेना का गठन कर लिया और धीरे धीरे खोह राज्य का विस्तार कर लिया अतः इस प्रकार 1341- 1345 ई. के मध्य वीरराजदेव प्रतिहार ने उचेहरा में स्वतंत्र राज्य स्थपित किया, उपरोक्त स्थानों में पाये गए उनके शिलालेखों के आधार पर उनका राज्य महाकौशल वर्तमान जबलपुर जिला कटनी की तहसील सतना जिला की मैहर, नागौद, रघुराजनगर, अमरपाटन तहसीलें एवं रीवा पठार तक फैला हुआ था |




वीरराजदेव प्रतिहार भट्टा - गहोरा के राजा बुल्लारदेव बाघेला का समकालिक था, इस तरह से उचेहरा में प्रतिहार सत्ता की स्थापना ओर विस्तार हुआ। लगभग 1357 ई. में वीरराजदेव प्रतिहार की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी महाराजा जुगराजदेव प्रतिहार हुए, इसके पश्चात क्रमशः महाराजा धार सिंह, महाराजा किशनदास सिंह का संवत 1423 में राज्य की सत्ता बागडोर संभाली थी, तब खोह एक वास्तविक राज्य था, किशनदास का एक राजा की भांति परंपरागत राज्याभिषेक किया गया था |
सुरजपुर गो जब अवनिपति धारा सिंह सुरेश ||
किशनदास राजाभयो तिहि सम्यत वेश ||
चौदह सौ तेईस में बैठयो जुकि गद्दिहि ||
महाराजा किशनदास के पश्चात महाराजा विक्रमादित्य देव राजा हुए तत्पश्चात महाराजा सूरजपाल सिंह राजा हुए जिन्हे सूरजमल भी कहा जाता है इस समय तक उचेहरा राज्य वर्तमान उचेहरा से लगभग तीन किलोमीटर दूर था जिसे उच्चकल्प कहा जाता था, आज जिसे खोह कहते है, उसकी राजधानी कुटरा थी |
अतः महाराजा सूरजपाल देव के पश्चात महाराजा भोजपाल सिंह (भोजराज) का शासन प्रारम्भ होता है राजा भोजराज ने 1478 ई. में वर्तमान उचेहरा नगर स्थापित किया और इसे अपनी राजधानी बनायीं, भोजराज का शासन काल व्यवस्था का काल था उसने निष्कंटक शासन किया, उसने उचेहरा (उच्चकल्प) के दुर्ग की मरम्मत कराई बरुआ नदी के पश्चिम एक सुन्दर किले का निर्माण करवाया - नगर में एक सरोवर और बावली बनवाई गहोरा के तत्कालीन राजा भैदचन्द बाघेला से एक अयुद्ध संधि करी जिसके अंतर्गत उसे घटैया की गढ़ी मिल गयी, भोजराज के शासन के अंतिम समय तक उचेहरा एक संपन्न और बड़ा राज्य बन गया था । इनके बाद महाराजा कर्ण सिंह, महाराजा नरेंद्र सिंह, महाराजा भारत सिंह, महाराजा पृथ्वीराज सिंह, महाराजा फकीर सिंह, यहां तक के महाराजाओं के समय राज्य का काफी विस्तार हुआ जिससे विंध्य क्षेत्र मे उचेहरा को उप राजधानी बनाकर नागौद को प्रतिहारों की मुख्य राजधानी घोषित किया गया।
आइए अब जानते हैं प्रतिहारों की नई मुख्य राजधानी के बारे में नागौद की स्थापना सन् 1742 ई. मे हुई। नागौद अमरन नदी के तट पर बसा हुआ है पुराने समय मे नागौद का छेत्र"विन्ध्याटवी" के नाम से प्रसिद्ध था नागौद राजधानी की स्थापना महाराजा फकीर शाह के द्वितीय पुत्र महाराजा चैन सिंह ने अपने शासन के अंतिम काल अर्थात 1742 सन् 1748 के मध्य नागौद को बसाने एवं राज्य को सुव्यस्थित करने का प्रशंसनीय कार्य किया था। इसके पहले प्रतिहारों की मुख्य राजधानी उंचेहरा थी क्योंकी प्रतिहारों का राज्य विस्तार हो रहा था तो मध्य मे एक ओर किले का निर्माण किया गया। नागौद वर्तमान में मध्यप्रदेश के सतना जिले के रीवा से पन्ना मार्ग पे सतना से 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। महाराजा फकीर सिंह के पुत्र महाराजा चैन सिंह, हुए इनके बाद महाराजा अहलाद सिंह, महाराजा शिवराज सिंह, महाराजा बलभद्र सिंह, महाराजा राघवेंद्र सिंह, महाराजा यादवेंद्र सिंह, महाराजा नरहरेंद्र सिंह, महाराजा महेन्द्र सिंह, इस् तरह आने वाली सभी वंशजो से अंतिम महाराजा रूद्रेन्द्र प्रताप सिंह जूदेव ने प्रतिहार राज्य नागौद का राजपाट अति स्मरणीय ढंग से संभाला।। नागौद रियासत के समय राज्य के अंतर्गत लगभग एक हजार से भी ज्यादा गांव थे। और क्षेत्रफळ एक हजार तीन सौ किलोमीटर माइलस का था। नागौद रियासत मे 24 महाराजाओं ने शासन किया और वर्तमान में युवराज शिवेंद्र प्रताप सिंह जू देव जी ने अतिस्मरणीय ढंग से पूर्वजो की विरासत को संभाला हुआ है।।

Saturday, December 19, 2015

THE IMPERIAL PRATIHARAS _ BULWARK OF INDIA

ALL ABOUT THE RAGHUVANSHI PRATIHAR RAJVANSH



वर्ण - क्षत्रिय राजपूत
राजवंश - प्रतिहार वंश
वंश - सूर्यवंशी क्षत्रिय (अग्निवंशी भी कहते है)
गोत्र - कौशिक (कहीं कही कश्यप लिखते हैं)
वेद - यजुर्वेद
उपवेद - धनुर्वेद
गुरु - वशिष्ठ
कुलदेव - विष्णु भगवान
कुलदेवी - चामुण्डा देवी, गाजन माता
नदी - सरस्वती
तीर्थ - पुष्कर राज ( राजस्थान )
मंत्र - गायत्री
झंडा - केसरिया
निशान - लाल सूर्य
पशु - वाराह
नगाड़ा - रणजीत
अश्व - सरजीव
पूजन - खंड पूजन दशहरा
आदि गद्दी - माण्डव्य पुरम ( मण्डौर )
ज्येष्ठ गद्दी - बरमै राज्य नागौद



यह पोस्ट,मर्यादा पुरुषोत्तम सुर्यवंश शिरोमणि प्रभु श्री राम के भ्राता लक्ष्मण जी से निकास वाले प्रतापी क्षत्रिय प्रतिहार वंश पर केन्द्रित है।

यूँ तो प्रतिहारो की उत्पत्ति पर कई सारे मत है,किन्तु उनमे से अधिकतर कपोल कल्पनाओं के अलावा कुछ नहीं है। प्राचीन साहित्यों में प्रतिहार का अर्थ "द्वारपाल" मिलता है। अर्थात यह वंश विश्व के मुकुटमणि भारत के पश्चिमी द्वारा अथवा सीमा पर शासन करने के चलते ही प्रतिहार कहलाया।

अब प्रतिहार वंश की उत्पत्ति के बारे में जो भ्रांतियाँ है उनका निराकारण करते है। एक मान्यता यह है की ये वंश अबू पर्वत पर हुए यज्ञ की अग्नि से उत्पन्न हुआ है,जो सरासर कपोल कल्पना है।हो सकता है अबू पर हुए यज्ञ में इस वंश की हाजिरी के कारण इस वंश के साथ साथ अग्निवंश की कथा रूढ़ हो गई हो। खैर अग्निवंश की मान्यता कल्पना के अलावा कुछ नहीं हो सकती और ऐसी कल्पित मान्यताये इतिहास में महत्त्व नहीं रखती।

कुछ इतिहासकार,अग्निवंश के कुलो को विदेशी मूल का मानती है तो कुछ गुर्जर मूल का।इस वंश की उत्पत्ति के संबंध में प्राचीन साहित्य,ग्रन्थ और शिलालेख आदि क्या कहते है इसपर भी प्रकाश डालते है।

१) सोमदेव सूरी ने सन ९५९ में यशस्तिलक चम्पू में गुर्जर देश का वर्णन किया है। वह लिखता है कि न केवल प्रतिहार बल्कि चावड़ा,चालुक्य,आदि वंश भी इस देश पर राज करने के कारण गुर्जर कहलाये।

२) विद्व शाल मंजिका,सर्ग १,श्लोक ६ में राजशेखर ने कन्नौज के प्रतिहार राजा भोजदेव के पुत्र महेंद्र को रघुकुल तिलक अर्थात सूर्यवंशी क्षत्रिय बताया है।

३)कुमारपाल प्रबंध के पृष्ठ १११ पर भी गुर्जर देश का वर्णन है...

कर्णाटे,गुर्जरे लाटे सौराष्ट्रे कच्छ सैन्धवे।
उच्चाया चैव चमेयां मारवे मालवे तथा।।

४) महाराज कक्कुक का घटियाला शिलालेख भी इसे लक्ष्मण का वंश प्रमाणित करता है....अर्थात रघुवंशी क्षत्रिय

रहुतिलओ पड़ीहारो आसी सिरि लक्खणोत्रि रामस्य।
तेण पडिहार वन्सो समुणई एत्थ सम्प्तो।।

५) बाउक प्रतिहार के जोधपुर लेख से भी इनका रघुवंशी होना प्रमाणित होता है।(९ वी शताब्दी)

स्वभ्राता राम भद्रस्य प्रतिहार्य कृतं सतः।
श्री प्रतिहारवड शोयमत श्रोन्नतिमाप्युयात।

इस शिलालेख के अनुसार इस वंश का शासनकाल गुजरात में प्रकाश में आया था।

६) चीनी यात्री हुएन्त त्सांग ने गुर्जर राज्य की राजधानी पीलोमोलो,भीनमाल या बाड़मेर कहा है।

७) मिहिर भोज प्रतिहार की ग्वालियर प्रशस्ति

मन्विक्षा कुक्कुस्थ(त्स्थ) मूल पृथवः क्ष्मापल कल्पद्रुमाः।
तेषां वंशे सुजन्मा क्रमनिहतपदे धाम्नि वज्रैशु घोरं,
राम: पौलस्त्य हिन्श्रं क्षतविहित समित्कर्म्म चक्रें पलाशे:।
श्लाध्यास्त्स्यानुजो सौ मधवमदमुषो मेघनादस्य संख्ये,
सौमित्रिस्तिव्रदंड: प्रतिहरण विर्धर्य: प्रतिहार आसी।
तवुन्शे प्रतिहार केतन भृति त्रैलौक्य रक्षा स्पदे
देवो नागभट: पुरातन मुने मुर्तिर्ब्बमूवाभदुतम।

अर्थात-सुर्यवंश में मनु,इश्वाकू,कक्कुस्थ आदि राजा हुए,उनके वंश में पौलस्त्य(रावण) को मारने वाले राम हुए,जिनका प्रतिहार उनका छोटा भाई सौमित्र(सुमित्रा नंदन लक्ष्मण) था,उसके वंश में नागभट्ट हुआ। इसी प्रशस्ति के सातवे श्लोक में वत्सराज के लिए लिखा है क़ि उस क्षत्रिय पुंगव(विद्वान्) ने बलपूर्वक भड़ीकुल का साम्राज्य छिनकर इश्वाकू कुल की उन्नति की।

८) देवो यस्य महेन्द्रपालनृपति: शिष्यों रघुग्रामणी:(बालभारत,१/११)

तेन(महिपालदेवेन)च रघुवंश मुक्तामणिना(बालभारत)

बालभारत में भी महिपालदेव को रघुवंशी कहा है।

९)ओसिया के महावीर मंदिर का लेख जो विक्रम संवत १०१३(ईस्वी ९५६) का है तथा संस्कृत और देवनागरी लिपि में है,उसमे उल्लेख किया गया है कि-

तस्या कार्षात्कल प्रेम्णालक्ष्मण: प्रतिहारताम ततो अभवत प्रतिहार वंशो राम समुव:।।६।।
तदुंदभशे सबशी वशीकृत रिपु: श्री वत्स राजोडsभवत।

अर्थात लक्ष्मण ने प्रेमपूर्वक उनके प्रतिहारी का कार्य किया,अनन्तर श्री राम से प्रतिहार वंश की उत्पत्ति हुई। उस प्रतिहार वंश में वत्सराज हुआ।

१०) गौडेंद्रवंगपतिनिर्ज्जयदुर्व्विदग्धसदगुर्ज्जरेश्वरदिगर्ग्गलतां च यस्य।
नीत्वा भुजं विहतमालवरक्षणार्त्थ स्वामी तथान्यमपि राज्यछ(फ) लानि भुंक्ते।।
-बडोदे का दानपत्र,Indian Antiquary,Vol 12,Page 160

उक्त ताम्रपत्र के 'गुजरेश्वर' एद का अर्थ 'गुर्जर देश(गुजरात) का राजा' स्पष्ट है,जिसे खिंच तानकर गुर्जर जाती या वंश का राजा मानना सर्वथा असंगत है। संस्कृत साहित्य में कई ऐसे उदाहरण मिलते है।

ये लेख गुजरेश्वर,गुर्जरात्र,गुज्जुर इन संज्ञाओ का सही मायने में अर्थ कर इसे जाती सूचक नहीं स्थान सूचक सिद्ध करता है जिससे भगवान्लाल इन्द्रजी,देवदत्त रामकृष्ण भंडारकर,जैक्सन तथा अन्य सभी विद्वानों के मतों को खारिज करता है जो इस सज्ञा के उपयोग से प्रतिहारो को गुर्जर मानते है।

११) कुशनवंशी राजा कनिष्क के समय में गुर्जरों का भारतवर्ष में आना प्रमाणशून्य बात है,जिसे स्वयं डॉ.भगवानलाल इन्द्रजी ने स्वीकार किया है,और गुप्तवंशियों के समय में गुजरो को राजपूताना,गुजरात और मालवे में जागीर मिलने के विषय में कोई प्रमाण नहीं दिया है। न तो गुप्त राजाओं के लेखो और भडौच से मिले दानपत्रों में इसका कही उल्लेख है।

१२)३६ राजवंशो की किसी भी सूची में इस वंश के साथ "गुर्जर" एद का प्रयोग नहीं किया गया है। यह तथ्य भी गुर्जर एद को स्थानसूचक सिद्धकर सम्बंधित एद का कोइ विशेष महत्व नही दर्शाता।

१३)ब्राह्मण उत्पत्ति के विषय में इस वंश के साथ द्विज,विप्र यह दो संज्ञाए प्रयुक्त की गई है,तो द्विज का अर्थ ब्राह्मण न होकर द्विजातिय(जनेउ) संस्कार से है न की ब्राह्मण से। ठीक इसी तरह विप्र का अर्थ भी विद्वान पंडित अर्थात "जिसने विद्वत्ता में पांडित्य हासिल किया है

उपरोक्त सभी प्रमाणों के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है की,प्रतिहार वंश निस्संदेह भारतीय मूल का है तथा शुद्ध क्षत्रिय राजपूत वंश है।

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प्रतिहार वंश
संस्थापक- राजा हरिशचंद्र प्रतिहार
वास्तविक - नागभट्ट प्रथम (वत्सराज)
प्रतिहार-वत्सराज
राजस्थान के दक्षिण पष्चिम में गुर्जरात्रा प्रदेष में प्रतिहार वंष की स्थापना हुई। इनकी उत्पति लक्ष्मण से हुई है। लक्षमण राम के प्रतिहार (द्वारपाल) थे। अतः यह वंष प्रतिहार वंष कहलाया। नगभट्ट प्रथम पष्चिम से होने वाले अरब आक्रमणों को विफल किया। नागभट्ट प्रथम के बाद वत्सराज षासक बना। वह प्रतिहार वंष का प्रथम षासक था जिसने त्रिपक्षीप संघर्ष त्रिदलीय संघर्ष/त्रिराष्ट्रीय संघर्ष में भाग लिया।
त्रिपक्षीय संघर्ष:- 8 वीं से 10 वीं सदी के मध्य लगभग 200 वर्षो तक पष्चिम के प्रतिहार पूर्व के पाल और दक्षिणी भारत के राष्ट्रकूट वंष ने कन्नौज की प्राप्ति के लिए जो संघर्ष किया उसे ही त्रिपक्षीय संघर्ष कहा जाता है।

नागभट्ट द्वितीय:- वत्सराज के पष्चात् षक्तिषाली षासक हुआ उसने भी अरबों को पराजित किया किन्तु कालान्तर में उसने गंगा में डूब आत्महत्या कर ली।

मिहिर भोज प्रथम - इस वंष का सर्वाधिक षक्तिषाली षासक इसने त्रिपक्षीय संघर्ष में भाग लेकर कन्नौज पर अपना अधिकार किया और प्रतिहार वंष की राजधानी बनाया। मिहिर भोज की उपब्धियों की जानकारी उसके ग्वालियर लेख से प्राप्त होती है।
- आदिवराह व प्रीाास की उपाधी धारण की।
-आदिवराह नामक सिक्के जारी किये।
मिहिर भोज के पष्चात् महेन्द्रपाल षासक बना। इस वंष का अन्तिम षासक गुर्जर प्रतिहार वंष के पतन से निम्नलिखित राज्य उदित हुए।
मारवाड़ का राठौड़ वंष
मेवाड़ का सिसोदिया वंष
जैजामुक्ति का चन्देल वंष
ग्वालियर का कच्छपधात वंष

गुर्जर-प्रतिहार
8वीं से 10वीं षताब्दी में उत्तर भारत में प्रसिद्ध राजपुत वंष गुर्जर प्रतिहार था। राजस्थान में प्रतिहारों का मुख्य केन्द्र मारवाड़ था। पृथ्वीराज रासौ के अनुसार प्रतिहारों की उत्पत्ति अग्निकुण्ड से हुई है।
प्रतिहार का अर्थ है द्वारपाल प्रतिहार स्वयं को लक्ष्मण वंषिय सूर्य वंषीय या रधुकुल वंषीय मानते है। प्रतिहारों की मंदिर व स्थापत्य कला निर्माण षैली गुर्जर प्रतिहार षैली या महामारू षैली कहलाती है। प्रतिहारों ने अरब आक्रमण कारीयों से भारत की रक्षा की अतः इन्हें "द्वारपाल"भी कहा जाता है। प्रतिहार गुर्जरात्रा प्रदेष (गुजरात) के पास निवास करते थे। अतः ये गुर्जर - प्रतिहार कहलाएं। गुर्जरात्रा प्रदेष की राजधानी भीनमाल (जालौर) थी।
मुहणौत नैणसी (राजपुताने का अबुल-फजल) के अनुसार गुर्जर प्रतिहारों की कुल 26 शाखाएं थी। जिमें से मण्डोर व भीनमाल शाखा सबसे प्राचीन थी।
मण्डौर शाखा का संस्थापक - हरिशचंद्र था।
गुर्जर प्रतिहारों की प्रारम्भिक राजधानी -मण्डौर

भीनमाल शाखा
1. नागभट्ट प्रथम:- नागभट्ट प्रथम ने 730 ई. में भीनमाल में प्रतिहार वंष की स्थापना की तथा भीनमाल को प्रतिहारों की राजधानी बनाया।
2. वत्सराज द्वितीय:- वत्सराज भीनमाल प्रतिहार वंष का वास्तिवक संस्थापक था। वत्सराज को रणहस्तिन की उपाधि प्राप्त थी। वत्सराज ने औसियां के मंदिरों का निर्माण करवाया। औसियां सूर्य व जैन मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। इसके समय उद्योतन सूरी ने "कुवलयमाला" की रचना 778 में जालौर में की। औसियां के मंदिर महामारू षैली में बने है। लेकिन औसियां का हरिहर मंदिर पंचायतन षैली में बना है।
-औसियां राजस्थान में प्रतिहारों का प्रमुख केन्द्र था।
-औसिंया (जोधपुर)के मंदिर प्रतिहार कालीन है।
-औसियां को राजस्थान को भुवनेष्वर कहा जाता है।
-औसियां में औसिया माता या सच्चिया माता (ओसवाल जैनों की देवी) का मंदिर है जिसमें महिसासुर मर्दनी की प्रतिमा है।
-जिनसेन ने "हरिवंष पुराण " की रचना की।
वत्सराज ने त्रिपक्षिय संर्घष की षुरूआत की तथा वत्सराज राष्ट्रकूट राजा ध्रुव से पराजित हुआ।

त्रिपक्षिय/त्रिराष्ट्रीय संर्घष
कन्नौज को लेकर उत्तर भारत की गुर्जर प्रतिहार पूर्व में बंगाल का पाल वंष तथा दक्षिणी भारत का राष्ट्रवंष के बीच 100 वर्षो तक के चले संघर्ष को त्रिपक्षिय संघर्ष कहा जाता है।

3. नागभट्ट द्वितीय:- वत्सराज व सुन्दर देवी का पुत्र। नागभट्ट द्वितीय ने अरब आक्रमणकारियों पर पूर्णतयः रोक लगाई। नागभट्ट द्वितीय ने गंगा समाधि ली। नागभट्ट द्वितीय ने त्रिपक्षिय संघर्ष में कन्नौज को जीतकर सर्वप्रथम प्रतिहारों की राजधानी बनाया।

4. मिहिर भोज (836-885 ई.):- मिहिर भोज को आदिवराह व प्रभास की उपाधि प्राप्त थी। मिहिर भोज वेष्णों धर्म का अनुयायी था। मिहिरभोज प्रतिहारों का सबसे अधिक षक्तिषाली राजा था। इस काल चर्माेत्कर्ष का काल था। मिहिर भोज ने चांदी के द्रुम सिक्के चलवाये। मिहिर भोज को भोज प्रथम भी कहा जाता है। ग्वालियर प्रषक्ति मिहिर भोज के समय लिखी गई।
851 ई. में अरब यात्री सुलेमान ने मिहिर भोज के समय भारत यात्रा की। अरबीयात्री सुलेमान व कल्वण ने अपनी राजतरंगिणी (कष्मीर का इतिहास) में मिहिर भोज के प्रशासन की प्रसंषा की। सुलेमान ने भोज को इस्लाम का सबसे बड़ा शत्रु बताया है।
5. महिन्द्रपाल प्रथम:- इसका गुरू व आश्रित कवि राजषेखर था। राजषेखर ने कर्पुर मंजरी, काव्य मिमांसा, प्रबंध कोष हरविलास व बाल रामायण की रचना की। राजषेखर ने महेन्द्रपाल प्रथम को निर्भय नरेष कहा है।
6. महिपाल प्रथम:- राजषेखर महिपाल प्रथम के दरबार में भी रहा। 915 ई. में अरब यात्री अली मसुदी ने गुर्जर व राजा को बोरा कहा है।
7. राज्यपाल:- 1018 ई. में मुहम्मद गजनवी ने प्रतिहार राजा राज्यपाल पर आक्रमण किया।
8. यषपाल:- 1036 ई. में प्रतिहारों का अन्तिम राजा यषपाल था।
भीनमाल:- हेनसांग/युवाचांग न राजस्थान में भीनमाल व बैराठ की यात्रा की तथा अपने ग्रन्थ सियू की मे भीनमाल को पोनोमोल कहा है। गुप्तकाल के समय का प्रसिद्व गणितज्ञ व खगोलज्ञ ब्रहमागुप्त भीनमाल का रहने वाला था जिससे ब्रहमाण्ड की उत्पत्ति का सिद्धान्त " ब्रहमास्फुट सिद्धान्त (बिग बैन थ्यौरी) का प्रतिपादन किया।

SOURCES: 1) PRATIHARAS_ THE BULWARK OF INDIA BY DOCTOR BINDYARAJ CHAUHAN
2.) BREAKING THE COLONIAL MYTH OF GURJARA ORIGIN OF PRATIHARAS BY SHANTA RANI SHARMA
3.) VARIOUS RESEARCH PAPERS AND BOOKS PUBLISHED BY DR. C V VAID , DR. B N MUNSHI , DR. DASHRATH SHARMA , GAURI SHANKAR OJHA JI. etc